Tuesday, 19 November 2013

सूक्त - 117

[ऋषि- भिक्षु आङ्गिरस । देवता- अन्न । छन्द- त्रिष्टुप-गायत्री ।]

10132
न वा उ देवा: क्षुधमिद्वधं ददुरुताशितमुप गच्छन्ति मृत्यवः ।
उतो रयिःपृणतो नोप दस्यत्युतापृणन्मर्डितारं न विन्दते॥1॥

पेट  की  भूख  बडी  दुखदायी पर खाकर भी तो लोग मरते हैं ।
दानी का धन कम नहीं होता कृपण सुखी नहीं हो सकते हैं॥1॥

10133
य आध्राय  चकमानाय पित्वोSन्नवान्त्सन्रफितयोपजग्मुषे ।
स्थिरं मनः कृणुते सेवते पुरोतो चित्स मर्डितारं न विन्दते॥2॥

भूख  से  व्याकुल  मानव  जब  भोजन  की  याचना करता है ।
उसे अन्न न दे कर जो खाता वह सुख से वञ्चित रहता  है॥2॥

10134
स   इभ्दोजो   यो   गृहवे   ददात्यन्नकामाय   चरते  कृशाय ।
अरमस्मै   भवति   यामहूता  उतापरीषु  कृणुते  सखायम् ॥3॥

दीनों  को  अन्न - दान जो करता वह ही तो सचमुच दाता है ।
वह  वैरी  को  मित्र  बनाता  वह  ही यज्ञों का फल पाता है ॥3॥

10135
न  स  सखा  यो  न  ददाति  सख्ये  सचाभुवे  सचमानाय  पित्वः ।
अपास्मात्प्रेयान्न तदोको अस्ति पृणन्तमन्यमरणं चिदिच्छेत्॥4॥

जो मित्र समय पर काम न आए वह मित्र होकर भी मित्र नहीं है ।
ऐसे  कृपण  को  त्याग- कर  उससे दूर चले जाना ही सही है ॥4॥

10136
पृणीयादिन्नाधमानाय तव्यान्द्राघीयांसमनु पश्येत् पन्थाम् ।
ओ  हि  वर्तन्ते  रथ्येव  चक्रान्यमन्यमुप  तिष्ठन्त  रायः ॥5॥ 

याचक को धन-अन्न दान कर धनी अपना दायित्व निभायें ।
धन-लक्ष्मी स्थिर नहीं होती सत्कर्म करें और सुख  पायें ॥5॥

10137
मोघमन्नं  विन्दते  अप्रचेता: सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य ।
नार्यमणं  पुष्यति  नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी ॥6॥

धन है फिर भी दान नहीं है वह धन दुखदायी बन जाता है ।
बिना दान जो खुद खाता है वह अन्न विषैला बन जाता है॥6॥ 

10138
कृषन्नित्फाल आशित कृणोति यन्नध्वानमप वृङ्क्ते चरित्रैः।
वदन्ब्रह्मावदतो  वनीयान्पृणन्नापिरपृणन्तमभि  ष्यात् ॥7॥

जो  खेत  में  मेहनत  करते हैं वे कृषक अन्न घर में लाते हैं ।
अन्न - दान करने वाले ही सुख - संतोष - सतत  पाते हैं ॥7॥

10139
एकपाद्भूयो  द्विपदो  वि  चक्रमे  द्विपात्त्रिपादमभ्येति पश्चात् ।
चतुष्पादेति द्विपदामभिस्वरे संपश्यन्पङ्क्तीरुपतिष्ठमानः॥8॥

धन  हो  बल  हो  या  कि ज्ञान  हो मनुज निरन्तर  बढता है ।
शिखर पहुँचने  की इच्छा से वह एक-एक सीढी चढता है ॥8॥

10140
समौ चिध्दस्तौ न समं विविष्टि:सम्मातरा चिन्न  समं  दुहाते।
यमयोश्चिन्न समा वीर्याणि ज्ञाती चित्सन्तौ न समं पृणीत:॥9॥

हर  मानव  है  पृथक  यहॉं  पर  सबका अलग-अलग व्यवहार ।
अन्न - दान  करना  सीखें  हम यह  है उत्तम आचार-विचार ॥9॥ 

2 comments:

  1. अनुकरणीय विचार...ज्ञान का खज़ाना...

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  2. धन हो बल हो या कि ज्ञान हो मनुज निरन्तर बढता है ।
    शिखर पहुँचने की इच्छा से वह एक-एक सीढी चढता है ॥8॥

    धीरे धीरे हे मना...धीरे सब कुछ होए...

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