[ऋषि- कुमार यामायन । देवता- यम । छन्द- अनुष्टुप ।]
10282
यस्मिन्वृक्षे सुपलाशे देवैः सम्पिबते यमः।
अत्रा नो विश्पतिः पिता पुराणॉं अनु वेनति ॥1॥
देह - वृक्ष पर देह कर्म - वश भले - बुरे फल भोगता है ।
नियति की यही व्यवस्था है सुख-दुख स्वाद जीव चखता है॥1॥
10283
पुराणॉं अनुवेनन्तं चरन्तं पापयामुया ।
असूयन्नभ्यचाकशं तस्मा अस्पृहयं पुनः ॥2॥
सुख की चाह में दुख पाता है फिर भी उसी राह जाता है ।
कारण नहीं समझता दुख का पुनः - पुनः वह पछताता है ॥2॥
10284
यं कुमार नवं रथमचक्रं मनसाकृणोः ।
एकेषं विश्वतः प्राञ्चमपश्यन्नधि तिष्ठसि ॥3॥
हे नचिकेता चक्र - रहित दस - रथ पर सवार होकर ।
जहॉ कहीं भी जा सकते हो पर जाना तुम सोच-समझ कर॥3॥
10285
यं कुमार प्रावर्तयो रथं विप्रेभ्यस्परि ।
तं सामानु प्रावर्तत समितो नाव्याहितम् ॥4॥
जिस इन्द्रिय से प्रेरित होकर देह का यह रथ चलता है ।
वहॉ शान्ति अति आवश्यक है जग-सागर में डोंगा तिरता है॥4॥
10286
कः कुमारमजनयद्रथं को निरवर्तवत् ।
कः स्वित्तदद्य नो ब्रूयादनुदेयी यथाभवत् ॥5॥
कौन जन्म-दाता है इसका चलाता है इस तन को कौन ?
इस रहस्य को कौन बताए देखो सबके-सब हैं मौन ॥5॥
10287
यथाभवदनुदेयी ततो अग्रमजायत।
पुरस्ताद् बुध्न आततः पश्चान्निरयणं कृतम् ॥6॥
जैसे आत्मा से दूजी आत्मा और फिर-फिर पैदा होता तन ।
पहले प्रकृति-प्रवाहित होती फिर बनता है तन और मन ॥6॥
10288
इदं यमस्य सादनं देवमानं यदुच्यते ।
इयमस्य धम्यते नाळीरयं गीर्भिः परिष्कृतः॥7॥
अंतरिक्ष आदित्य - कक्ष है रवि - रश्मियॉ यहीं बनती हैं ।
वाणी शब्दों का आश्रय लेती रवि- किरणें यश से पलती हैं ॥7॥
10282
यस्मिन्वृक्षे सुपलाशे देवैः सम्पिबते यमः।
अत्रा नो विश्पतिः पिता पुराणॉं अनु वेनति ॥1॥
देह - वृक्ष पर देह कर्म - वश भले - बुरे फल भोगता है ।
नियति की यही व्यवस्था है सुख-दुख स्वाद जीव चखता है॥1॥
10283
पुराणॉं अनुवेनन्तं चरन्तं पापयामुया ।
असूयन्नभ्यचाकशं तस्मा अस्पृहयं पुनः ॥2॥
सुख की चाह में दुख पाता है फिर भी उसी राह जाता है ।
कारण नहीं समझता दुख का पुनः - पुनः वह पछताता है ॥2॥
10284
यं कुमार नवं रथमचक्रं मनसाकृणोः ।
एकेषं विश्वतः प्राञ्चमपश्यन्नधि तिष्ठसि ॥3॥
हे नचिकेता चक्र - रहित दस - रथ पर सवार होकर ।
जहॉ कहीं भी जा सकते हो पर जाना तुम सोच-समझ कर॥3॥
10285
यं कुमार प्रावर्तयो रथं विप्रेभ्यस्परि ।
तं सामानु प्रावर्तत समितो नाव्याहितम् ॥4॥
जिस इन्द्रिय से प्रेरित होकर देह का यह रथ चलता है ।
वहॉ शान्ति अति आवश्यक है जग-सागर में डोंगा तिरता है॥4॥
10286
कः कुमारमजनयद्रथं को निरवर्तवत् ।
कः स्वित्तदद्य नो ब्रूयादनुदेयी यथाभवत् ॥5॥
कौन जन्म-दाता है इसका चलाता है इस तन को कौन ?
इस रहस्य को कौन बताए देखो सबके-सब हैं मौन ॥5॥
10287
यथाभवदनुदेयी ततो अग्रमजायत।
पुरस्ताद् बुध्न आततः पश्चान्निरयणं कृतम् ॥6॥
जैसे आत्मा से दूजी आत्मा और फिर-फिर पैदा होता तन ।
पहले प्रकृति-प्रवाहित होती फिर बनता है तन और मन ॥6॥
10288
इदं यमस्य सादनं देवमानं यदुच्यते ।
इयमस्य धम्यते नाळीरयं गीर्भिः परिष्कृतः॥7॥
अंतरिक्ष आदित्य - कक्ष है रवि - रश्मियॉ यहीं बनती हैं ।
वाणी शब्दों का आश्रय लेती रवि- किरणें यश से पलती हैं ॥7॥
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