Friday, 1 November 2013

सूक्त - 140

[ऋषि- अग्नि पावक । देवता- अग्नि । छन्द- पंक्ति - त्रिष्टुप ।]

10315
अग्ने  तव  श्रवो  वयो  महि  भ्राजन्ते अर्चयो विभावसो ।
बृहभ्दानो  शवसा  वाजमुक्थ्यं1  दधासि  दाशुषे  कवे ॥1॥

हे ज्योति-पुञ्ज हे अग्नि-देव तुम ही आलोक-प्रदाता हो ।
हवि अपना अब ग्रहण करो तुम अतुलित-बल दाता हो॥1॥

10316
पावकवर्चा:   शुक्रवर्चा   अनूनवर्चा   उदियर्षि   भानुना ।
पुत्रो  मातरा  विचरन्नु  पावसि  पृक्षणि  रोदसी उभे ॥2॥

सूर्य सदृश तुम भी सुन्दर हो हम सबके तुम रक्षक हो ।
हविष्यान्न  से धरा-गगन दोनों के ही तुम पोषक हो ॥2॥

10317
ऊर्जो नपाज्जातवेदः सुशस्तिभिर्मन्दस्व धीतिभिर्हितः।
त्वे    इषः   सं   दधुर्भूरिवर्पसश्चित्रोतयो   वामजाता: ॥3॥

हे अग्नि-देव हे बलशाली शुभ-भावों से हर्षित हो जाते हो ।
विविध-विलक्षण रूप में प्रभु यजमानों के मन भाते हो॥3॥

10318
इरज्यन्नग्ने  प्रथयस्व  जन्तुभिरस्मे  रायो  अमर्त्य ।
स दर्शतस्य वपुषो वि राजसि पृणक्षि सानसिं क्रतुम् ॥4॥

हे अग्नि-देव हे अविनाशी तुम हमें धान और धन देना ।
जब भी बुलायें आ जाना  शुभ चिंतन का फल दे देना॥4॥

10319
इष्कर्तारमध्वरस्य    प्रचेतसं    क्षयन्तं   राधसो    महः ।
रातिं  वामस्य सुभगां महीमिषं दधासि सानसिं रयिम् ॥5॥

हे  अग्नि-देव हे  धन-अधिपति दिवा-रात्रि पूजा करते हैं ।
हमें भी यश-वैभव  देना  प्रभु  बार-बार विनती करते हैं ॥5॥

10320
ऋतावानं महिषं विश्वदर्शतमग्निं सुम्नाय दधिरे पुरो जना:।
श्रुत्कर्णं   सप्रथस्तमं   त्वा   गिरा   दैव्यं  मानुषा  युगा ॥6॥

सुख और शान्ति हमें देना प्रभु तुम समर्थ सर्वज्ञ तुम्हीं हो ।
स्वीकार करो शुभ भाव यही तुम ही रक्षक सखा तुम्हीं हो ॥6॥


   

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