Wednesday, 6 November 2013

सूक्त - 132

[ऋषि- शकपूत नार्मेध । देवता- मित्रावरुण । छन्द- रूपा-सारिणी-पंक्ति-बृहती।]

10261
ईजानमिद् द्यौर्गूर्तावसुरीजानं भूमिरभि प्रभूषणि ।
ईजानं     देवावश्विनावभि    सुम्नैरवर्धताम्  ॥1॥ 

यज्ञ - शील  नर  और  नारी  पर  वसुधा  वरद- हस्त  रखती है ।
गिरा-गगन गुनगुनाती है सुख-साधन-सतत दिया करती है॥1॥

10262
ता वां मित्रावरुणा धारयत्क्षिती सुषुम्नेषितत्वता यजामसि ।
युवोः       क्राणाय       सख्यैरभि       ष्याम      रक्षसः    ॥2॥

हे  मित्र - वरुण  हे  सुख - साधक  हमको  भी यश - वैभव देना ।
कल्याण सभी के करना प्रभुवर मुझको भी तुम अपना लेना ॥2॥

10263
अधा चिन्नु यद्दिधिषामहे वामभि प्रियं रेक्णः पत्यमाना: ।
दद्वाँ  वा यत्पुष्यति  रेक्णः सम्वारन्नकिरस्य मघानि ॥3॥

हविष्यान्न जो हम देते हैं उससे सुख-शान्ति हमें मिलती है ।
यज्ञ सदा सार्थक होता है मन -उपवन में कली खिलती है ॥3॥

10264
असावन्यो असुर सूयत द्यौस्त्वं विश्वेषां वरुणासि राजा ।
मूर्धा         रथस्य       चाकन्नैतावतैनसान्तकध्रुक् ॥4॥

हे  मित्र - देव  हे  वरुण - देव  दोनों  का  आवाहन  करते  हैं ।
असुर-वृत्ति से हमें बचाओ हम सावधान निशिदिन रहते हैं॥4॥

10265
अस्मिन्त्स्वे3तच्छकपूत एनो हिते मित्रे निगतान्हन्ति वीरान्।
अवोर्वा        यध्दात्तनूष्ववः        प्रियासु       यज्ञियास्वर्वा ॥5॥

स्वस्थ  सदा  हों  हम  तन - मन  से  मित्र - देव  अनुकूल  रहें ।
हे   प्रभु  सदा  सुरक्षा  देना   हम  जन - हित  में  लगे  रहें  ॥5॥

10266
युवोर्हि मातादितिर्विचेतसा द्यौर्न भूमिः पयसा पुपूतनि ।
अव    प्रिया    दिदिष्टन    सूरो   निनिक्त   रश्मिभिः ॥6॥

शस्य -श्यामला यह धरती है आनन्द-दायिनी यह जननी है ।
प्रेम - प्रसाद परस्पर पायें रवि-किरणों की यह भगिनी है ॥6॥

10267
युवं    ह्यप्नराजावसीदतं    तिष्ठद्रथं    न   धूर्षदं    वनर्षदम् ।
ता नः कणूकयन्तीर्नृमेधस्तत्रे अंहसः सुमेधस्तत्रे अंहसः॥7॥ 

सत्कर्म  सदा  सबको  सुख  देता  आओ चलें सत्य की ओर ।
असत  पर  सदा  सत्य  भारी  है  देखो झॉक रही है भोर ॥7॥
 

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...बहुत सराहनीय प्रकाश..

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