[ऋषि- दिव्य आङिरस । देवता- दक्षिणा । छन्द- त्रिष्टुप ।]
10034
आविरबभून्महि माघोनमेषां विश्वं जीवं तमसो निरमोचि ।
महि ज्योतिः पितृभिभिर्दत्तमागादुरुः पन्था दक्षिणाया अदर्शि॥1॥
सुबह - सुबह ही सूर्य - देवता आते हैं तमस मिटाते हैं ।
यज्ञ-समापन जब होता है यजमान दक्षिणा दे जाते हैं ॥1॥
10035
उच्चा दिवि दक्षिणावन्तो अस्थुर्ये अश्वदा: सह ते सूर्येण ।
हिरण्यदा अमृतत्वं भजन्ते वासोदा: सोम प्र तिरन्त आयुः॥2॥
दानी की सतत प्रगति होती है तेज बढाता है अश्व - दान ।
स्वर्ण - दान है अमर बनाता दीर्घायु बनाता है गृह - दान ॥2॥
10036
दैवी पूर्तिर्दक्षिणा देवयज्या न कवारिभ्यो नहि ते पृणन्ति ।
अथा नरः प्रयतदक्षिणासोSवद्यभिया बहवः पृणन्ति ॥3॥
शुभ-भाव बहुत ही आवश्यक है दान करें श्रध्दा के साथ ।
बिन श्रध्दा दान सफल नहीं होता कुछ भी आता नहीं हाथ ॥3॥
10037
शतधारं वायुमर्कं स्वर्विदं नृचक्षसस्ते अभि चक्षते हविः ।
ये पृणन्ति प्र च यच्छन्ति सङ्गमे ते दक्षिणा दुहते सप्तमातरम्॥4॥
अग्नि-देव आदित्य-अनिल को हम सब देते हैं हविष्यान्न ।
जो देव - गणों को हवि देते हैं वह सबसे उत्तम है दान ॥4॥
10038
दक्षिणावान्प्रथमो हूत एति दक्षिणावानन्ग्रामणीरग्रमेति ।
तमेव मन्ये नृपतिं जनानां यः प्रथमो दक्षिणामाविवाय॥5॥
दान मनुज का नित्य-कर्म है जो प्रति-दिन देता है दान ।
वह जन-प्रिय नायक बनता है परम्परा का रखता मान ॥5॥
10039
तमेव ऋषिं तमु ब्रह्माणमाहुर्यज्ञन्यं सामगामुक्थशासम् ।
स शुक्रस्य तन्वो वेद तिस्त्रो यः प्रथमो दक्षिणया रराध॥6॥
विद्वान उसे होता कहते हैं वह ही करता है साम-गान ।
पावक के तीन स्वरूप जानता दान से पाता है वह मान॥6॥
10040
दक्षिणाश्वं दक्षिणा गां ददाति दक्षिणा चन्द्रमुत यध्दिरण्यम्।
दक्षिणान्नं वनुते यो न आत्मा दक्षिणां वर्म कृणुते विजानन्॥7॥
अन्न - दान की महिमा भारी दान-कवच-सम बन जाता है ।
दुख - कष्टों से हमें बचाता आनन्द से मन भर जाता है ॥7॥
10041
न भोजा मम्रुर्न न्यर्थमीयुर्न रिष्यन्ति न व्यथन्ते ह भोजा:।
इदं यद्विश्वं भुवनं स्वश्चैतत्सर्वं दक्षिणैभ्यो ददाति ॥॥8॥
दानी की कभी मृत्यु नहीं होती यश - देह उसे मिल जाता है ।
दुख से सदा बचा रहता है वह जीवन का सुख पाता है ॥8॥
10042
भोजा जिग्युः सुरभिं योनिमग्रे भोजा जिग्युर्वध्वं1या सुवासा:।
भोजा जिग्युरन्तःपेयं सुराया भोजा जिग्युर्ये अहूता:प्रयन्ति॥9॥
गो - धन दानी को ही मिलता है सुन्दर पत्नी मिलती है ।
रिपु उसका निर्बल होता है सुख- सौभाग्य- कली खिलती है।॥9॥
10043
भोजायाश्वं सं मृजन्त्याशुं भोजायास्ते कन्या3 शुम्भमाना ।
भोजस्येदं पुष्करिणीव वेश्म परिष्कृतं देवमानेव चित्रम् ॥10॥
दानी को सब कुछ मिलता है सभी तरह के वस्त्राभूषण।
घर उपवन सुन्दर मिलता है सुख पाता है पलपल क्षणक्षण॥10॥
10044
भोजमश्वा: सुष्ठुवाहो वहन्ति सुवृद्रथो वर्तते दक्षिणाया: ।
भोजं देवासोSवता भरेषु भोजः शतत्रून्त्समनीकेषु जेता॥11॥
दान मनुज को बडा बनाता सत्कर्म - हेतु प्रेरित करता है ।
स्वयं श्रेष्ठ - पथ पर वह चलता औरों का प्रेरक बनता है ॥11॥
10034
आविरबभून्महि माघोनमेषां विश्वं जीवं तमसो निरमोचि ।
महि ज्योतिः पितृभिभिर्दत्तमागादुरुः पन्था दक्षिणाया अदर्शि॥1॥
