Monday, 4 November 2013

सूक्त - 135

[ऋषि- कुमार यामायन । देवता- यम । छन्द- अनुष्टुप ।]

10282
यस्मिन्वृक्षे सुपलाशे  देवैः सम्पिबते यमः।
अत्रा नो विश्पतिः पिता पुराणॉं अनु वेनति ॥1॥

देह  -  वृक्ष  पर  देह  कर्म  -  वश  भले -  बुरे  फल  भोगता  है ।
नियति की यही व्यवस्था है सुख-दुख स्वाद जीव चखता है॥1॥

10283
पुराणॉं   अनुवेनन्तं   चरन्तं    पापयामुया ।
असूयन्नभ्यचाकशं तस्मा अस्पृहयं पुनः ॥2॥

सुख  की  चाह  में  दुख  पाता  है  फिर  भी उसी राह जाता है ।
कारण नहीं समझता दुख का पुनः - पुनः वह पछताता है ॥2॥

10284
यं    कुमार    नवं    रथमचक्रं   मनसाकृणोः ।
एकेषं विश्वतः प्राञ्चमपश्यन्नधि तिष्ठसि ॥3॥

हे   नचिकेता   चक्र - रहित   दस - रथ   पर   सवार   होकर ।
जहॉ कहीं भी जा सकते हो पर जाना तुम सोच-समझ कर॥3॥

10285
यं    कुमार    प्रावर्तयो   रथं   विप्रेभ्यस्परि ।
तं सामानु प्रावर्तत समितो नाव्याहितम् ॥4॥

जिस  इन्द्रिय  से  प्रेरित  होकर  देह  का  यह  रथ  चलता  है ।
वहॉ शान्ति अति आवश्यक है जग-सागर में डोंगा तिरता है॥4॥

10286
कः   कुमारमजनयद्रथं    को    निरवर्तवत् ।
कः स्वित्तदद्य नो ब्रूयादनुदेयी यथाभवत् ॥5॥

कौन जन्म-दाता है इसका चलाता है इस तन को कौन ?
इस रहस्य को कौन बताए देखो सबके-सब हैं मौन ॥5॥

10287
यथाभवदनुदेयी           ततो          अग्रमजायत।
पुरस्ताद् बुध्न आततः पश्चान्निरयणं कृतम् ॥6॥ 

जैसे आत्मा से दूजी आत्मा और फिर-फिर पैदा होता तन ।
पहले प्रकृति-प्रवाहित होती फिर बनता है तन और मन ॥6॥

10288
इदं     यमस्य     सादनं    देवमानं    यदुच्यते ।
इयमस्य धम्यते नाळीरयं गीर्भिः परिष्कृतः॥7॥

अंतरिक्ष  आदित्य - कक्ष  है  रवि - रश्मियॉ  यहीं  बनती  हैं ।
वाणी शब्दों का आश्रय लेती रवि- किरणें यश से पलती हैं ॥7॥     

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