Monday, 18 November 2013

सूक्त - 118

[ऋषि-उरुक्षय आमहीयव । देवता- अग्नि ।छन्द- गायत्री ।]

10141
अग्ने हंसि न्य1त्रिणं दीद्यन्मर्त्येष्वा । स्वे क्षये शुचिव्रत॥1॥

हे  अग्नि - देव  हे  तेज - पुञ्ज  तम  से  तुम्हीं  बचाते  हो ।
रोगाणु  नष्ट  तुम  ही  करते  हो  निरोगी  हमें बनाते हो ॥1॥

10142
उत्तिष्ठसि स्वाहुतो घृतानि प्रति मोदसे । यत्त्वा स्त्रुचःसमस्थिरन् ॥2॥

घृत - आहुति  है  तुम्हें  समर्पित  सादर  ग्रहण करो भगवन ।
श्रध्दा से अर्पित करते हैं भली-भॉंति हो अग्नि-प्रज्ज्वलन॥2॥

10143
स आहुतो वि रोचतेSग्निरीळेन्यो गिरा । स्त्रुचा प्रतीकमज्यते ॥3॥

सादर  आवाहन  है  प्रभुवर  स्तवन  प्रेम  से  हम  पढते  हैं ।
घृत-आहुति हम सर्व-प्रथम हे अग्नि-देव अर्पित करते हैं ॥3॥

10144
घृतेनाग्निः समज्यते मधुप्रतीक आहुतः। रोचमानो विभावसु:॥4॥

हविष्यान्न  जब  तुम  लेते  हो  और  तृप्त  जब  हो  जाते  हो ।
स्तुति से आहुति से प्रदीप्त तुम प्रकाश-पुञ्ज बन जाते हो ॥4॥

10145
जरमाणः समिध्यसे देवेभ्यो हव्यवाहन । तं त्वा हवन्त मर्त्या:॥5॥

तुम  देवों के हवि-वाहक हो  स्तुति से  तुम्हें  नमन  करते हैं ।
हम बहुत प्रभावित हैं तुमसे  हम आवाहन  करते रहते हैं ॥5॥

10146
तं मर्ता अमर्त्यं घृतेनाग्निं सपर्यत ।अदाभ्यं गृहपतिम् ॥6॥

हे  अग्नि-देव  हे  अविनाशी  तुम  ही  गृहपति  हो  भगवन ।
तुम  सदा  हमारी रक्षा करना हम करते हैं पूजन-अर्चन ॥6॥

10147
अदाभ्येन शोचिषाग्ने रक्षस्त्वं दह।गोपा ऋतस्य दीदिहि॥7॥

असुर - वृत्ति  से  करो  सुरक्षा  तुम  हो  अतिशय  बलशाली ।
तुझ में अदम्य तेज है प्रभु सज्जनता की करते रखवाली ॥7॥ 

10148
स त्वमग्ने प्रतीकेन प्रत्योष यातुधान्यः। उरुक्षयेषु दीद्यत्॥8॥

सहज - स्वाभाविक  रूप  तुम्हारा  रोगों  से  हमें  बचाता  है ।
निर्धारित  स्थानों  में  रहकर  जग  को  नीरोग  बनाता है ॥8॥

10149
तं त्वा गीर्भिरुरुक्षया हव्यवाहं समीधिरे।यजिष्ठं मानुषे जने॥9॥

निवास  तुम्हारा  अति  विस्तृत  है  तुम  ही  हवि के वाहक हो ।
हम वेद- मंत्र से तुम्हें बुलाते तुम जीव-जगत के पालक हो ॥9॥ 

3 comments:

  1. शकुंतला जी, आपका कार्य विस्तार देख कर नेत्र विस्तारित रह जाते हैं...आपको और आपके कृत्य को प्रणाम...संकलन करने योग्य भावार्थ...

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  2. शकुंतला जी, आपका कार्य विस्तार देख कर नेत्र विस्तारित रह जाते हैं...आपको और आपके कृत्य को प्रणाम...संकलन करने योग्य भावार्थ...

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  3. हे अग्नि - देव हे तेज - पुञ्ज तम से तुम्हीं बचाते हो ।
    रोगाणु नष्ट तुम ही करते हो निरोगी हमें बनाते हो ॥1॥

    अग्नि देव को नमन..आभार !

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