[ऋषिका- वागाम्भृणी । देवी- वागाम्भृणी ।छन्द- त्रिष्टुप-जगती ।]
10207
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः ।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ॥1॥
मैं वाणी की देवी वाग्देवी हूँ विद्वत्-जन संग विचरती हूँ ।
यह पञ्च-भूत ही मेरा घर है मैं साधिकार घर पर रहती हूँ॥1॥
10208
अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् ।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मतेसुप्राव्ये3यजमानाय सुन्वते ॥2॥
मैं यश- वैभव की धात्री हूँ तन-मन सदा तृप्त करती हूँ ।
कला-उपासक यश-धन पाता मन-गागर सबका भरती हूँ ॥2॥
10209
अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् ॥3॥
मैं सम्पूर्ण राष्ट्र की वाणी हूँ शुभ के संग सतत रहती हूँ ।
जग में जो भी मंगल होता है उसका प्रसार मैं करती हूँ ॥3॥
10210
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यःप्राणिति य ई शृणोत्युक्तम्।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रध्दिवं ते वदामि ॥4॥
मेरी क्षमता प्राण-शक्ति है उससे ही सब सुख पाते हैं ।
जो मेरी महिमा नहीं जानते वे स्वतः नष्ट हो जाते हैं ॥4॥
10211
अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः ।
यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्॥5॥
देव - मनुज सेवन करते हैं मैं ही तो हूँ वह उपदेश ।
गुण-कर्म-स्वभाव बॉंटती हूँ मैं सज्जन का है यह परिवेश॥5॥
10212
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ॥6॥
दुर्जन के लिए काल मैं ही हूँ जन-हित के लिए लडा करती हूँ।
मैं धरती पर ही रहती हूँ और नीति-न्याय संग रहती हूँ ॥6॥
10213
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्व1न्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥7॥
सिंहासन पर नित रहे योग्य नर इसी में है जग का कल्याण।
सबको यही सिखाती हूँ मैं नीति-न्याय से पाओ मान ॥7॥
10214
अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ॥8॥
समीर- सदृश विचरण करती हूँ रखती हूँ मैं सबका ध्यान ।
स्वार्थ छोड परमार्थ पकड लो यही है सबसे सच्चा ज्ञान ॥8॥
10207
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः ।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ॥1॥
मैं वाणी की देवी वाग्देवी हूँ विद्वत्-जन संग विचरती हूँ ।
यह पञ्च-भूत ही मेरा घर है मैं साधिकार घर पर रहती हूँ॥1॥
10208
अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् ।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मतेसुप्राव्ये3यजमानाय सुन्वते ॥2॥
मैं यश- वैभव की धात्री हूँ तन-मन सदा तृप्त करती हूँ ।
कला-उपासक यश-धन पाता मन-गागर सबका भरती हूँ ॥2॥
10209
अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् ॥3॥
मैं सम्पूर्ण राष्ट्र की वाणी हूँ शुभ के संग सतत रहती हूँ ।
जग में जो भी मंगल होता है उसका प्रसार मैं करती हूँ ॥3॥
10210
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यःप्राणिति य ई शृणोत्युक्तम्।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रध्दिवं ते वदामि ॥4॥
मेरी क्षमता प्राण-शक्ति है उससे ही सब सुख पाते हैं ।
जो मेरी महिमा नहीं जानते वे स्वतः नष्ट हो जाते हैं ॥4॥
10211
अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः ।
यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्॥5॥
देव - मनुज सेवन करते हैं मैं ही तो हूँ वह उपदेश ।
गुण-कर्म-स्वभाव बॉंटती हूँ मैं सज्जन का है यह परिवेश॥5॥
10212
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ॥6॥
दुर्जन के लिए काल मैं ही हूँ जन-हित के लिए लडा करती हूँ।
मैं धरती पर ही रहती हूँ और नीति-न्याय संग रहती हूँ ॥6॥
10213
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्व1न्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥7॥
सिंहासन पर नित रहे योग्य नर इसी में है जग का कल्याण।
सबको यही सिखाती हूँ मैं नीति-न्याय से पाओ मान ॥7॥
10214
अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ॥8॥
समीर- सदृश विचरण करती हूँ रखती हूँ मैं सबका ध्यान ।
स्वार्थ छोड परमार्थ पकड लो यही है सबसे सच्चा ज्ञान ॥8॥
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