[ऋषि- लब ऐन्द्र । देवता- आत्म-स्तुति । छन्द- गायत्री ।]
10150
इति वा इति मे मनो गामश्चं सनुयामिति । कुवित्सोमस्यापामिति ॥1॥
गौ - अश्वादि दान की इच्छा सहज ही मन में उठती है ।
मैं सदा सोम-रस पीता हूँ इससे मुझको ऊर्जा मिलती है ॥1॥
10151
प्र वाताइव दोधत उन्मा पीता अयंसत । कुवित्सोमस्यापामिति ॥2॥
पवन-देव की अति-गति भी सबको प्रोत्साहित करती है ।
मैं नित्य सोम-औषधि पीता हूँ यह मुझको प्रेरित करती है ॥2॥
10152
उन्मा पीता अयंसत रथमश्वा इवाशवः । कुवित्सोमस्यापामिति ॥3॥
ज्यों तीव्र - वेग गामी घोडा झट मंज़िल तक पहुँचाता है ।
वैसे ही सोम-रस पीने वाला उद्यमी सफलता पाता है ॥3॥
10153
उप मा मतिरस्थित वाश्रा पुत्रमिव प्रियम्। कुवित्सोमस्यापामिति॥4॥
जैसे रंभाती गौ अपने बछडे के पास चली जाती है ।
वैसे ही हर दिव्य-भावना मुझ तक निःशब्द चली आती है॥4॥
10154
अहं तष्टेव वन्धुरं पर्यचामि हृदा मतिम् । कुवित्सोमस्यापामिति ॥5॥
रथ में सारथी-जगह होती है यह बहुत महत्व-पूर्ण होती है ।
मन-मति एक-दूजे की पूरक मन-मति की द्युति होती है ॥5॥
10155
नहि मे अक्षिपच्चनाच्छान्त्सुःपञ्च कृष्टयः।कुवित्सोमस्यापामिति॥6॥
चर-अचर सभी को देखता हूँ दृष्टि से बाहर कुछ भी नहीं है ।
मैं सदा सोम-रस पीता हूँ सब पर मेरा ही नियंत्रण है ॥6॥
10156
नहि मे रोदसी उभे अन्य पक्षं चन प्रति । कुवित्सोमस्यापामिति ॥7॥
अवनि-अंतरिक्ष दोनों के बल की तुलना में मैं ही भारी हूँ ।
मैं सदा सोम-रस पीता हूँ मैं तो निर्मल शाकाहारी हूँ॥7॥
10157
अभि द्यां महिना भुवमभी3मां पृथिवीं महीम्। कुवित्सोमस्यापामिति॥8॥
आत्म-देव की महिमा अद्भुत अभिभूत अवनि को करता हूँ ।
मैं सदा सोम - रस पीता हूँ मैं कल्प - वृक्ष संग रहता हूँ ॥8॥
10158
हन्ताहं पृथिवीमिमां नि दधानीह वेह वा। कुवित्सोमस्यापामिति ॥9॥
मैं आत्म - देव हूँ अति-समर्थ असंभव - संभव कर सकता हूँ ।
मैं सदा सोम - रस पीता हूँ नित-नित शुभ-चिंतन करता हूँ॥9॥
10159
ओषमित्पृथिवीमहं जङ्घनानीह वेह वा। कुवित्सोमस्यापामिति॥10॥
देव - अंश मैं आत्म - देव हूँ सामर्थ्य अत्यधिक रखता हूँ ।
सब कुछ करने में समर्थ हूँ सोम-रस-पान सदा करता हूँ॥10॥
10160
दिवि मे अन्यः पक्षो3धो अन्यमचीकृषम्। कुवित्सोमस्यापामिति॥11॥
मैं अंतरिक्ष पर और धरती पर एक साथ रह सकता हूँ ।
कहीं भी आ और जा सकता हूँ सोम-रस-पान सदा करता हूँ ॥11॥
10161
अहमस्मि महामहोSभिनभ्यमुदीषितः। कुवित्सोमस्यापामिति॥12॥
अंतरिक्ष सम उदित सूर्य - सम उज्ज्वल-आभा लेकर जीता हूँ ।
कल्प-तरु संग-संग रहता हूँ मैं नित्य सोम का रस पीता हूँ॥12॥
10162
गृहो याम्यरङ्कृतो देवेभ्यो हव्यवाहनः । कुवित्सोमस्यापामिति॥13॥
हवि - वहन भी मैं ही करता हूँ हवि ग्रहण भी मैं ही करता हूँ ।
मैं ही सब व्यवहार निभाता सोम - रस-पान सदा करता हूँ॥13॥
10150
इति वा इति मे मनो गामश्चं सनुयामिति । कुवित्सोमस्यापामिति ॥1॥
गौ - अश्वादि दान की इच्छा सहज ही मन में उठती है ।
