[ऋषि- असुर-समूह । ऋषिका- सरमा देवशुनी । छन्द- त्रिष्टुप ।]
10045
किमिच्छन्ती सरमा प्रेदमानङ् दूरे ह्यध्वा जगुरिः पराचैः ।
कास्मेहितिः का परितक्म्यासीत्कथं रसाया अतरः पयांसि॥1॥
मेघ पूछते हैं वाणी से इस दुर्गम में तुम कैसे आई हो ।
हमसे क्या है सम्बन्ध तेरा किस ध्येय से यहॉं पधारी हो॥1॥
10046
इन्द्रस्य दूतीरिषिता चरामि मह इच्छन्ती पणयो निधीन्वः ।
अतिष्कदो भियसा तन्न आवत्तथा रसाया अतरं पयांसि॥2॥
मैं सूरज की संवदिया हूँ रवि -किरणों के सँग- सँग आई हूँ ।
जल - देव मेरी रक्षा करते हैं सबका हित करने आई हूँ ॥2॥
10047
कीदृङ्डिन्द्र सरमे का दृशीका यस्येदं दूतीरसरः पराकात् ।
आ च गच्छान्मित्रमेना दधामाथा गवां गोपतिर्नो भवाति ॥3॥
वे आदित्य-देव क्या करते हैं जिनकी सन्देश - वाहिका हो ।
आओ हम अभिनन्दन करते हैं अब तुम हमारी कनिष्ठा हो॥3॥
10048
नाहं तं वेद दभ्यं दभत्स यस्येदं दूतीरसरं पराकात् ।
न तं गूहन्ति स्त्रवतो गभीरा हता इन्द्रेण पणयः शयध्वे ॥4॥
मेरा स्वामी अति बलशाली उसे कोई नहीं हरा सकता ।
वह तो है तुम सब पर भारी वह कभी किसी से नहीं डरता ॥4॥
10049
इमा गावः सरमे या ऐच्छः परि दिवो अन्तान्त्सुभगे पतन्ती ।
कस्त एना अव सृजादयुध्व्युतास्माकमायुधा सन्ति तिग्मा॥5॥
तुम इस दुर्गम में आकर भी जन-हित की बातें करती हो ।
अस्त्र - शस्त्र हैं पास हमारे आयुध से क्या तुम डरती हो ॥5॥
10050
असेन्या वः पणयो वचांस्यनिषव्यास्तन्वः सन्तु पापीः ।
अधृष्टो व एतवा अस्तु पन्था बृहस्पतिर्व उभया न मृळात्॥6॥
तुम सब बडे स्वार्थी हो परमारथ को तुम क्या जानो ।
सूर्य - देव में अतुलित बल है उनकी महिमा को पहचानो ॥6॥
10051
अयं निधिः सरमे अद्रिबुध्नो गोभिरश्वेभिर्वसुभिर्न्यृष्टः ।
रक्षन्ति तं पणयो ये सुगोपा रेकु पदमलकमा जगन्थ ॥7॥
हम सब भले असुर हैं पर हम धीर - वीर अति उत्साही हैं ।
तुम व्यर्थ यहॉं तक आई हो हम सब आपस में भाई-भाई हैं॥7॥
10052
एह गमन्नृषयः सोमशिता अयास्यो अङ्गिरसो नवग्वा: ।
त एतमूर्वं वि भजन्त गोनामथैतद्वचः पणयो वमन्नित् ॥8॥
तुम सब मुझे तुच्छ न समझो मैं भी हूँ अति बलशाली ।
दिखने में अति कोमल हूँ पर मत समझो भोली - भाली ॥8॥
10053
एवा च त्वं सरम आजगन्थ प्रबाधिता सहसा दैव्येन ।
स्वसारं त्वा कृणवै मा पुनर्गा अप ते गवां सुभगे भजाम ॥9॥
सुभगे तुम हो बहन हमारी मत जाओ अब उनके पास ।
तुम जो चाहोगी हम वह देंगे यहीं रहने का करो प्रयास ॥9॥
10054
नाहं वेद भ्रातृत्वं नो स्वसृत्य मिन्द्रो विदुरङ्गिरसश्च घोरा: ।
गोकामा मे अच्छदयन्यदायमपात इत पणयो वरीयः ॥10॥
मैं सम्बन्धों से भी ऊपर हूँ उपकार सभी का करती हूँ ।
तुम भी सत्पथ पर आ जाओ बस बात यही मैं कहती हूँ ॥10॥
10055
दूरमित पणयो वरीय उद्रावो यन्तु मिनतीरृतेन ।
बृहस्पतिर्या अविन्दन्निगूळहा:सोमो ग्रावाण ऋ ऋषयश्च विप्रा:॥11॥
अब तुम सब मेरी बात सुनो यह जगह छोड दो मान लो हार ।
सबके हित में अपना हित है करते रहना पर - उपकार ॥11॥
10045
किमिच्छन्ती सरमा प्रेदमानङ् दूरे ह्यध्वा जगुरिः पराचैः ।
कास्मेहितिः का परितक्म्यासीत्कथं रसाया अतरः पयांसि॥1॥
