[ऋषि- नभ प्रभेदन वैरूप । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप ।]
10084
इन्द्र पिब प्रतिकामं सुतस्य प्रातः सावस्तव हि पूर्वपीतिः।
हर्षस्व हन्तवे शूर शत्रूनुक्थेभिष्टे वीर्या 3 प्र ब्रवाम ॥1॥
तुम ही जगती के रक्षक हो षड्-रिपु से रक्षा करो हमारी ।
सोम-पान कर लो तुम प्रभु परिमार्जित है प्रेरणा तुम्हारी॥1॥
10085
यस्ते रथो मनसो जवीयानेन्द्र तेन सोमपेयाय याहि ।
तूयमा ते हरयः प्र द्रवन्तु येभिर्यासि वृषभिर्मन्दमानः॥2॥
मन से भी अति है गति तेरी जग की रक्षा तुम करते हो ।
सब साधन सम्पन्न तुम्हीं हो हर जगह उपस्थित रहते हो॥2॥
10086
हरित्वता वर्चसा सूर्यस्य श्रेष्ठै रूपैस्तन्वं स्पर्शयस्व ।
अस्माभिरिन्द्र सखिभिर्हुवानः सध्रीचीनो मादयस्वा निषद्य्॥3॥
तरनि - तेज से तन मानुष का तुम ही तो श्रेष्ठ बनाते हो ।
जीवन में आनन्द घोल - कर सुख - कर-मार्ग बताते हो ॥3॥
10087
यस्य त्यत्ते महिमानं मदेष्विमे मही रोदसी नाविविक्ताम् ।
तदोक आ हरिभिरिन्द्र युक्तैः प्रियेभिर्याहि प्रियमन्नमच्छ॥4॥
तेरी गरिमा और महिमा का पृथ्वी पर भी होता गुण-गान ।
मन में तुम्हीं बसे हो प्रभुवर ग्रहण करो अब हविष्यान्न ॥4॥
10088
यस्य शश्वत्पपिवॉं इन्द्र शत्रूननानुकृत्या रण्या चकर्थ ।
स ते पुरन्धिं तविषीमियर्ति स ते मदाय सुत इन्द्र सोमः ॥5॥
अति- अद्भुत बल के स्वामी हो दुष्टों पर करते रहो प्रहार ।
सज्जन प्रोत्साहित करते हैं सोम - पान कर लो इस बार ॥5॥
10089
इदं ते पात्रं सनवित्तमिन्द्र पिबा सोममेना शतक्रतो ।
पूर्ण आहाओ मदिरस्य मध्वो यं विश्व इदभिहर्यन्ति देवा: ॥6॥
हे यज्ञ - कुण्ड के संचालक हम यह अभिलाषा करते हैं ।
पुरातन सोम - पात्र में ही प्रभु तुम्हें सोम प्रेषित करते हैं ॥6॥
10090
वि हि त्वामिन्द्र पुरुधा जनासो हितप्रयसो वृषभ ह्वयन्ते ।
अस्माकं ते मधुमत्तमानीमा भुवन्त्सवना तेषु हर्य ॥7॥
हवि - भोग तुम्हें अर्पित करते हैं सोम हेतु करते आवाहन ।
मन से प्रभु स्वीकार करें अर्पित है तुम्हें सोम- मन-भावन॥7॥
10091
प्र त इन्द्र पूव्र्याणि प्र नूनं वीर्या वोचं प्रथमा कृतानि ।
सतीनमन्युरश्रथायो अद्रिं सुवेदनामकृणोर्ब्रह्मणे गाम् ॥8॥
हे प्रभुवर तुम पराक्रमी हो सबका ध्यान तुम्हीं रखते हो ।
तेरी महिमा सबसे न्यारी तुम ही जल-दान सदा करते हो ॥8॥
10092
नि षु सीद गणपते गणेषु त्वामाहुर्विप्रतमं कवीनाम् ।
न ऋते त्वत्क्रियते किंचनारे महामर्कं मघमञ्चित्रमर्च ॥9॥
बिन जीवन सब सूना-सूना पवन- देव जग के पालक हैं ।
देवों के देव हैं पवन- देव पावन-पय-पावक के दायक हैं ॥9॥
10093
अभिख्या नो मघवन्नाधमानान्त्सखे बोधि वसुपते सखीनाम् ।
रणं कृधि रणकृत्सत्यशुष्माभक्ते चिदा भजा राये अस्मान्॥10॥
हे परम-मित्र हे अग्नि - देव वैभव -विज्ञान के हम याचक हैं ।
ज्ञान - बोध हो जाए प्रभु - वर हम तो तेरे ही उपासक हैं ॥10॥
10084
इन्द्र पिब प्रतिकामं सुतस्य प्रातः सावस्तव हि पूर्वपीतिः।
