[ऋषि- अग्नि पावक । देवता- अग्नि । छन्द- पंक्ति - त्रिष्टुप ।]
10315
अग्ने तव श्रवो वयो महि भ्राजन्ते अर्चयो विभावसो ।
बृहभ्दानो शवसा वाजमुक्थ्यं1 दधासि दाशुषे कवे ॥1॥
हे ज्योति-पुञ्ज हे अग्नि-देव तुम ही आलोक-प्रदाता हो ।
हवि अपना अब ग्रहण करो तुम अतुलित-बल दाता हो॥1॥
10316
पावकवर्चा: शुक्रवर्चा अनूनवर्चा उदियर्षि भानुना ।
पुत्रो मातरा विचरन्नु पावसि पृक्षणि रोदसी उभे ॥2॥
सूर्य सदृश तुम भी सुन्दर हो हम सबके तुम रक्षक हो ।
हविष्यान्न से धरा-गगन दोनों के ही तुम पोषक हो ॥2॥
10317
ऊर्जो नपाज्जातवेदः सुशस्तिभिर्मन्दस्व धीतिभिर्हितः।
त्वे इषः सं दधुर्भूरिवर्पसश्चित्रोतयो वामजाता: ॥3॥
हे अग्नि-देव हे बलशाली शुभ-भावों से हर्षित हो जाते हो ।
विविध-विलक्षण रूप में प्रभु यजमानों के मन भाते हो॥3॥
10318
इरज्यन्नग्ने प्रथयस्व जन्तुभिरस्मे रायो अमर्त्य ।
स दर्शतस्य वपुषो वि राजसि पृणक्षि सानसिं क्रतुम् ॥4॥
हे अग्नि-देव हे अविनाशी तुम हमें धान और धन देना ।
जब भी बुलायें आ जाना शुभ चिंतन का फल दे देना॥4॥
10319
इष्कर्तारमध्वरस्य प्रचेतसं क्षयन्तं राधसो महः ।
रातिं वामस्य सुभगां महीमिषं दधासि सानसिं रयिम् ॥5॥
हे अग्नि-देव हे धन-अधिपति दिवा-रात्रि पूजा करते हैं ।
हमें भी यश-वैभव देना प्रभु बार-बार विनती करते हैं ॥5॥
10320
ऋतावानं महिषं विश्वदर्शतमग्निं सुम्नाय दधिरे पुरो जना:।
श्रुत्कर्णं सप्रथस्तमं त्वा गिरा दैव्यं मानुषा युगा ॥6॥
सुख और शान्ति हमें देना प्रभु तुम समर्थ सर्वज्ञ तुम्हीं हो ।
स्वीकार करो शुभ भाव यही तुम ही रक्षक सखा तुम्हीं हो ॥6॥
10315
अग्ने तव श्रवो वयो महि भ्राजन्ते अर्चयो विभावसो ।
बृहभ्दानो शवसा वाजमुक्थ्यं1 दधासि दाशुषे कवे ॥1॥
हे ज्योति-पुञ्ज हे अग्नि-देव तुम ही आलोक-प्रदाता हो ।
हवि अपना अब ग्रहण करो तुम अतुलित-बल दाता हो॥1॥
10316
पावकवर्चा: शुक्रवर्चा अनूनवर्चा उदियर्षि भानुना ।
पुत्रो मातरा विचरन्नु पावसि पृक्षणि रोदसी उभे ॥2॥
सूर्य सदृश तुम भी सुन्दर हो हम सबके तुम रक्षक हो ।
हविष्यान्न से धरा-गगन दोनों के ही तुम पोषक हो ॥2॥
10317
ऊर्जो नपाज्जातवेदः सुशस्तिभिर्मन्दस्व धीतिभिर्हितः।
त्वे इषः सं दधुर्भूरिवर्पसश्चित्रोतयो वामजाता: ॥3॥
हे अग्नि-देव हे बलशाली शुभ-भावों से हर्षित हो जाते हो ।
विविध-विलक्षण रूप में प्रभु यजमानों के मन भाते हो॥3॥
10318
इरज्यन्नग्ने प्रथयस्व जन्तुभिरस्मे रायो अमर्त्य ।
स दर्शतस्य वपुषो वि राजसि पृणक्षि सानसिं क्रतुम् ॥4॥
हे अग्नि-देव हे अविनाशी तुम हमें धान और धन देना ।
जब भी बुलायें आ जाना शुभ चिंतन का फल दे देना॥4॥
10319
इष्कर्तारमध्वरस्य प्रचेतसं क्षयन्तं राधसो महः ।
रातिं वामस्य सुभगां महीमिषं दधासि सानसिं रयिम् ॥5॥
हे अग्नि-देव हे धन-अधिपति दिवा-रात्रि पूजा करते हैं ।
हमें भी यश-वैभव देना प्रभु बार-बार विनती करते हैं ॥5॥
10320
ऋतावानं महिषं विश्वदर्शतमग्निं सुम्नाय दधिरे पुरो जना:।
श्रुत्कर्णं सप्रथस्तमं त्वा गिरा दैव्यं मानुषा युगा ॥6॥
सुख और शान्ति हमें देना प्रभु तुम समर्थ सर्वज्ञ तुम्हीं हो ।
स्वीकार करो शुभ भाव यही तुम ही रक्षक सखा तुम्हीं हो ॥6॥
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