[ऋषि- प्रजापति परमेष्ठी । देवता- भाववृत्त । छन्द- त्रिष्टुप ।]
10240
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम् ॥1॥
प्रलय काल में सृष्टि नहीं थी न ही जग था न अभाव था ।
भू- नभ के सिवा कुछ भी न था पञ्च-भूत का भी अभाव था॥1॥
10241
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माध्दान्यत्र परः किं चनास ॥2॥
न अमरत्व और न मृत्यु दिवा - रात्रि का ज्ञान नहीं था ।
अपर कोई अस्तित्व नहीं था एक-मात्र परमेश्वर ही था ॥2॥
10242
तम आसीत्तमसा गूळहमग्रेSप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् ।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ॥3॥
अज्ञान तमस से भरा हुआ था दसों-दिशा अव्यक्त सदृश था ।
स्वधा प्रकृति से तब प्रभु प्रकटे विशेषण नेति-नेति ही था॥3॥
10243
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्ह्रदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥4॥
जग -रचना का विचार आया मन में ही बीज का हुआ वपन ।
निज-प्रज्ञा से ज्ञानी- जन ने प्रकट-तत्व का किया निरुपण॥4॥
10244
तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी3दुपरि स्विदासी3त् ।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयति: परस्तात्॥5॥
प्रश्न - रश्मि फिर हुई तरंगित कर्मों के फल सम्मुख आए ।
बध्द- जीव भी लगे दीखने और मुक्त - जीव भी सामने आए॥5॥
10245
को श्रध्दा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥6॥
अनादि- सृष्टि है जब से प्रभु हैं अनादि -सृष्टि सचमुच अपार है ।
जग - रचना का झंझट छोडें आत्म - शुध्दि ही यहॉ सार है ॥6॥
10246
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥7॥
सृष्टि बनी कैसे वह जाने किसने रचना की क्या जानें ।
मन- हेतु अगोचर है रचना अनुमान वृथा यदि मन की मानें॥7॥
10240
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम् ॥1॥
प्रलय काल में सृष्टि नहीं थी न ही जग था न अभाव था ।
भू- नभ के सिवा कुछ भी न था पञ्च-भूत का भी अभाव था॥1॥
10241
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माध्दान्यत्र परः किं चनास ॥2॥
न अमरत्व और न मृत्यु दिवा - रात्रि का ज्ञान नहीं था ।
अपर कोई अस्तित्व नहीं था एक-मात्र परमेश्वर ही था ॥2॥
10242
तम आसीत्तमसा गूळहमग्रेSप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् ।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ॥3॥
अज्ञान तमस से भरा हुआ था दसों-दिशा अव्यक्त सदृश था ।
स्वधा प्रकृति से तब प्रभु प्रकटे विशेषण नेति-नेति ही था॥3॥
10243
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्ह्रदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥4॥
जग -रचना का विचार आया मन में ही बीज का हुआ वपन ।
निज-प्रज्ञा से ज्ञानी- जन ने प्रकट-तत्व का किया निरुपण॥4॥
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तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी3दुपरि स्विदासी3त् ।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयति: परस्तात्॥5॥
प्रश्न - रश्मि फिर हुई तरंगित कर्मों के फल सम्मुख आए ।
बध्द- जीव भी लगे दीखने और मुक्त - जीव भी सामने आए॥5॥
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को श्रध्दा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥6॥
अनादि- सृष्टि है जब से प्रभु हैं अनादि -सृष्टि सचमुच अपार है ।
जग - रचना का झंझट छोडें आत्म - शुध्दि ही यहॉ सार है ॥6॥
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इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥7॥
सृष्टि बनी कैसे वह जाने किसने रचना की क्या जानें ।
मन- हेतु अगोचर है रचना अनुमान वृथा यदि मन की मानें॥7॥
129 से लेकर 135 तक की सुक्ति जीवन का संदेश देती
ReplyDeleteअर्थबोध बहुत ही सहज हो गया है अनुवाद में
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