हर्षस्व हन्तवे शूर शत्रूनुक्थेभिष्टे वीर्या 3 प्र ब्रवाम ॥1॥
तुम ही जगती के रक्षक हो षड्-रिपु से रक्षा करो हमारी ।
सोम-पान कर लो तुम प्रभु परिमार्जित है प्रेरणा तुम्हारी॥1॥
10085
यस्ते रथो मनसो जवीयानेन्द्र तेन सोमपेयाय याहि ।
तूयमा ते हरयः प्र द्रवन्तु येभिर्यासि वृषभिर्मन्दमानः॥2॥
मन से भी अति है गति तेरी जग की रक्षा तुम करते हो ।
सब साधन सम्पन्न तुम्हीं हो हर जगह उपस्थित रहते हो॥2॥
10086
हरित्वता वर्चसा सूर्यस्य श्रेष्ठै रूपैस्तन्वं स्पर्शयस्व ।
अस्माभिरिन्द्र सखिभिर्हुवानः सध्रीचीनो मादयस्वा निषद्य्॥3॥
तरनि - तेज से तन मानुष का तुम ही तो श्रेष्ठ बनाते हो ।
जीवन में आनन्द घोल - कर सुख - कर-मार्ग बताते हो ॥3॥
10087
यस्य त्यत्ते महिमानं मदेष्विमे मही रोदसी नाविविक्ताम् ।
तदोक आ हरिभिरिन्द्र युक्तैः प्रियेभिर्याहि प्रियमन्नमच्छ॥4॥
तेरी गरिमा और महिमा का पृथ्वी पर भी होता गुण-गान ।
मन में तुम्हीं बसे हो प्रभुवर ग्रहण करो अब हविष्यान्न ॥4॥
10088
यस्य शश्वत्पपिवॉं इन्द्र शत्रूननानुकृत्या रण्या चकर्थ ।
स ते पुरन्धिं तविषीमियर्ति स ते मदाय सुत इन्द्र सोमः ॥5॥
अति- अद्भुत बल के स्वामी हो दुष्टों पर करते रहो प्रहार ।
सज्जन प्रोत्साहित करते हैं सोम - पान कर लो इस बार ॥5॥
10089
इदं ते पात्रं सनवित्तमिन्द्र पिबा सोममेना शतक्रतो ।
पूर्ण आहाओ मदिरस्य मध्वो यं विश्व इदभिहर्यन्ति देवा: ॥6॥
हे यज्ञ - कुण्ड के संचालक हम यह अभिलाषा करते हैं ।
पुरातन सोम - पात्र में ही प्रभु तुम्हें सोम प्रेषित करते हैं ॥6॥
10090
वि हि त्वामिन्द्र पुरुधा जनासो हितप्रयसो वृषभ ह्वयन्ते ।
अस्माकं ते मधुमत्तमानीमा भुवन्त्सवना तेषु हर्य ॥7॥
हवि - भोग तुम्हें अर्पित करते हैं सोम हेतु करते आवाहन ।
मन से प्रभु स्वीकार करें अर्पित है तुम्हें सोम- मन-भावन॥7॥
10091
प्र त इन्द्र पूव्र्याणि प्र नूनं वीर्या वोचं प्रथमा कृतानि ।
सतीनमन्युरश्रथायो अद्रिं सुवेदनामकृणोर्ब्रह्मणे गाम् ॥8॥
हे प्रभुवर तुम पराक्रमी हो सबका ध्यान तुम्हीं रखते हो ।
तेरी महिमा सबसे न्यारी तुम ही जल-दान सदा करते हो ॥8॥
10092
नि षु सीद गणपते गणेषु त्वामाहुर्विप्रतमं कवीनाम् ।
न ऋते त्वत्क्रियते किंचनारे महामर्कं मघमञ्चित्रमर्च ॥9॥
बिन जीवन सब सूना-सूना पवन- देव जग के पालक हैं ।
देवों के देव हैं पवन- देव पावन-पय-पावक के दायक हैं ॥9॥
10093
अभिख्या नो मघवन्नाधमानान्त्सखे बोधि वसुपते सखीनाम् ।
रणं कृधि रणकृत्सत्यशुष्माभक्ते चिदा भजा राये अस्मान्॥10॥
हे परम-मित्र हे अग्नि - देव वैभव -विज्ञान के हम याचक हैं ।
ज्ञान - बोध हो जाए प्रभु - वर हम तो तेरे ही उपासक हैं ॥10॥
श्लोकों का सुन्दर अनुवाद...दोहों के रूप में...
ReplyDeleteयहाँ सोमपान से ही अभीष्ट अर्थ बोध हो रहा है -हम सोम ही लिखें उसे कोई अन्य नाम न दें यही उचित लगता है
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