[ऋषि- अग्नि तापस । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- अनुष्टुप ।]
10321
अग्ने अच्छा वदेह नः प्रत्यङ् नः सुमना भव ।
प्र नो यच्छ विशस्पते धनदा असि नस्त्वम् ॥1॥
हे प्रभु अग्नि- देव तुम आओ शुभ गुण-चिन्तन लेकर आओ ।
तुम ही हो यश-वैभव के स्वामी धन और धान हमें दे जाओ ॥1॥
10322
प्र नो यच्छत्वर्यमा प्र भगः प्र बृहस्पतिः ।
प्र देवा: प्रोत सूनृता रायो देवी ददातु नः ॥2॥
हे देव करो कल्याण सभी का बृहस्पति जी दे दो ज्ञान ।
हे वाग्देवी धन - वैभव दो वाणी का भी दे दो वरदान ॥2॥
10323
सोमं राजानमवसेSग्निं गीर्भिर्हवामहे ।
आदित्यान्विष्णुं सूर्यं ब्रह्माणं च बृहस्पतिम् ॥3॥
हे भगवन रक्षा करो हमारी तुम ही तो हो पालनहार ।
हे अग्नि-देव आदित्य-देव कर लो मेरी विनती स्वीकार ॥3॥
10324
इन्द्रवायू बृहस्पतिं सुहवेह हवामहे ।
यथा नः सर्व इज्जनः सङ्गत्यां सुमना असत् ॥4॥
हे पवन-देव तुम करो अनुग्रह सदा-सदा रहना अनुकूल ।
हम तेरा आवाहन करते हैं कभी न होना तुम प्रतिकूल ॥4॥
10325
अर्यमणं बृहस्पतिमिन्द्रं दानाय चोदय ।
वातं विष्णुं सरस्वतीं सवितारं च वाजिनम् ॥5॥
हे अग्नि वाक् पर्जन्य अन्न तुम सबको आमंत्रित करते हैं।
तुमसे कुछ गुण पा लेने का लोभ सदा मन में रखते हैं ॥5॥
10326
त्वं नो अग्ने अग्निभिर्ब्रह्म यज्ञं च वर्धय ।
त्वं नो देवतातये रायो दानाय चोदय ॥6॥
हे अग्नि-देव तुम सभी अग्नि के साथ यज्ञ में आ जाओ ।
जीवन शुभ-चिन्तन बन जाए आशीर्वाद हमें दे जाओ ॥6॥
10321
अग्ने अच्छा वदेह नः प्रत्यङ् नः सुमना भव ।
प्र नो यच्छ विशस्पते धनदा असि नस्त्वम् ॥1॥
हे प्रभु अग्नि- देव तुम आओ शुभ गुण-चिन्तन लेकर आओ ।
तुम ही हो यश-वैभव के स्वामी धन और धान हमें दे जाओ ॥1॥
10322
प्र नो यच्छत्वर्यमा प्र भगः प्र बृहस्पतिः ।
प्र देवा: प्रोत सूनृता रायो देवी ददातु नः ॥2॥
हे देव करो कल्याण सभी का बृहस्पति जी दे दो ज्ञान ।
हे वाग्देवी धन - वैभव दो वाणी का भी दे दो वरदान ॥2॥
10323
सोमं राजानमवसेSग्निं गीर्भिर्हवामहे ।
आदित्यान्विष्णुं सूर्यं ब्रह्माणं च बृहस्पतिम् ॥3॥
हे भगवन रक्षा करो हमारी तुम ही तो हो पालनहार ।
हे अग्नि-देव आदित्य-देव कर लो मेरी विनती स्वीकार ॥3॥
10324
इन्द्रवायू बृहस्पतिं सुहवेह हवामहे ।
यथा नः सर्व इज्जनः सङ्गत्यां सुमना असत् ॥4॥
हे पवन-देव तुम करो अनुग्रह सदा-सदा रहना अनुकूल ।
हम तेरा आवाहन करते हैं कभी न होना तुम प्रतिकूल ॥4॥
10325
अर्यमणं बृहस्पतिमिन्द्रं दानाय चोदय ।
वातं विष्णुं सरस्वतीं सवितारं च वाजिनम् ॥5॥
हे अग्नि वाक् पर्जन्य अन्न तुम सबको आमंत्रित करते हैं।
तुमसे कुछ गुण पा लेने का लोभ सदा मन में रखते हैं ॥5॥
10326
त्वं नो अग्ने अग्निभिर्ब्रह्म यज्ञं च वर्धय ।
त्वं नो देवतातये रायो दानाय चोदय ॥6॥
हे अग्नि-देव तुम सभी अग्नि के साथ यज्ञ में आ जाओ ।
जीवन शुभ-चिन्तन बन जाए आशीर्वाद हमें दे जाओ ॥6॥
यथायोग्य सब, यथाभोग्य सब,
ReplyDeleteफलती धरती, फलता है नभ।