Tuesday, 26 November 2013

सूक्त - 110

[ऋषि- राम जामदग्न्य । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10063
समिध्दो  अद्य  मनुषो  दुरोणे  देवो  देवान्यजसि  जातवेदः ।
आ च वह मित्रमहश्चिकित्वान्त्वं दूतः कविरसि प्रचेता: ॥1॥

हे  अग्नि-देव  हे अविकारी  तुम  सब  सद्गुण  के स्वामी  हो ।
प्रज्वलित हो जाओ प्रभुवर तुम देवगणों के अनुगामी हो॥1॥

10064
तनूनपात्पथ ऋतस्य यानान्मध्वा समञ्जन्त्स्वदया सुजिह्व।
मन्मानि  धीभिरुत  यज्ञमृन्धन्देवत्रा  च  कृणुह्यध्वरं नः ॥2॥

प्रज्वलित अग्नि ही मुख है उनका मुख से खाते हैं हविष्यान्न।
वाणी का वैभव तन की रक्षा करते हैं सदा अग्नि-भगवान ॥2॥

10065
आजुह्वान    ईड्यो    वन्द्यश्चा    याह्यग्ने    वसुभिः    सजोषा: ।
त्वं  देवानामसि  यह्व  होता  स  एनान्यक्षीषितो यजीयान् ॥3॥

अग्नि - देवता   वंदनीय   हैं   वसु - सम  प्रेम   हमें  करते  हैं ।
सब   देवों   के  होता  बन कर  उनके  लिए  यज्ञ  करते  हैं ॥3॥

10066
प्राचीनं बर्हिः प्रदिशा पृथिव्या वस्तोरस्या वृज्यते अग्रे अह्नाम्।
व्यु   प्रथते   वितरं   वरीयो   देवेभ्यो   अदितये   स्योनम् ॥4॥

ऊषा  काल  में  कुशा - बिछौना  देव - गणों  के  लिए बिछा है ।
सुख - पूर्वक  आसीन  सभी हैं यज्ञ- कुण्ड भी ढँका हुआ है ॥4॥

10067
व्यचस्वतीरुर्विया वि श्रयन्तां पतिभ्यो न जनयः शुम्भमाना:।
देवीर्द्वारो   बृहतीर्विश्वमिन्वा   देवेभ्यो   भवत   सुप्रायणा: ॥5॥

प्रसंग-पुनीत-प्राप्त  है  प्रभुवर  आनन्द  का  आधिक्य  यहॉं  है ।
उषा-निशा का रूप है अद्भुत सबका सुखकर सानिध्य यहॉं है॥5॥

10068
आ  सुष्वयन्ती  यजते  उपाके  उषासानक्ता  सदतां  नि  योनौ ।
दिव्ये  योषणे  बृहती  सुरुक्मे  अधि  श्रियं  शुक्रपिशं दधाने ॥6॥

ऊषा-निशा सबको शुभ-शुभ हो यज्ञ-स्थल  पर  दोनों  आ जायें ।
वे यज्ञ-भाग की स्वामिनी हैं निज दिव्य-रूप सबको दिखलायें॥6॥

10069
दैव्या  होतारा प्रथमा  सुवाचा  मिमाना  यज्ञं  मनुषो  यजध्यै ।
प्रचोदयन्ता विदथेषु कारू प्राचीनं ज्योतिः प्रदिशा दिशन्ता॥7॥

यजमान सभी ज्ञानी पण्डित हैं आदित्य-अग्नि मंत्रों के ज्ञाता ।
यज्ञीय भावना के प्रेरक हैं कर्म - कुशल हैं भाग्य - विधाता ॥7॥

10070
आ  नो   यज्ञं   भारती   तूयमेत्विळा   मनुष्यदिह  चेतयन्ती ।
तिस्त्रो   देवीर्बर्हिरेदं   स्योनं   सरस्वती   स्वपसः   सदन्तु ॥8॥

भारती   इला  और  सरस्वती   ये  तीनों  ही  सुखदायिनी  हैं ।
सतकर्म  रूप  ये  तीन- देवियॉं  सदा-सदा  से  वरदानी  हैं ॥8॥

10071
य   इमे   द्यावापृथिवी   जनित्री   रूपैरपिंशद्भुवनानि   विश्वा ।
तमद्य होतरिषितो यजीयान्देवं  त्वष्टारमिह  यक्षि विद्वान् ॥9॥

यह  धरती  सबकी  माता  है  रवि  ने किया है इसे सुशोभित ।
आदित्य- देव की करें अर्चना आज यज्ञ में यहॉं यथोचित ॥9॥

10072
उपावसृज  त्मन्या  समञ्जन्देवानां   पाथ   ऋतुथा   हवींषि ।
वनस्पतिःशमिता देवो अग्निःस्वदन्तु हव्यं मधुना घृतेन॥10॥ 

हे यज्ञ - देवता तुम समर्थ हो सबके भोजन की करो व्यवस्था ।
वनस्पति शमिता अग्नि-देवता ग्रहण करें हवि यथा-तथा॥10॥

10073
सद्यो     जातो    व्यमिमीत     यज्ञमग्निर्देवानामभवत्पुरोगा: ।
अस्य होतुः प्रदिश्यृतस्य वाचि स्वाहाकृतं हविरदन्तु देवा:॥11॥

यज्ञ - भाव  को  अग्नि - देव  ने  प्रज्वलित होकर प्रकट किया ।
भाव-प्रधान ऋचा का आश्रय आगन्तुक-आदित्य ने लिया॥11॥ 
 

2 comments:

  1. यह धरती सबकी माता है रवि ने किया है इसे सुशोभित ।
    आदित्य- देव की करें अर्चना आज यज्ञ में यहॉं यथोचित ॥9॥

    सूर्य, धरा का मिलन है यह अनुपम ..दूर से दोनों एक दुसरे को पोषित व सुशोभित करते हैं...

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