[ऋषि- शकपूत नार्मेध । देवता- मित्रावरुण । छन्द- रूपा-सारिणी-पंक्ति-बृहती।]
10261
ईजानमिद् द्यौर्गूर्तावसुरीजानं भूमिरभि प्रभूषणि ।
ईजानं देवावश्विनावभि सुम्नैरवर्धताम् ॥1॥
यज्ञ - शील नर और नारी पर वसुधा वरद- हस्त रखती है ।
गिरा-गगन गुनगुनाती है सुख-साधन-सतत दिया करती है॥1॥
10262
ता वां मित्रावरुणा धारयत्क्षिती सुषुम्नेषितत्वता यजामसि ।
युवोः क्राणाय सख्यैरभि ष्याम रक्षसः ॥2॥
हे मित्र - वरुण हे सुख - साधक हमको भी यश - वैभव देना ।
कल्याण सभी के करना प्रभुवर मुझको भी तुम अपना लेना ॥2॥
10263
अधा चिन्नु यद्दिधिषामहे वामभि प्रियं रेक्णः पत्यमाना: ।
दद्वाँ वा यत्पुष्यति रेक्णः सम्वारन्नकिरस्य मघानि ॥3॥
हविष्यान्न जो हम देते हैं उससे सुख-शान्ति हमें मिलती है ।
यज्ञ सदा सार्थक होता है मन -उपवन में कली खिलती है ॥3॥
10264
असावन्यो असुर सूयत द्यौस्त्वं विश्वेषां वरुणासि राजा ।
मूर्धा रथस्य चाकन्नैतावतैनसान्तकध्रुक् ॥4॥
हे मित्र - देव हे वरुण - देव दोनों का आवाहन करते हैं ।
असुर-वृत्ति से हमें बचाओ हम सावधान निशिदिन रहते हैं॥4॥
10265
अस्मिन्त्स्वे3तच्छकपूत एनो हिते मित्रे निगतान्हन्ति वीरान्।
अवोर्वा यध्दात्तनूष्ववः प्रियासु यज्ञियास्वर्वा ॥5॥
स्वस्थ सदा हों हम तन - मन से मित्र - देव अनुकूल रहें ।
हे प्रभु सदा सुरक्षा देना हम जन - हित में लगे रहें ॥5॥
10266
युवोर्हि मातादितिर्विचेतसा द्यौर्न भूमिः पयसा पुपूतनि ।
अव प्रिया दिदिष्टन सूरो निनिक्त रश्मिभिः ॥6॥
शस्य -श्यामला यह धरती है आनन्द-दायिनी यह जननी है ।
प्रेम - प्रसाद परस्पर पायें रवि-किरणों की यह भगिनी है ॥6॥
10267
युवं ह्यप्नराजावसीदतं तिष्ठद्रथं न धूर्षदं वनर्षदम् ।
ता नः कणूकयन्तीर्नृमेधस्तत्रे अंहसः सुमेधस्तत्रे अंहसः॥7॥
सत्कर्म सदा सबको सुख देता आओ चलें सत्य की ओर ।
असत पर सदा सत्य भारी है देखो झॉक रही है भोर ॥7॥
10261
ईजानमिद् द्यौर्गूर्तावसुरीजानं भूमिरभि प्रभूषणि ।
ईजानं देवावश्विनावभि सुम्नैरवर्धताम् ॥1॥
यज्ञ - शील नर और नारी पर वसुधा वरद- हस्त रखती है ।
गिरा-गगन गुनगुनाती है सुख-साधन-सतत दिया करती है॥1॥
10262
ता वां मित्रावरुणा धारयत्क्षिती सुषुम्नेषितत्वता यजामसि ।
युवोः क्राणाय सख्यैरभि ष्याम रक्षसः ॥2॥
हे मित्र - वरुण हे सुख - साधक हमको भी यश - वैभव देना ।
कल्याण सभी के करना प्रभुवर मुझको भी तुम अपना लेना ॥2॥
10263
अधा चिन्नु यद्दिधिषामहे वामभि प्रियं रेक्णः पत्यमाना: ।
दद्वाँ वा यत्पुष्यति रेक्णः सम्वारन्नकिरस्य मघानि ॥3॥
हविष्यान्न जो हम देते हैं उससे सुख-शान्ति हमें मिलती है ।
यज्ञ सदा सार्थक होता है मन -उपवन में कली खिलती है ॥3॥
10264
असावन्यो असुर सूयत द्यौस्त्वं विश्वेषां वरुणासि राजा ।
मूर्धा रथस्य चाकन्नैतावतैनसान्तकध्रुक् ॥4॥
हे मित्र - देव हे वरुण - देव दोनों का आवाहन करते हैं ।
असुर-वृत्ति से हमें बचाओ हम सावधान निशिदिन रहते हैं॥4॥
10265
अस्मिन्त्स्वे3तच्छकपूत एनो हिते मित्रे निगतान्हन्ति वीरान्।
अवोर्वा यध्दात्तनूष्ववः प्रियासु यज्ञियास्वर्वा ॥5॥
स्वस्थ सदा हों हम तन - मन से मित्र - देव अनुकूल रहें ।
हे प्रभु सदा सुरक्षा देना हम जन - हित में लगे रहें ॥5॥
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युवोर्हि मातादितिर्विचेतसा द्यौर्न भूमिः पयसा पुपूतनि ।
अव प्रिया दिदिष्टन सूरो निनिक्त रश्मिभिः ॥6॥
शस्य -श्यामला यह धरती है आनन्द-दायिनी यह जननी है ।
प्रेम - प्रसाद परस्पर पायें रवि-किरणों की यह भगिनी है ॥6॥
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युवं ह्यप्नराजावसीदतं तिष्ठद्रथं न धूर्षदं वनर्षदम् ।
ता नः कणूकयन्तीर्नृमेधस्तत्रे अंहसः सुमेधस्तत्रे अंहसः॥7॥
सत्कर्म सदा सबको सुख देता आओ चलें सत्य की ओर ।
असत पर सदा सत्य भारी है देखो झॉक रही है भोर ॥7॥
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...बहुत सराहनीय प्रकाश..
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