[ऋषि- चित्रमहा वासिष्ठ । देवता- अग्नि । छन्द- जगती-त्रिष्टुप ।]
10182
वसुं न चित्रमहसं गृणीषे वामं शेवमतिथिमद्विषेण्यम् ।
स रासते शुरुधो विश्वधायसोअSग्निर्होता गृहपतिः सुवीर्यम् ॥1॥
सूर्य - सदृश हे अग्नि - देव प्रभु हमको चारों बल दे दो ।
तुम सबके दुख निवारक हो प्रभु अपनी भक्ति हमें दे दो ॥1॥
10183
जुषाणो अग्ने प्रति हर्य मे वचो विश्वानि विद्वान् वयुनानि सुक्रतो।
घृतनिर्णिग्ब्रह्मणे गातुमेरय तव देवा अजनयन्ननु व्रतम् ॥2॥
हम प्रेम से पूजा करते हैं हे अग्नि - देव स्वीकार करो ।
सामवेद हम भी गायें प्रभु तुम सद् - गुण भण्डार भरो ॥2॥
10184
सप्त धामानि परियन्नमर्त्यो दाशद्दाशुषे सुकृते मामहस्व ।
सुवीरेण रयिणाग्ने स्वाभुवा यस्त आनट् समिधा त्वं जुषस्व॥3॥
तुम ही धन - संतति देते हो मेरा अभीष्ट भी पूर्ण करो ।
हम हवियान्न तुमको देते हैं धन व धान्य भण्डार भरो ॥3॥
10185
यज्ञस्य केतुं प्रथमं- पुरोहितं हविष्मन्त ईळते सप्त वाजिनम् ।
शृण्वन्तमग्निं घृतपृष्ठमुक्षणं पृणन्तं देवं पृणते सुवीर्यम् ॥4॥
हे अभीष्ट फल-दाता भगवन तुम ही तेजस्वी तुम बलिष्ट हो ।
धन - वैभव हमको भी दो प्रभु तुम अविनाशी तुम्हीं ईष्ट हो ॥4॥
10186
त्वं दूतः प्रथमो वरेण्य: स हूयमानो अमृताय मत्स्व ।
त्वां मर्जयन्मरुतो दाशुषो गृहे त्वां स्तोमेभिर्भृगवो वि रुरुचुः ॥5॥
सब देवों को हवि हे भगवन मुख्य रुप से तुम देते हो ।
तुम सर्वोत्तम पूजनीय हो दीर्घ - आयु तुम ही देते हो ॥5॥
10187
इषं दुह्न्त्सुदुघां विश्वधायसं यज्ञप्रिये यजमानाय सुक्रतो ।
अग्ने घृतस्नुस्त्रिरृतानि दीद्यद्वर्तिर्यज्ञं परियन्त्सुक्रतूयसे ॥6॥
यज्ञ - स्थल में तुम्हीं विराजित सत्कर्म - यज्ञ करते सम्पादित ।
हम सत्कर्म सीख जायें प्रभु हमें भी कर दो तुम्हीं व्यवस्थित॥6॥
10188
त्वामिदस्या उषसो व्युष्टिषु दूतं कृण्वाना अयजन्त मानुषा:।
त्वां देवा महयाय्याय वावृधुराज्यमग्ने निमृजन्तो अध्वरे ॥7॥
सुबह - सुबह ही यज्ञ होता है ऊषा - काल में तुम आते हो ।
तुम देव - गणों के पूजनीय हो जन - श्रध्दा से हवि पाते हो ॥7॥
10189
नि त्वा वसिष्ठा अह्वन्त वाजिनं गृणन्तो अग्ने विदथेषु वेधसः ।
रायस्पोषं यजमानेषु धारय यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥8॥
हे अग्नि अन्नदाता हो तुम हम सब तेरी स्तुति करते हैं ।
यश और धन वे ही देते हैं सतत - सुरक्षित वे रखते हैं ॥8॥
10182
वसुं न चित्रमहसं गृणीषे वामं शेवमतिथिमद्विषेण्यम् ।
स रासते शुरुधो विश्वधायसोअSग्निर्होता गृहपतिः सुवीर्यम् ॥1॥
सूर्य - सदृश हे अग्नि - देव प्रभु हमको चारों बल दे दो ।
