Saturday, 30 November 2013

सूक्त - 106

[ऋषि- भूतांश काश्यप । देवता- अश्विनीकुमार । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10023
उभा उ  नूनं  तदिदर्थयेथे  वि तन्वाथे धियो वस्त्रापसेव ।
सध्रीचीना यातवे प्रेमजीगः सुदिनेव पृक्ष आ तंसयेथे॥1॥

सूर्य - सोम -सम- सुख देते हो तुम दोनों अश्विनीकुमार ।
धन- वैभव तुम ही देते हो करते हो यश का विस्तार ॥1॥

10024
उष्टारेव   फर्वरेषु   श्रयेथे   प्रायोगेव   श्वात्र्या   शासुरेथः ।
दूतेव हि ष्ठो यशसा जनेषु माप स्थातं महिषेवावपानात्॥2॥

तुम दोनों साथ-साथ रहते हो जन-हित का करते हो काम।
कभी दूर न होना भगवन करते  हैं  हम  तुम्हें प्रणाम ॥2॥

10025
साकंयुजा शकुनस्येव पक्षा  पश्वेव  चित्रा  यजुरा  गमिष्टम्।
अग्निरिव देवयोरर्दीदिवांसा परिज्मानेव यजथः पुरुत्रा॥3॥

प्रणयातुर पंछी के पंखों जैसे तुम प्रेम-पाश में बँधे परस्पर।
तुम  दोनों अति तेजस्वी हो पाते हो सम्मान निरन्तर ॥3॥

10026
आपी    यो   अस्मे   पितरेव  पुत्रोग्रेव  रुचा  नृपतीव  तुर्यै ।
इर्येव  पुष्ट्यै किरणेव भुज्यै श्रुष्टीवानेव हवमा गमिष्टम्॥4॥

मातु-पिता सम प्रेम निभाते सबके हित का रखते हो ध्यान।
आदित्य-अनिल सम तेजस्वी तुम खा लेना हविष्यान्न॥4॥

10027
वंसगेव  पूषर्या  शिम्बाता  मित्रेव  ऋता  शतरा शातपन्ता ।
वाजेवोच्चा  वयसा  घर्म्येष्ठा  मेषेवेषा  सपर्या 3  पुरीषा ॥5॥

सुख- कर स्वस्थ और अति-सुंदर सूर्य-सलिल सम रहते हो।
आलोकवान हे शक्ति-पुञ्ज तुम सूर्य-सोम सम लगते हो॥5॥

10028
सृण्येव    जर्भरी    तुर्फरीतू    नैतोशेव    तुर्फरी    पर्फरीका ।
उदन्यजेव  जेमना  मदेरू   ता   मे   जराय्वजरं  मरायु ॥6॥

दुष्ट- जनों  के  काल-सदृश  हो  तुम सबका पोषण करते हो ।
सुंदर छवि आलोकित होती तन को तुम नीरोग रखते हो॥6॥

10029
पज्रेव   चर्चरं   जारं   मरायु    क्षद्येवार्थेषु    तर्तरीथ    उग्रा ।
ऋभु  नापत्खरमज्रा  खरज्रुर्वायुर्न  पर्फरत्क्षयद्रयीणाम् ॥7॥

संकट  से   तुम  हमें  बचाते  बेडा - पार  तुम्हीं   करते   हो ।
समीर सदृश सर्वत्र संचरित धन-धान से घर को भरते हो॥7॥

10030
घर्मेव   मधु  जठरे स  सनेरू  भगेविता  तुर्फरी  फारिवारम् ।
पतरेव चचरा चन्द्रनिर्णिङ्मनऋङ्गा मनन्या3 न  जग्मी॥8॥

हे अश्विनीकुमार हे महाबली तुम  ही धन की रक्षा करते हो ।
प्रभु  मनोकामना पूरी करना तुम ही जीवन को गढते हो॥8॥

10031
बृहन्तेव   गम्भरेषु   प्रतिष्ठां   पादेव  गाधं  तरते   विदाथः ।
कर्णेव शासरन हि  स्मराथोंSशेव नो  भजतं  चित्रमप्नः॥9॥

स्वभाव  तुम्हारा सहज- सरल है प्रभु -पूजन स्वीकार करो ।
सत्-कारज में मन लग जाए सद्-भावों का भण्डार भरो॥9॥

10032
आरङ्गरेव    मध्वेरयेथे     सारघेव     गवि     नीचीनबारे ।
कीनारेव स्वेदमासिष्विदाना क्षामेवोर्जा सूयवसात्सचेथे॥10॥

कृषक सदृश तुम श्रम करते हो तुम दोनों का है आवाहन ।
तुमसे श्रध्दा-पूर्वक कहते हैं ग्रहण करो तुम हविष्यान्न॥10॥

10033
ऋध्याम स्तोमं सनुयाम वाजमा नो मन्त्रं सरथेहोप यातम्।
यशो न पक्वं मधु गोष्वन्तरा भूतांशो अश्विनोःकाममप्रा:॥11॥

पावन- पथ- पर- पॉंव  रखें  हम  यही  प्रार्थना  हम  करते हैं ।
सानिध्य- सदा सबको देना प्रभु बार-बार तुमसे कहते हैं ॥11॥  
             
        

2 comments:

  1. प्रखर समन्वय, एक अंग हम।

    ReplyDelete
  2. सतत क्रियाशील है आपकी लेखनी...प्रणाम...

    ReplyDelete