Thursday, 7 November 2013

सूक्त - 131

[ऋषि- सुकीर्ति काक्षीवत । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप-अनुष्टुप ।]

10254
अप   प्राच  इन्द्र  विश्वां  अमित्रानपापाचो  अभिभूते   नुदस्व ।
अपोदीचो    अप   शूराधराच   उरौ  यथा  तव  शर्मन्मदेम ॥1॥

दशों-दिशा  अनुकूल  रहे  प्रभु  कुछ  भी  कहीं  न हो प्रतिकूल ।
सानिध्य-लाभ तेरा हम पा लें सुख से जियें न हो कोई भूल॥1॥

10255
कुविदंङ्ग़   यवमन्तो   यवं   चिद्यथा   दान्त्यनुपूर्वं   वियूय ।
इहेहैषां  कृणुहि  भोजनानि ये बर्हिषो  नमोवृक्तिं न जग्मुः ॥2॥

असुरों  से  रक्षा  करो  हमारी  सज्जन  का  प्रतिपाल  करो ।
अन्न  - धान  से  भरा  रहे  घर  यश -वैभव  भण्डार  भरो ॥2॥

10256
नहि  स्थूर्यृतुथा  यातमस्ति  नोत  श्रवो  विविदे  सङ्गमेषु ।
गव्यन्त इन्द्रं सख्याय विप्रा अश्वायन्तो वृषणं वाजयन्तः॥3॥

हे  इन्द्र-देव  तुमसे  विनती है तुम धरती पर जल बरसाओ ।
फल- सब्जी  से  भरी  रहे  यह सुख का श्रोत हमें दे जाओ ॥3॥

10257
युवं    सुराममश्विना   नमुचावासुरे     सचा।
विपिपाना शुभ्स्पती इन्द्रं कर्मस्वावतम् ॥4॥

शुभ-चिन्तन  हो  शुभ  कर्म  करें  प्रभु  यह वरदान हमें देना ।
सत्पथ पर ही चलें सदा हम यह जीवन-नाव तुम्हीं खेना ॥4॥

10258
पुत्रमिव        पितरावश्विनोभेन्द्रावथुः        काव्यैर्दंसनाभिः ।
यत्सुरामं व्यपिबःशचीभिःसरस्वती त्वा मघवन्नभिष्ण्क्॥5॥

सत्कर्म- सतत  हम करें प्रभु जी तुम सदा हमारी रक्षा करना ।
सज्जन का ही संग- सदा हो शुभ -चिन्तन हो मेरा गहना ॥5॥

10259
इन्द्रः  सुत्रामा  स्ववॉं  अवोभिः  सुमृळीको  भवतु  विश्ववेदा: ।
बाधतां   द्वेषो   अभयं   कृणोतु  सुवीर्यस्य  पतयः  स्याम ॥6॥

सदा  सुरक्षा  देना  भगवन  हम  सत्य-ढाल  पर  सदा  पलें ।
निर्भय  होकर  जियें  जगत  में  धर्म - गली  में सदा चलें ॥6॥

10260
तस्य   वयं   सुमतौ   यज्ञियस्यापि   भद्रे  सौमनसे   स्याम ।
स सुत्रामा स्ववॉं इन्द्रो अस्मे आराच्चिद् द्वेषः सनुतर्युयोतु॥7॥

मति  में  नित  यज्ञीय  भाव  हो  मन  से  हो  जायें सम्पन्न ।
हे  इन्द्र-देव  तुमसे  विनती है सम्पदा मुझे दें धान-अन्न ॥7॥   

No comments:

Post a Comment