Friday, 29 November 2013

सूक्त - 107

[ऋषि- दिव्य आङिरस । देवता- दक्षिणा । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10034
आविरबभून्महि माघोनमेषां विश्वं जीवं तमसो निरमोचि ।
महि ज्योतिः पितृभिभिर्दत्तमागादुरुः पन्था दक्षिणाया अदर्शि॥1॥

सुबह - सुबह  ही  सूर्य - देवता  आते  हैं  तमस  मिटाते  हैं ।
यज्ञ-समापन जब  होता  है  यजमान  दक्षिणा  दे जाते हैं ॥1॥

10035
उच्चा  दिवि  दक्षिणावन्तो  अस्थुर्ये  अश्वदा:  सह  ते  सूर्येण ।
हिरण्यदा अमृतत्वं भजन्ते वासोदा: सोम प्र तिरन्त आयुः॥2॥

दानी  की  सतत  प्रगति  होती  है  तेज  बढाता  है अश्व - दान ।
स्वर्ण - दान  है अमर बनाता दीर्घायु बनाता  है गृह - दान ॥2॥

10036
दैवी  पूर्तिर्दक्षिणा  देवयज्या  न  कवारिभ्यो  नहि ते पृणन्ति ।
अथा   नरः   प्रयतदक्षिणासोSवद्यभिया   बहवः   पृणन्ति ॥3॥

शुभ-भाव  बहुत  ही  आवश्यक  है  दान  करें  श्रध्दा  के साथ ।
बिन श्रध्दा दान सफल नहीं होता कुछ भी आता नहीं हाथ ॥3॥

10037
शतधारं   वायुमर्कं   स्वर्विदं   नृचक्षसस्ते   अभि   चक्षते   हविः ।
ये पृणन्ति प्र च यच्छन्ति सङ्गमे ते दक्षिणा दुहते सप्तमातरम्॥4॥

अग्नि-देव आदित्य-अनिल को हम सब देते हैं हविष्यान्न ।
जो देव - गणों  को  हवि  देते  हैं वह सबसे उत्तम है दान ॥4॥

10038
दक्षिणावान्प्रथमो हूत एति  दक्षिणावानन्ग्रामणीरग्रमेति ।
तमेव मन्ये नृपतिं जनानां यः प्रथमो दक्षिणामाविवाय॥5॥

दान मनुज का नित्य-कर्म  है  जो  प्रति-दिन  देता है दान ।
वह जन-प्रिय नायक बनता है परम्परा का रखता मान ॥5॥

10039
तमेव  ऋषिं तमु  ब्रह्माणमाहुर्यज्ञन्यं  सामगामुक्थशासम् । 
स शुक्रस्य तन्वो वेद तिस्त्रो यः प्रथमो  दक्षिणया रराध॥6॥

विद्वान उसे  होता  कहते  हैं  वह  ही  करता  है  साम-गान ।
पावक के तीन स्वरूप जानता दान से पाता है वह मान॥6॥

10040
दक्षिणाश्वं  दक्षिणा  गां  ददाति  दक्षिणा  चन्द्रमुत यध्दिरण्यम्।
दक्षिणान्नं वनुते यो न आत्मा दक्षिणां वर्म कृणुते विजानन्॥7॥

अन्न - दान  की महिमा भारी दान-कवच-सम बन जाता है ।
दुख - कष्टों  से  हमें बचाता आनन्द से मन भर जाता है ॥7॥

10041
न भोजा मम्रुर्न न्यर्थमीयुर्न रिष्यन्ति न व्यथन्ते ह  भोजा:।
इदं   यद्विश्वं  भुवनं  स्वश्चैतत्सर्वं   दक्षिणैभ्यो  ददाति ॥॥8॥

दानी की कभी मृत्यु नहीं होती यश - देह उसे मिल जाता है ।
दुख  से  सदा  बचा  रहता है वह जीवन का सुख पाता है ॥8॥

10042
भोजा जिग्युः सुरभिं योनिमग्रे भोजा जिग्युर्वध्वं1या सुवासा:।
भोजा जिग्युरन्तःपेयं सुराया भोजा जिग्युर्ये अहूता:प्रयन्ति॥9॥

गो - धन  दानी  को  ही  मिलता  है  सुन्दर  पत्नी  मिलती  है ।
रिपु उसका निर्बल होता है सुख- सौभाग्य- कली खिलती है।॥9॥

10043
भोजायाश्वं सं मृजन्त्याशुं भोजायास्ते कन्या3 शुम्भमाना ।
भोजस्येदं पुष्करिणीव वेश्म परिष्कृतं देवमानेव चित्रम् ॥10॥

दानी  को  सब  कुछ  मिलता  है  सभी  तरह  के  वस्त्राभूषण।
घर उपवन सुन्दर मिलता है सुख पाता है पलपल क्षणक्षण॥10॥

10044
भोजमश्वा:  सुष्ठुवाहो  वहन्ति  सुवृद्रथो  वर्तते  दक्षिणाया: ।
भोजं देवासोSवता भरेषु भोजः शतत्रून्त्समनीकेषु जेता॥11॥

दान मनुज को बडा बनाता सत्कर्म - हेतु प्रेरित करता है ।
स्वयं श्रेष्ठ - पथ पर वह चलता औरों का प्रेरक बनता है ॥11॥
      
                

3 comments:

  1. दान मनुज को बडा बनाता सत्कर्म - हेतु प्रेरित करता है ।
    स्वयं श्रेष्ठ - पथ पर वह चलता औरों का प्रेरक बनता है ॥11॥

    सुंदर बोध देती पंक्तियाँ !

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  2. दान अपरिग्रह को दृढ़ करता है।

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  3. श्लोकों का दोहों में रूपांतरण का आपका ये महती कार्य अत्यंत सराहनीय है...

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