मैं सदा सोम-रस पीता हूँ इससे मुझको ऊर्जा मिलती है ॥1॥
10151
प्र वाताइव दोधत उन्मा पीता अयंसत । कुवित्सोमस्यापामिति ॥2॥
पवन-देव की अति-गति भी सबको प्रोत्साहित करती है ।
मैं नित्य सोम-औषधि पीता हूँ यह मुझको प्रेरित करती है ॥2॥
10152
उन्मा पीता अयंसत रथमश्वा इवाशवः । कुवित्सोमस्यापामिति ॥3॥
ज्यों तीव्र - वेग गामी घोडा झट मंज़िल तक पहुँचाता है ।
वैसे ही सोम-रस पीने वाला उद्यमी सफलता पाता है ॥3॥
10153
उप मा मतिरस्थित वाश्रा पुत्रमिव प्रियम्। कुवित्सोमस्यापामिति॥4॥
जैसे रंभाती गौ अपने बछडे के पास चली जाती है ।
वैसे ही हर दिव्य-भावना मुझ तक निःशब्द चली आती है॥4॥
10154
अहं तष्टेव वन्धुरं पर्यचामि हृदा मतिम् । कुवित्सोमस्यापामिति ॥5॥
रथ में सारथी-जगह होती है यह बहुत महत्व-पूर्ण होती है ।
मन-मति एक-दूजे की पूरक मन-मति की द्युति होती है ॥5॥
10155
नहि मे अक्षिपच्चनाच्छान्त्सुःपञ्च कृष्टयः।कुवित्सोमस्यापामिति॥6॥
चर-अचर सभी को देखता हूँ दृष्टि से बाहर कुछ भी नहीं है ।
मैं सदा सोम-रस पीता हूँ सब पर मेरा ही नियंत्रण है ॥6॥
10156
नहि मे रोदसी उभे अन्य पक्षं चन प्रति । कुवित्सोमस्यापामिति ॥7॥
अवनि-अंतरिक्ष दोनों के बल की तुलना में मैं ही भारी हूँ ।
मैं सदा सोम-रस पीता हूँ मैं तो निर्मल शाकाहारी हूँ॥7॥
10157
अभि द्यां महिना भुवमभी3मां पृथिवीं महीम्। कुवित्सोमस्यापामिति॥8॥
आत्म-देव की महिमा अद्भुत अभिभूत अवनि को करता हूँ ।
मैं सदा सोम - रस पीता हूँ मैं कल्प - वृक्ष संग रहता हूँ ॥8॥
10158
हन्ताहं पृथिवीमिमां नि दधानीह वेह वा। कुवित्सोमस्यापामिति ॥9॥
मैं आत्म - देव हूँ अति-समर्थ असंभव - संभव कर सकता हूँ ।
मैं सदा सोम - रस पीता हूँ नित-नित शुभ-चिंतन करता हूँ॥9॥
10159
ओषमित्पृथिवीमहं जङ्घनानीह वेह वा। कुवित्सोमस्यापामिति॥10॥
देव - अंश मैं आत्म - देव हूँ सामर्थ्य अत्यधिक रखता हूँ ।
सब कुछ करने में समर्थ हूँ सोम-रस-पान सदा करता हूँ॥10॥
10160
दिवि मे अन्यः पक्षो3धो अन्यमचीकृषम्। कुवित्सोमस्यापामिति॥11॥
मैं अंतरिक्ष पर और धरती पर एक साथ रह सकता हूँ ।
कहीं भी आ और जा सकता हूँ सोम-रस-पान सदा करता हूँ ॥11॥
10161
अहमस्मि महामहोSभिनभ्यमुदीषितः। कुवित्सोमस्यापामिति॥12॥
अंतरिक्ष सम उदित सूर्य - सम उज्ज्वल-आभा लेकर जीता हूँ ।
कल्प-तरु संग-संग रहता हूँ मैं नित्य सोम का रस पीता हूँ॥12॥
10162
गृहो याम्यरङ्कृतो देवेभ्यो हव्यवाहनः । कुवित्सोमस्यापामिति॥13॥
हवि - वहन भी मैं ही करता हूँ हवि ग्रहण भी मैं ही करता हूँ ।
मैं ही सब व्यवहार निभाता सोम - रस-पान सदा करता हूँ॥13॥
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ReplyDeleteसोम को गिलोय कहा जाना पहली बार सुना -लोगों ने अपने अपने सोम ढूंढ रखे हैं -कोई इसे खुम्बी ,कोई कैक्टस की एक प्रजाति,कोई कोई तो गन्ने के रस को भी सोम कह देते हैं -मुझे लगता है आपको इस विवाद में न पड़कर अनुवाद में सोम लिखना चाहिए !
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