तुम सबके दुख निवारक हो प्रभु अपनी भक्ति हमें दे दो ॥1॥
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जुषाणो अग्ने प्रति हर्य मे वचो विश्वानि विद्वान् वयुनानि सुक्रतो।
घृतनिर्णिग्ब्रह्मणे गातुमेरय तव देवा अजनयन्ननु व्रतम् ॥2॥
हम प्रेम से पूजा करते हैं हे अग्नि - देव स्वीकार करो ।
सामवेद हम भी गायें प्रभु तुम सद् - गुण भण्डार भरो ॥2॥
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सप्त धामानि परियन्नमर्त्यो दाशद्दाशुषे सुकृते मामहस्व ।
सुवीरेण रयिणाग्ने स्वाभुवा यस्त आनट् समिधा त्वं जुषस्व॥3॥
तुम ही धन - संतति देते हो मेरा अभीष्ट भी पूर्ण करो ।
हम हवियान्न तुमको देते हैं धन व धान्य भण्डार भरो ॥3॥
10185
यज्ञस्य केतुं प्रथमं- पुरोहितं हविष्मन्त ईळते सप्त वाजिनम् ।
शृण्वन्तमग्निं घृतपृष्ठमुक्षणं पृणन्तं देवं पृणते सुवीर्यम् ॥4॥
हे अभीष्ट फल-दाता भगवन तुम ही तेजस्वी तुम बलिष्ट हो ।
धन - वैभव हमको भी दो प्रभु तुम अविनाशी तुम्हीं ईष्ट हो ॥4॥
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त्वं दूतः प्रथमो वरेण्य: स हूयमानो अमृताय मत्स्व ।
त्वां मर्जयन्मरुतो दाशुषो गृहे त्वां स्तोमेभिर्भृगवो वि रुरुचुः ॥5॥
सब देवों को हवि हे भगवन मुख्य रुप से तुम देते हो ।
तुम सर्वोत्तम पूजनीय हो दीर्घ - आयु तुम ही देते हो ॥5॥
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इषं दुह्न्त्सुदुघां विश्वधायसं यज्ञप्रिये यजमानाय सुक्रतो ।
अग्ने घृतस्नुस्त्रिरृतानि दीद्यद्वर्तिर्यज्ञं परियन्त्सुक्रतूयसे ॥6॥
यज्ञ - स्थल में तुम्हीं विराजित सत्कर्म - यज्ञ करते सम्पादित ।
हम सत्कर्म सीख जायें प्रभु हमें भी कर दो तुम्हीं व्यवस्थित॥6॥
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त्वामिदस्या उषसो व्युष्टिषु दूतं कृण्वाना अयजन्त मानुषा:।
त्वां देवा महयाय्याय वावृधुराज्यमग्ने निमृजन्तो अध्वरे ॥7॥
सुबह - सुबह ही यज्ञ होता है ऊषा - काल में तुम आते हो ।
तुम देव - गणों के पूजनीय हो जन - श्रध्दा से हवि पाते हो ॥7॥
10189
नि त्वा वसिष्ठा अह्वन्त वाजिनं गृणन्तो अग्ने विदथेषु वेधसः ।
रायस्पोषं यजमानेषु धारय यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥8॥
हे अग्नि अन्नदाता हो तुम हम सब तेरी स्तुति करते हैं ।
यश और धन वे ही देते हैं सतत - सुरक्षित वे रखते हैं ॥8॥
सूर्य - सदृश हे अग्नि - देव प्रभु हमको चारों बल दे दो ।
ReplyDeleteतुम सबके दुख निवारक हो प्रभु अपनी भक्ति हमें दे दो ॥1॥
वास्तव में यही मांगने योग्य है