Wednesday, 13 November 2013

सूक्त - 124

[ऋषि- अग्नि-वरुण-सोम । देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप- जगती ।]

10198
इमं   नो  अग्न  उप  यज्ञमेहि   पञ्चयामं  त्रिवृतं सप्ततन्तुम् ।
असो  हव्यवाळुत  नः पुरोगा ज्योगेव  दीर्घं तम आशयिष्ठा:॥1॥

हे  अग्नि  तुम्हीं  हवि  के  वाहक  हो  करते  हैं  हम  आवाहन ।
मन  में   है  जो  घना  अँधेरा  देना  प्रकाश  पावक - पावन ॥1॥

10199
अदेवाद्देवः    प्रचता   गुहा   यन्प्रपश्यमानो    अमृतत्वमेमि ।
शिवं यत्सन्तमशिवो जहामि स्वात्सख्यादरणीं नाभिमेमि॥2॥

जब तक हवि वहन नहीं करते हो वस्तु-मात्र हो तुम अदेव हो ।
पर  जब  हविष्यान्न  लेते  हो  तुम  देवत्व  प्राप्त  करते हो ॥2॥

10200
पश्यन्नन्यस्या अतिथिं वयाया ऋतस्य धाम वि मिमे पुरुणि।
शंसामि   पित्रे   असुराय   शेवमयज्ञियाद्यज्ञियं   भागमेमि ॥3॥

मैं अग्नि हर ऋतु में यज्ञ हेतु उपयुक्त जगह निश्चित करता हूँ ।
सद्-गति के लिए ही पूर्वज के मैं स्तुति को सस्वर पढता हूँ॥3॥

10201
बह्वीः  समा अकरमन्तरस्मिन्निन्द्रं  वृणानः  पितरं  जहामि ।
अग्निः सोमो वरुणस्ते च्यवन्ते  पर्यावर्द्राष्ट्रं तदवाम्यायन् ॥4॥

अपना  अरण्य  तज  देता  हूँ  मैं  यज्ञ-भूमि  में  बस  जाता हूँ ।
जब सोम वायु थक जाते हैं  तब उन्हें सुरक्षित ले आता हूँ ॥4॥ 

10202
निर्माया  उ त्ये  असुरा  अभूवन्त्वं  च  मा  वरुण  कामयासे ।
ऋतेन   राजन्ननृतं   विविञ्चन्मम   राष्ट्रस्याधपत्यमेहि ॥5॥

असुर  भी  तज  देते  हैं  माया  यज्ञ- कुण्ड  में मुझे  देखकर ।
हे वरुण राज्य-सिंहासन पर तुम  बैठो  सत का व्रत लेकर ॥5॥

10203
इदं     स्वरिदमिदास     वाममयं    प्रकाश    उर्व1न्तरिक्षम्  ।
हनाव  वृत्रं  निरेहि  सोम  हविष्ट्वा  सन्तं  हविषा यजाम ॥6॥

हे सोम स्वर्ग सुन्दर है अतिशय अन्तरिक्ष भी ज्योति-पुञ्ज है।
हम  देव-रूप  में  तुम्हें देखते हवि ले लो आनन्द-कुञ्ज है ॥6॥

10204
कविः कवित्वा  दिवि  रूपमासजदप्रभूती  वरुणो  निरपः  सृजत् ।
क्षेमं कृण्वाना जनयो न सिन्धवस्ता अस्य वर्णं शुचयो भरिभ्रति॥7॥

यह सूर्यलोक तो दिव्य - लोक  है वरुण  मेघ  में जल  भरते हैं ।
जल से नदी प्रवाहित होती जिससे अनगिन प्राणी पलते हैं ॥7॥

10205
ता अस्य ज्येष्ठमिन्द्रियं सचन्ते ता ईमा क्षेति स्वधया मदन्ती:।
ता  ईं  विशो  न राजानं वृणाना वीभत्सुवो अप वृत्रादतिष्ठन् ॥8॥ 

जैसे   भयभीत   प्रजा   अपने   राजा   का   आश्रय   लेती   है ।
वैसे  हे  जल  की  धारा  भी  जल-देव  का आश्रय  ले लेती है ॥8॥

10206
वीभत्सूनां   सयुजं   हंसमाहुरपां  दिव्यानां   सख्ये   चरन्तम्  ।
अनुष्टुभमनु  चर्चूर्य  माणमिन्द्रं  नि चिक्युः कवयो  मनीषा ॥9॥

भयभीत  नीर  के मित्र - मित्र  हैं  सूर्य  सतत  स्तवन योग्य है ।
अनुष्टुप-जगती युक्त -यज्ञ को कवि-मन कहता है प्रणम्य है ॥9॥    
 

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