Wednesday, 13 November 2013

सूक्त- 123

[ऋषि- वेन भार्गव । देवता- आदित्य । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10190
अयं    वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भा     ज्योतिर्जरायू    रजसो   विमाने ।
इममपां   सङ्गमे   सूर्यस्य  शिशुं  न  विप्रा  मतिभी  रिहन्ति॥1॥

सूर्य  मेघ  निर्मित  वितान  से  रवि  रश्मि-युक्त  जल भरते हैं ।
वृष्टि  हेतु उपक्रम  करते  हैं  जन  शिशु-सम  अर्चन  करते  हैं ॥1॥

10191
समुद्रादूर्मिमुदियर्ति     वेनो    नभोजा:   पृष्ठं    हर्यतस्य    दर्शि ।
ऋतस्य  सानावधि  विष्टपि  भ्राट् समानं  योनिमध्यनूषत व्रा:॥2॥

सूर्य -   देव   जल   की  धारा  को   पृथ्वी    पर   प्रेषित   करते  हैं ।
आलोक - पुञ्ज उस सूर्यदेव का जन शिशु -सम अर्चन करते हैं॥2॥

10192
समानं    पूर्वीरभि  वावशानास्तिष्ठन्वत्सस्य   मातरः   सनीला: ।
ऋतस्य सानावधि चक्रमाणा रिहन्ति मध्वो अमृतस्य  वाणीः॥3॥

वत्स - भूत   विद्युत   की   माता   नीड   में  ही  स्थित  रहती  है ।
मेघ  की  मधुर  जल-वाणी  फिर  सूर्य-देव की स्तुति करती है ॥3॥

10193
जानन्तो  रूपमकृपन्त  विप्रा  मृगस्य  घोषं  महिषस्य  हि  ग्मन् ।
ऋतेन   यन्तो   अधि  सिन्धुमस्थुर्विद्गन्धर्वो  अमृतानि  नाम ॥4॥

ज्ञानी - जन  रवि  के  स्वरूप  का  दर्शन  कर उसे नमन करते हैं ।
सृष्टि - नियम आदित्य निभाते हम सुधा-सलिल प्राप्त करते हैं ॥4॥

10194
अप्सरा  जारमुपसिष्मियाणा   योषा   बिभर्ति   परमे    व्योमन् ।
चरत्प्रियस्य  योनिषु  प्रियः सन्त्सीदत्पक्षे  हिरण्यये  स वेनः॥5॥

अप्सरा  सदृश  बिजली  मुस्काती  रवि  के  संग  विचरती  है ।
वह  मन  ही  मन  पत्नी  सम  आदित्य  का  वरण  करती   है ॥5॥ 

10195
नाके   सुपर्णमुप   यत्पतन्तं   हृदा   वेनन्तो  अभ्यचक्षत  त्वा ।
हिरण्यपक्षं   वरुणस्य  दूतं  यमस्य  योनौ  शकुनं  भुरण्यम् ॥6॥ 

सूर्य - देव   नभ   में   स्थिर   हैं   पृथ्वी  परिक्रमा   करती   है ।
रवि  सबका  पालक-पोषक  है  यही  सोचती  यह  धरती  है ॥6॥ 

10196
ऊर्ध्वो गन्धर्वो अधि नाके अस्थात्प्रत्यङ् चित्रा बिभ्रदस्यायुधानि।
वसानो  अत्कं  सुरभिं  दृशे  कं  स्व1र्ण  नाम जनत प्रियाणि ॥7॥

आदित्य  अन्तरिक्ष  स्थित  हैं  विद्युत - छटा  से  वे  शोभित  हैं ।
रवि  जल  को  धारण  करता है वह ही तो आदित्य-अमित है ॥7॥

10197
द्रप्सः  समुद्रमभि  यज्जिगाति  पश्यन्गृध्रस्य  चक्षसा विधर्मन् ।
भानुः  शुक्रेण  शोचिषा  चकानस्तृतीये  चक्रे रजसि प्रियाणि ॥8॥

नभ  में  आदित्य  सुशोभित है वह  उदक-बिन्दुओं का धारक है ।
सूर्य  मेघ  के  ही  समीप है रवि सुधा - तुल्य जल - दायक है ॥8॥
  

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