Saturday, 9 November 2013

सूक्त - 128

[ऋषि- विहव्य आङ्गिरस । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- त्रिष्टुप-जगती ।]

10231
ममाग्मे  वर्चो   विहवेष्वस्तु   वयं  त्वेन्धानास्तन्वं  पुषेम ।
मह्यं   नमन्तां   प्रदिशश्चत्स्त्रस्त्वयाध्क्षेण   पृतना   जयेम ॥1॥

प्रभु   हम   तेजस्वी   बन  जायें  यज्ञ- धूम  से  पुष्टि  मिले ।
दशों - दिशाओं   में   यश   पायें  मन  से  भी  संतुष्टि  मिले ॥1॥

10232
मम  देवा  विहवे  सन्तु  सर्व  इन्द्रवन्तो  मरुतो  विष्णुरग्निः ।
ममान्तरिक्षमुरुलोकमस्तु मह्यं वातः पवतां कामे अस्मिन् ॥2॥

सूर्य - अग्नि - और पवन - देव से आश्रय  की  है  हमें  अपेक्षा ।
अन्तरिक्ष  में  यश  फैले और  प्राण - पवन  दें  हमें  सुरक्षा ॥2॥

10233
मयि  देवा  द्रविणमा  यजन्ता  मय्याशीरस्तु  मयि  देवहूतिः ।
दैव्या  होतारो  वनुषन्त  पूर्वेSरिष्टा:  स्याम  तन्वा सुवीरा: ॥3॥

हे  अग्नि - देव  धन - वैभव  दे  दो  करते  हैं  तेरा  आवाहन ।
तन- मन से परिपुष्ट रहें प्रभु सुख संतति- पायें मन-भावन ॥3॥

10234
मह्यं यजन्तु मम यानि हव्याकूतिः सत्या  मनसो  मे  अस्तु ।
एनो मा नि गां कतमच्चनाहं विश्वे देवासो अधि वोचता नः॥4॥

संकल्प  पूर्ण  करना  प्रभु  मन  का  दुष्कर्मों  से  हमें  बचाना ।
हविष्यान्न  देते  हैं  प्रभुवर  अविरल  आशीष हमें दे जाना ॥4॥

10235
देवीः  षळुर्वीरुरु  नः  कृणोत   विश्वे   देवास   इह   वीरयध्वम् ।
मा हास्महि प्रजया मा तनूभिर्मा रक्षाम द्विषते सोम राजन् ॥5॥

हे  षट् - देवी  धन - वैभव   दो   दुष्टों   से   तुम   हमें   बचाना ।
तन - मन से हम हों बलशाली संतति गुण-सम्पन्न बनाना॥5॥

10236
अग्ने मन्युं प्रतिनुदन्परेषामदब्धो गोपा: परि पाहि नस्त्वम् ।
प्रत्यञ्चो यन्तु निगुतः पुनस्ते3मैषां चित्तं प्रबुधां वि नेशत् ॥6॥

सदा  सुरक्षा   देना  प्रभुवर  सद् - बुध्दि  सभी  को   दे   देना ।
शुभ-शुभ चिन्तन हो हम सबका सुख सन्मति सबको देना ॥6॥

10237
धाता  धातृणां  भुवनस्य  यस्पतिर्देवं त्रातारमभिमातिषाहम् ।
इमं यज्ञमश्विनोभा बृहस्पतिर्देवा: पान्तु यजमानं न्यर्थात् ॥7॥

हे  इन्द्र- देव  है  यही  प्रार्थना  निर्विघ्न  यज्ञ - सम्पादन हो ।
प्रज्ञा- जागृत  हो  जाए  प्रभु  शुभ-शुभ ही  यह अनुष्ठान हो ॥7॥ 

10238
उरुव्यचा  नो  महिषः शर्म  यंसदस्मिन्हवे  पुरुहूतः  पुरुक्षुः ।
स  नः  प्रजायै  हर्यश्च  मृळयेन्द्र मा नो रीरिषो मा परा दा: ॥8॥

हे अग्नि- देव  हे  इन्द्र-देव  सबकी  सन्तति  सतत सुखी हो ।
तुम  वरद - हस्त  लेकर आना  कोई  भी  यहॉं  दुखी  न हो ॥8॥ 

10239
ये नः सपत्ना अप ते भवन्त्विन्द्राग्निभ्यामव बाधामहे तान् ।
वसवो रुद्रा आदित्या उपरिस्पृशं मोग्रं चेत्तारमधिराजमक्रन्॥9॥

भीतर - बाहर  के  दुश्मन  से  प्रभु  सदा  हमारी  रक्षा करना ।
शौर्य - धैर्य  दे  देना  प्रभु-वर  सद्-गुण  ही  हो  मेरा गहना ॥9॥
  

1 comment:

  1. सर्वतो भद्र कामना -एक उदात्त चिन्तन और अभिव्यक्ति -जिसे आप की नई ऊर्जा दे रही हैं

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