[ऋषि- सुकीर्ति काक्षीवत । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप-अनुष्टुप ।]
10254
अप प्राच इन्द्र विश्वां अमित्रानपापाचो अभिभूते नुदस्व ।
अपोदीचो अप शूराधराच उरौ यथा तव शर्मन्मदेम ॥1॥
दशों-दिशा अनुकूल रहे प्रभु कुछ भी कहीं न हो प्रतिकूल ।
सानिध्य-लाभ तेरा हम पा लें सुख से जियें न हो कोई भूल॥1॥
10255
कुविदंङ्ग़ यवमन्तो यवं चिद्यथा दान्त्यनुपूर्वं वियूय ।
इहेहैषां कृणुहि भोजनानि ये बर्हिषो नमोवृक्तिं न जग्मुः ॥2॥
असुरों से रक्षा करो हमारी सज्जन का प्रतिपाल करो ।
अन्न - धान से भरा रहे घर यश -वैभव भण्डार भरो ॥2॥
10256
नहि स्थूर्यृतुथा यातमस्ति नोत श्रवो विविदे सङ्गमेषु ।
गव्यन्त इन्द्रं सख्याय विप्रा अश्वायन्तो वृषणं वाजयन्तः॥3॥
हे इन्द्र-देव तुमसे विनती है तुम धरती पर जल बरसाओ ।
फल- सब्जी से भरी रहे यह सुख का श्रोत हमें दे जाओ ॥3॥
10257
युवं सुराममश्विना नमुचावासुरे सचा।
विपिपाना शुभ्स्पती इन्द्रं कर्मस्वावतम् ॥4॥
शुभ-चिन्तन हो शुभ कर्म करें प्रभु यह वरदान हमें देना ।
सत्पथ पर ही चलें सदा हम यह जीवन-नाव तुम्हीं खेना ॥4॥
10258
पुत्रमिव पितरावश्विनोभेन्द्रावथुः काव्यैर्दंसनाभिः ।
यत्सुरामं व्यपिबःशचीभिःसरस्वती त्वा मघवन्नभिष्ण्क्॥5॥
सत्कर्म- सतत हम करें प्रभु जी तुम सदा हमारी रक्षा करना ।
सज्जन का ही संग- सदा हो शुभ -चिन्तन हो मेरा गहना ॥5॥
10259
इन्द्रः सुत्रामा स्ववॉं अवोभिः सुमृळीको भवतु विश्ववेदा: ।
बाधतां द्वेषो अभयं कृणोतु सुवीर्यस्य पतयः स्याम ॥6॥
सदा सुरक्षा देना भगवन हम सत्य-ढाल पर सदा पलें ।
निर्भय होकर जियें जगत में धर्म - गली में सदा चलें ॥6॥
10260
तस्य वयं सुमतौ यज्ञियस्यापि भद्रे सौमनसे स्याम ।
स सुत्रामा स्ववॉं इन्द्रो अस्मे आराच्चिद् द्वेषः सनुतर्युयोतु॥7॥
मति में नित यज्ञीय भाव हो मन से हो जायें सम्पन्न ।
हे इन्द्र-देव तुमसे विनती है सम्पदा मुझे दें धान-अन्न ॥7॥
10254
अप प्राच इन्द्र विश्वां अमित्रानपापाचो अभिभूते नुदस्व ।
अपोदीचो अप शूराधराच उरौ यथा तव शर्मन्मदेम ॥1॥
दशों-दिशा अनुकूल रहे प्रभु कुछ भी कहीं न हो प्रतिकूल ।
सानिध्य-लाभ तेरा हम पा लें सुख से जियें न हो कोई भूल॥1॥
10255
कुविदंङ्ग़ यवमन्तो यवं चिद्यथा दान्त्यनुपूर्वं वियूय ।
इहेहैषां कृणुहि भोजनानि ये बर्हिषो नमोवृक्तिं न जग्मुः ॥2॥
असुरों से रक्षा करो हमारी सज्जन का प्रतिपाल करो ।
अन्न - धान से भरा रहे घर यश -वैभव भण्डार भरो ॥2॥
10256
नहि स्थूर्यृतुथा यातमस्ति नोत श्रवो विविदे सङ्गमेषु ।
गव्यन्त इन्द्रं सख्याय विप्रा अश्वायन्तो वृषणं वाजयन्तः॥3॥
हे इन्द्र-देव तुमसे विनती है तुम धरती पर जल बरसाओ ।
फल- सब्जी से भरी रहे यह सुख का श्रोत हमें दे जाओ ॥3॥
10257
युवं सुराममश्विना नमुचावासुरे सचा।
विपिपाना शुभ्स्पती इन्द्रं कर्मस्वावतम् ॥4॥
शुभ-चिन्तन हो शुभ कर्म करें प्रभु यह वरदान हमें देना ।
सत्पथ पर ही चलें सदा हम यह जीवन-नाव तुम्हीं खेना ॥4॥
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पुत्रमिव पितरावश्विनोभेन्द्रावथुः काव्यैर्दंसनाभिः ।
यत्सुरामं व्यपिबःशचीभिःसरस्वती त्वा मघवन्नभिष्ण्क्॥5॥
सत्कर्म- सतत हम करें प्रभु जी तुम सदा हमारी रक्षा करना ।
सज्जन का ही संग- सदा हो शुभ -चिन्तन हो मेरा गहना ॥5॥
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इन्द्रः सुत्रामा स्ववॉं अवोभिः सुमृळीको भवतु विश्ववेदा: ।
बाधतां द्वेषो अभयं कृणोतु सुवीर्यस्य पतयः स्याम ॥6॥
सदा सुरक्षा देना भगवन हम सत्य-ढाल पर सदा पलें ।
निर्भय होकर जियें जगत में धर्म - गली में सदा चलें ॥6॥
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तस्य वयं सुमतौ यज्ञियस्यापि भद्रे सौमनसे स्याम ।
स सुत्रामा स्ववॉं इन्द्रो अस्मे आराच्चिद् द्वेषः सनुतर्युयोतु॥7॥
मति में नित यज्ञीय भाव हो मन से हो जायें सम्पन्न ।
हे इन्द्र-देव तुमसे विनती है सम्पदा मुझे दें धान-अन्न ॥7॥
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