[ऋषि- विश्वावसु देवगन्धर्व । देवता- सविता । छन्द- त्रिष्टुप ।]
10309
सूर्यरश्मिर्हरिकेशः पुरस्तात्सविता ज्योतिरुदयॉं अजस्त्रम् ।
तस्य पूषा प्रसवे याति विद्वान्त्सम्पश्यन्विश्वा भुवनानि गोपा: ॥1॥
हरी वनस्पतियों से ही तो प्राणि - मात्र जीवित रहता है ।
सूर्य - देवता तमस मिटाते पावन - पवन सतत बहता है ॥1॥
10310
नृचक्षा एष दिवो मध्य आस्त आपप्रिवान् रोदसी अन्तरिक्षम् ।
स विश्वाचीरभि चष्टे घृताचीरन्तरा पूर्वमपरं च केतुम् ॥2॥
आदित्य अविरल आलोक लुटाता जगती में प्रकाश भरता है ।
सौ-सौ बार नमन सविता को सबका आश्रय वह ही बनता है ॥2॥
10311
रायो बुध्नः सङ्गमनो वसूनां विश्वा रूपाभि चष्टे शचीभिः ।
देवइव सविता सत्यधर्मेन्द्रो न तस्थौ समरे धनानाम् ॥3॥
अग्नि - देव सम सूर्य- देव भी सत्य - धर्म पर ही चलते हैं ।
सबको सम्पदा देते सविता समीर सदृश ही गति रखते हैं ॥3॥
10312
विश्वावसुं सोम गन्धर्वमापो ददृशुषीस्तदृतेना व्यायन् ।
तदन्ववैदिन्द्रो रारहाण आसां परि सूर्यस्य परिधीरपश्यत् ॥4॥
बादल को तुम ही जल देते हो जल विविध रूप में बहता है ।
जल ही तो जीवन है भगवन हर प्राणी यह अनुभव करता है ॥4॥
10313
विश्वावसुरभि तन्नो गृणातु दिव्यो गन्धर्वो रजसो विमानः ।
यद्वा घा सत्यमुत यन्न विद्म धियो हिन्वानो धिय इन्नो अव्या:॥5॥
हे पर्जन्य - देव विनती है पावन भोज्य - वस्तु ही देना ।
जीवन भर सत्कर्म करें हम तुम हमें प्रेरणा दे देना ॥5॥
10314
सस्निमविन्दच्चरणे नदीनामपावृणाद्दुरो अश्मव्रजानाम् ।
प्रासां गन्धर्वो अमृतानि वोचदिद्रो दक्षं परि जानादहीनाम् ॥6॥
नभ पर काले बादल बिखरे हैं श्याम - मेघ झुक-झुक जाता है ।
इन्द्र - देव जल बरसाते हैं मानव झूम - झूम गाता है ॥6॥
10309
सूर्यरश्मिर्हरिकेशः पुरस्तात्सविता ज्योतिरुदयॉं अजस्त्रम् ।
तस्य पूषा प्रसवे याति विद्वान्त्सम्पश्यन्विश्वा भुवनानि गोपा: ॥1॥
हरी वनस्पतियों से ही तो प्राणि - मात्र जीवित रहता है ।
सूर्य - देवता तमस मिटाते पावन - पवन सतत बहता है ॥1॥
10310
नृचक्षा एष दिवो मध्य आस्त आपप्रिवान् रोदसी अन्तरिक्षम् ।
स विश्वाचीरभि चष्टे घृताचीरन्तरा पूर्वमपरं च केतुम् ॥2॥
आदित्य अविरल आलोक लुटाता जगती में प्रकाश भरता है ।
सौ-सौ बार नमन सविता को सबका आश्रय वह ही बनता है ॥2॥
10311
रायो बुध्नः सङ्गमनो वसूनां विश्वा रूपाभि चष्टे शचीभिः ।
देवइव सविता सत्यधर्मेन्द्रो न तस्थौ समरे धनानाम् ॥3॥
अग्नि - देव सम सूर्य- देव भी सत्य - धर्म पर ही चलते हैं ।
सबको सम्पदा देते सविता समीर सदृश ही गति रखते हैं ॥3॥
10312
विश्वावसुं सोम गन्धर्वमापो ददृशुषीस्तदृतेना व्यायन् ।
तदन्ववैदिन्द्रो रारहाण आसां परि सूर्यस्य परिधीरपश्यत् ॥4॥
बादल को तुम ही जल देते हो जल विविध रूप में बहता है ।
जल ही तो जीवन है भगवन हर प्राणी यह अनुभव करता है ॥4॥
10313
विश्वावसुरभि तन्नो गृणातु दिव्यो गन्धर्वो रजसो विमानः ।
यद्वा घा सत्यमुत यन्न विद्म धियो हिन्वानो धिय इन्नो अव्या:॥5॥
हे पर्जन्य - देव विनती है पावन भोज्य - वस्तु ही देना ।
जीवन भर सत्कर्म करें हम तुम हमें प्रेरणा दे देना ॥5॥
10314
सस्निमविन्दच्चरणे नदीनामपावृणाद्दुरो अश्मव्रजानाम् ।
प्रासां गन्धर्वो अमृतानि वोचदिद्रो दक्षं परि जानादहीनाम् ॥6॥
नभ पर काले बादल बिखरे हैं श्याम - मेघ झुक-झुक जाता है ।
इन्द्र - देव जल बरसाते हैं मानव झूम - झूम गाता है ॥6॥
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