Wednesday, 6 November 2013

सूक्त - 133

[ऋषि- सुदास् पैजवन । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10268
प्रो ष्वस्मै पुरोरथमिन्द्राय शूषमर्चत । अभीके चिदु लोककृत्सङ्गे समत्सु
वृत्रहास्माकं  बोधि  चोदिता  नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥1॥

हे  इन्द्र- देव  हे  शक्ति- पुञ्ज  प्रभु  दुष्टों  से  तुम  हमें बचाओ ।
दुर्जन को सही राह दिखलाओ धन और धान हमें दे जाओ ॥1॥

10269
त्वं सिन्धूँरवासृजोSधराचो अहन्नहिम् । अशत्रुरिन्द्र जज्ञिषे विश्वं पुष्यसि
वार्यं  तं त्वा परि ष्वजामहे । नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥2॥

हे  इन्द्र - देव  हे  जल - दाता  तुम  संत - जनों  के  पालक  हो ।
हम हविष्यान्न अर्पित करते हैं तुम ही हम सबके रक्षक हो ॥2॥

10270
वि षु विश्वा अरतयोSर्यो नशन्त नो धियः। अस्तासि शत्रवे वधं यो न इन्द्र
जिघांसति या ते रातिर्ददिर्वसु नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु॥3॥

दुष्ट - दलन अति आवश्यक है  तुम सज्जन का पालन करना ।
धन- धान्य सम्पदा  देना प्रभुवर  सबका हित करते रहना ॥3॥

10271
यो न इन्द्राभितो जनो वृकायुरादिदेशति। अधस्पदं तमीँ कृधि विबाधो असि
सासहि र्नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥4॥

बाहर -  भीतर  के  दुश्मन  से  प्रभु  रक्षा  करना  सदा  हमारी ।
तेरी  शरण  में  हम  आए  हैं  स्तुति  करते हैं सदा तुम्हारी ॥4॥

10272
यो न इन्द्राभिदासति सनाभिर्यश्च निष्ट्यः। अव तस्य बलं तिर महीव द्यौरध
त्मना नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥5॥

जो असत् मार्ग पर भटक रहे हैं सही राह उनको दिखलाना ।
अतुलित बल के स्वामी हो तुम मेरे मन का दोष मिटाना ॥5॥

10273
वयमिन्द्र त्वायवः सखित्वमा रभामहे । ऋतस्य नः पथा नयाति विश्वानि
दुरिता नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥6॥

तुम्हें  सदा  से  अपना  माना मित्र - भाव  के तुम पोषक हो ।
दुर्जन  तुमसे  भय  खाते  हैं  अपनों  के तुम ही रक्षक हो ॥6॥

10274
अस्मभ्यं  सु  त्वमिन्द्र  तां  शिक्ष  या दोहते प्रति वरं जरित्रे ।
अच्छिद्रोध्नी  पीपयद्यथा नः सहस्त्रधारा पयसा मही गौः॥7॥

हे प्रभु तुम प्रेरक बन जाओ तन और मन परि-पुष्ट बनाओ ।
मनो- कामना पूरी  कर दो पोषक-रस हमको दे जाओ  ॥7॥     
 

1 comment:

  1. हे प्रभु तुम प्रेरक बन जाओ तन और मन परि-पुष्ट बनाओ ।
    मनो- कामना पूरी कर दो पोषक-रस से संतृप्त कराओ ॥7॥

    प्रभु को नमन !

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