मेघ पूछते हैं वाणी से इस दुर्गम में तुम कैसे आई हो ।
हमसे क्या है सम्बन्ध तेरा किस ध्येय से यहॉं पधारी हो॥1॥
10046
इन्द्रस्य दूतीरिषिता चरामि मह इच्छन्ती पणयो निधीन्वः ।
अतिष्कदो भियसा तन्न आवत्तथा रसाया अतरं पयांसि॥2॥
मैं सूरज की संवदिया हूँ रवि -किरणों के सँग- सँग आई हूँ ।
जल - देव मेरी रक्षा करते हैं सबका हित करने आई हूँ ॥2॥
10047
कीदृङ्डिन्द्र सरमे का दृशीका यस्येदं दूतीरसरः पराकात् ।
आ च गच्छान्मित्रमेना दधामाथा गवां गोपतिर्नो भवाति ॥3॥
वे आदित्य-देव क्या करते हैं जिनकी सन्देश - वाहिका हो ।
आओ हम अभिनन्दन करते हैं अब तुम हमारी कनिष्ठा हो॥3॥
10048
नाहं तं वेद दभ्यं दभत्स यस्येदं दूतीरसरं पराकात् ।
न तं गूहन्ति स्त्रवतो गभीरा हता इन्द्रेण पणयः शयध्वे ॥4॥
मेरा स्वामी अति बलशाली उसे कोई नहीं हरा सकता ।
वह तो है तुम सब पर भारी वह कभी किसी से नहीं डरता ॥4॥
10049
इमा गावः सरमे या ऐच्छः परि दिवो अन्तान्त्सुभगे पतन्ती ।
कस्त एना अव सृजादयुध्व्युतास्माकमायुधा सन्ति तिग्मा॥5॥
तुम इस दुर्गम में आकर भी जन-हित की बातें करती हो ।
अस्त्र - शस्त्र हैं पास हमारे आयुध से क्या तुम डरती हो ॥5॥
10050
असेन्या वः पणयो वचांस्यनिषव्यास्तन्वः सन्तु पापीः ।
अधृष्टो व एतवा अस्तु पन्था बृहस्पतिर्व उभया न मृळात्॥6॥
तुम सब बडे स्वार्थी हो परमारथ को तुम क्या जानो ।
सूर्य - देव में अतुलित बल है उनकी महिमा को पहचानो ॥6॥
10051
अयं निधिः सरमे अद्रिबुध्नो गोभिरश्वेभिर्वसुभिर्न्यृष्टः ।
रक्षन्ति तं पणयो ये सुगोपा रेकु पदमलकमा जगन्थ ॥7॥
हम सब भले असुर हैं पर हम धीर - वीर अति उत्साही हैं ।
तुम व्यर्थ यहॉं तक आई हो हम सब आपस में भाई-भाई हैं॥7॥
10052
एह गमन्नृषयः सोमशिता अयास्यो अङ्गिरसो नवग्वा: ।
त एतमूर्वं वि भजन्त गोनामथैतद्वचः पणयो वमन्नित् ॥8॥
तुम सब मुझे तुच्छ न समझो मैं भी हूँ अति बलशाली ।
दिखने में अति कोमल हूँ पर मत समझो भोली - भाली ॥8॥
10053
एवा च त्वं सरम आजगन्थ प्रबाधिता सहसा दैव्येन ।
स्वसारं त्वा कृणवै मा पुनर्गा अप ते गवां सुभगे भजाम ॥9॥
सुभगे तुम हो बहन हमारी मत जाओ अब उनके पास ।
तुम जो चाहोगी हम वह देंगे यहीं रहने का करो प्रयास ॥9॥
10054
नाहं वेद भ्रातृत्वं नो स्वसृत्य मिन्द्रो विदुरङ्गिरसश्च घोरा: ।
गोकामा मे अच्छदयन्यदायमपात इत पणयो वरीयः ॥10॥
मैं सम्बन्धों से भी ऊपर हूँ उपकार सभी का करती हूँ ।
तुम भी सत्पथ पर आ जाओ बस बात यही मैं कहती हूँ ॥10॥
10055
दूरमित पणयो वरीय उद्रावो यन्तु मिनतीरृतेन ।
बृहस्पतिर्या अविन्दन्निगूळहा:सोमो ग्रावाण ऋ ऋषयश्च विप्रा:॥11॥
अब तुम सब मेरी बात सुनो यह जगह छोड दो मान लो हार ।
सबके हित में अपना हित है करते रहना पर - उपकार ॥11॥
मेघ पूछते हैं वाणी से इस दुर्गम में तुम कैसे आई हो ।
ReplyDeleteहमसे क्या है सम्बन्ध तेरा किस ध्येय से यहॉं पधारी हो॥1॥
सुंदर कथात्मक वर्णन...
प्रश्न की कडी संग सुक्ति अद्भभूत
ReplyDeleteसुन्दर अनुवाद..
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