सुबह - सुबह ही सूर्य - देवता आते हैं तमस मिटाते हैं ।
यज्ञ-समापन जब होता है यजमान दक्षिणा दे जाते हैं ॥1॥
10035
उच्चा दिवि दक्षिणावन्तो अस्थुर्ये अश्वदा: सह ते सूर्येण ।
हिरण्यदा अमृतत्वं भजन्ते वासोदा: सोम प्र तिरन्त आयुः॥2॥
दानी की सतत प्रगति होती है तेज बढाता है अश्व - दान ।
स्वर्ण - दान है अमर बनाता दीर्घायु बनाता है गृह - दान ॥2॥
10036
दैवी पूर्तिर्दक्षिणा देवयज्या न कवारिभ्यो नहि ते पृणन्ति ।
अथा नरः प्रयतदक्षिणासोSवद्यभिया बहवः पृणन्ति ॥3॥
शुभ-भाव बहुत ही आवश्यक है दान करें श्रध्दा के साथ ।
बिन श्रध्दा दान सफल नहीं होता कुछ भी आता नहीं हाथ ॥3॥
10037
शतधारं वायुमर्कं स्वर्विदं नृचक्षसस्ते अभि चक्षते हविः ।
ये पृणन्ति प्र च यच्छन्ति सङ्गमे ते दक्षिणा दुहते सप्तमातरम्॥4॥
अग्नि-देव आदित्य-अनिल को हम सब देते हैं हविष्यान्न ।
जो देव - गणों को हवि देते हैं वह सबसे उत्तम है दान ॥4॥
10038
दक्षिणावान्प्रथमो हूत एति दक्षिणावानन्ग्रामणीरग्रमेति ।
तमेव मन्ये नृपतिं जनानां यः प्रथमो दक्षिणामाविवाय॥5॥
दान मनुज का नित्य-कर्म है जो प्रति-दिन देता है दान ।
वह जन-प्रिय नायक बनता है परम्परा का रखता मान ॥5॥
10039
तमेव ऋषिं तमु ब्रह्माणमाहुर्यज्ञन्यं सामगामुक्थशासम् ।
स शुक्रस्य तन्वो वेद तिस्त्रो यः प्रथमो दक्षिणया रराध॥6॥
विद्वान उसे होता कहते हैं वह ही करता है साम-गान ।
पावक के तीन स्वरूप जानता दान से पाता है वह मान॥6॥
10040
दक्षिणाश्वं दक्षिणा गां ददाति दक्षिणा चन्द्रमुत यध्दिरण्यम्।
दक्षिणान्नं वनुते यो न आत्मा दक्षिणां वर्म कृणुते विजानन्॥7॥
अन्न - दान की महिमा भारी दान-कवच-सम बन जाता है ।
दुख - कष्टों से हमें बचाता आनन्द से मन भर जाता है ॥7॥
10041
न भोजा मम्रुर्न न्यर्थमीयुर्न रिष्यन्ति न व्यथन्ते ह भोजा:।
इदं यद्विश्वं भुवनं स्वश्चैतत्सर्वं दक्षिणैभ्यो ददाति ॥॥8॥
दानी की कभी मृत्यु नहीं होती यश - देह उसे मिल जाता है ।
दुख से सदा बचा रहता है वह जीवन का सुख पाता है ॥8॥
10042
भोजा जिग्युः सुरभिं योनिमग्रे भोजा जिग्युर्वध्वं1या सुवासा:।
भोजा जिग्युरन्तःपेयं सुराया भोजा जिग्युर्ये अहूता:प्रयन्ति॥9॥
गो - धन दानी को ही मिलता है सुन्दर पत्नी मिलती है ।
रिपु उसका निर्बल होता है सुख- सौभाग्य- कली खिलती है।॥9॥
10043
भोजायाश्वं सं मृजन्त्याशुं भोजायास्ते कन्या3 शुम्भमाना ।
भोजस्येदं पुष्करिणीव वेश्म परिष्कृतं देवमानेव चित्रम् ॥10॥
दानी को सब कुछ मिलता है सभी तरह के वस्त्राभूषण।
घर उपवन सुन्दर मिलता है सुख पाता है पलपल क्षणक्षण॥10॥
10044
भोजमश्वा: सुष्ठुवाहो वहन्ति सुवृद्रथो वर्तते दक्षिणाया: ।
भोजं देवासोSवता भरेषु भोजः शतत्रून्त्समनीकेषु जेता॥11॥
दान मनुज को बडा बनाता सत्कर्म - हेतु प्रेरित करता है ।
स्वयं श्रेष्ठ - पथ पर वह चलता औरों का प्रेरक बनता है ॥11॥
दान मनुज को बडा बनाता सत्कर्म - हेतु प्रेरित करता है ।
ReplyDeleteस्वयं श्रेष्ठ - पथ पर वह चलता औरों का प्रेरक बनता है ॥11॥
सुंदर बोध देती पंक्तियाँ !
दान अपरिग्रह को दृढ़ करता है।
ReplyDeleteश्लोकों का दोहों में रूपांतरण का आपका ये महती कार्य अत्यंत सराहनीय है...
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