[ऋषि- जुहू ब्रह्मजाया । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- त्रिष्टुप-अनुष्टुप ।]
10056
तेSवदन्प्रथमा ब्रह्मकिल्बिषेSकूपारः सलिलो मातरिश्वा ।
वीळुहरास्तप उग्रो मयोभूरापो देवीः प्रथमजा ऋतेन ॥1॥
सर्व - प्रथम परमेश्वर ने अव्यक्त - वाक् को प्रकट किया ।
बृहस्पति ने अव्यक्त दोष को सूझ - बूझ से दूर किया॥1॥
10057
सोमो राजा प्रथमो ब्रह्मजायां पुनः प्रायच्छदहृणीयमानः।
अन्वर्तिता वरुणो मित्र आसीदग्निर्होता हस्तगृह्या निनाय॥2॥
अव्यक्त ब्रह्म - जाया वाणी को बृहस्पति ने स्वीकार किया ।
आदित्य-अम्बु का अनुमोदन था अग्नि-ऑंच से ठीक किया॥2॥
10058
हस्तेनैव ग्राह्य आधिरस्या ब्रह्मजायेयमिति चेदवोचन् ।
न दूताय प्रह्ये तस्थ एषा तथा राष्ट्रं गुपितं क्षत्रियस्य ॥3॥
अप्रकट वाणी प्रकट हो गई इसे वेद-ऋचा ने ग्रहण किया ।
पर प्रकट होकर भी अप्रकट है किञ्चित् अर्थान्तर ओढ लिया॥3॥
10059
देवा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तऋषयस्तपसे ये निषेदुः ।
भीमा जाया ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धां दधाति परमे व्योमन्॥4॥
सप्त - ऋषि एवम् देवताओं ने वाणी की गरिमा गाई है ।
यह वागीशा अति समर्थ है विलक्षण महिमा लेकर आई है ॥4॥
10060
ब्रह्मचारी चरति वेविषद्विषः स देवानां भवत्येकमङ्गम् ।
तेन जायामन्वविन्दद् बृहस्पतिःसोमेन नीतां जुह्वं1न देवा:॥5॥
ब्रह्मचारी बहुत सजग होता है वह सत्कर्म सदा करता है ।
वह ईश्वर के अँग की तरह दायित्व निभाता रहता है ॥5॥
10061
पुनर्वै देवा अददुः पुनर्मनुष्या उत ।
राजानः सत्यं कृण्वाना ब्रह्मजायां पुनर्ददुः ॥6॥
वाणी का वैभव अति-विचित्र है विचार-विनिमय का यही श्रोत है।
आपस में हम बातें करते हैं हर चितन वाणी से ओत-प्रोत है ॥6॥
10062
पुनर्दाय ब्रह्मजायां कृत्वी देवैर्निकिल्बिषम् ।
ऊर्जं पृथिव्या भक्त्वायोरुगायमुपासते ॥7॥
वाक् - शक्ति की क्षमता अद्भुत यह सब पर पडती है भारी ।
प्रेम - परस्पर यह बोती है अकस्मात् बन जाती आरी ॥7॥
10056
तेSवदन्प्रथमा ब्रह्मकिल्बिषेSकूपारः सलिलो मातरिश्वा ।
वीळुहरास्तप उग्रो मयोभूरापो देवीः प्रथमजा ऋतेन ॥1॥
सर्व - प्रथम परमेश्वर ने अव्यक्त - वाक् को प्रकट किया ।
बृहस्पति ने अव्यक्त दोष को सूझ - बूझ से दूर किया॥1॥
10057
सोमो राजा प्रथमो ब्रह्मजायां पुनः प्रायच्छदहृणीयमानः।
अन्वर्तिता वरुणो मित्र आसीदग्निर्होता हस्तगृह्या निनाय॥2॥
अव्यक्त ब्रह्म - जाया वाणी को बृहस्पति ने स्वीकार किया ।
आदित्य-अम्बु का अनुमोदन था अग्नि-ऑंच से ठीक किया॥2॥
10058
हस्तेनैव ग्राह्य आधिरस्या ब्रह्मजायेयमिति चेदवोचन् ।
न दूताय प्रह्ये तस्थ एषा तथा राष्ट्रं गुपितं क्षत्रियस्य ॥3॥
अप्रकट वाणी प्रकट हो गई इसे वेद-ऋचा ने ग्रहण किया ।
पर प्रकट होकर भी अप्रकट है किञ्चित् अर्थान्तर ओढ लिया॥3॥
10059
देवा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तऋषयस्तपसे ये निषेदुः ।
भीमा जाया ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धां दधाति परमे व्योमन्॥4॥
सप्त - ऋषि एवम् देवताओं ने वाणी की गरिमा गाई है ।
यह वागीशा अति समर्थ है विलक्षण महिमा लेकर आई है ॥4॥
10060
ब्रह्मचारी चरति वेविषद्विषः स देवानां भवत्येकमङ्गम् ।
तेन जायामन्वविन्दद् बृहस्पतिःसोमेन नीतां जुह्वं1न देवा:॥5॥
ब्रह्मचारी बहुत सजग होता है वह सत्कर्म सदा करता है ।
वह ईश्वर के अँग की तरह दायित्व निभाता रहता है ॥5॥
10061
पुनर्वै देवा अददुः पुनर्मनुष्या उत ।
राजानः सत्यं कृण्वाना ब्रह्मजायां पुनर्ददुः ॥6॥
वाणी का वैभव अति-विचित्र है विचार-विनिमय का यही श्रोत है।
आपस में हम बातें करते हैं हर चितन वाणी से ओत-प्रोत है ॥6॥
10062
पुनर्दाय ब्रह्मजायां कृत्वी देवैर्निकिल्बिषम् ।
ऊर्जं पृथिव्या भक्त्वायोरुगायमुपासते ॥7॥
वाक् - शक्ति की क्षमता अद्भुत यह सब पर पडती है भारी ।
प्रेम - परस्पर यह बोती है अकस्मात् बन जाती आरी ॥7॥
CHETANA KO JAGRIT KARATE ANMOL AUR CHIR NAWIN SANGRAHNIY AUR NIT PATHANIY ..
ReplyDeleteSUPRABHAT SANG PRANAM SUKTON KE PRAKASHAN HETU
वाक् - शक्ति की क्षमता अद्भुत यह सब पर पडती है भारी ।
ReplyDeleteप्रेम - परस्पर यह बोती है अकस्मात् बन जाती आरी
यह सत्य है ! शुभकामनायें आपको !!
चरैवेति चरैवेति -बढियां चल रहा है प्रांजल अनुवाद
ReplyDeleteव्यक्त सृष्टि,
ReplyDeleteसब पूर्वनियत सा,
बीजरूप।
ReplyDelete---अर्थ सही नहीं हैं...
---सही अर्थ इस प्रकार होगा..यथा...
-पुनर्दाय ब्रह्मजाया कृत्वी देवैर्निल्बिषम् ।
ऊर्जं पृथिव्या भक्तवायो रुगायमुपासते ॥ ऋ 10-109-7 अथर्व 5-17-11
ब्राह्मी विद्धया को पुनः लाकर देवो ने बृहस्पति देव को दोषमुक्त किया है तत्पश्चात पृथ्वी के सारविततम अन्न (उत्पाद) का विभाजन करके सभी सुखपूर्वक यज्ञीय उपासना करने लगे
[दिव्य वाणी व यज्ञीय प्रक्रिया से भूमि पर पदार्थो के वर्गीकरण तथा सदुपयोग का क्रम चल पड़ा । यह प्रक्रिया बार-बार दुहराई जाती है ]