Thursday 7 November 2013

सूक्त - 130

[ऋषि- यज्ञ प्राजापत्य । देवता- भाववृत्त । छन्द- त्रिष्टुप-जगती ।]

10247
यो  यज्ञो  विश्वतस्तन्तुभिस्तत  एकशतं  देवकर्मेभिरायतः ।
इमे  वयन्ति पितरो य आययुः प्र वयाप  वयेत्यासते तते ॥1॥

सृष्टि  यज्ञ  में  पितर  हमारे  पञ्च - तत्व  वस्त्र  बुनते  हैं ।
विविध-विधा से विविध वस्तुयें क्षण-क्षण निर्मित करते हैं॥1॥

10248
पुमॉं एनं तनुत उत्कृणत्ति पुमान्वि  तत्ने अधि नाके अस्मिन् ।
इमे  मयूखा उप  सेदुरू  सदः सामानि चक्रस्तसराण्योतवे ॥2॥

विधि  सर्जक  पोषक  संहारक  नित-प्रति  करते  हैं  विस्तार ।
विविध  रूप  में  सुख  के  साधन  जुडते  रहते  हैं  हर बार ॥2॥

10249
कासीत्प्रमा प्रतिमा किं निदानमाज्यं किमासीत्परिधि: क आसीत्।
छन्दः  किमासीत्प्रउगं  किमुक्थं  यद्देवा   देवमयजन्त   विश्वे ॥3॥

जब देव - शक्ति ने यज्ञ किया तब उनकी क्या- क्या सीमा थी ।
भाव और छन्द क्या-क्या थे प्रमाण और प्रतिमा क्या-क्या थी॥3॥

10250
अग्नेर्गायत्र्यभवत्सयुग्वोष्णिहया      सविता     सं     बभूव ।
अनुष्टुभा   सोम   उक्थैर्महस्वांबृहस्पतेर्बृहती   वाचमावत् ॥4॥
 
इन   यज्ञ - देव  और  मंत्रों  का  सम्बन्ध छन्द  से  होता  है ।
अग्नि  के आश्रय  में अनुष्टुप और बृहती छन्द भी होता है ॥4॥

10251
विराण्मित्रावरुणयोरभिश्रीरिन्द्रस्य त्रिष्टुभिह भागो अन्हः ।
विश्वांदेवाञ्जगत्या विवेश तेन चाक्लृप्र ऋषयो मनुष्या: ॥5॥

विराट- छन्द आदित्य - वरुण का  विश्वदेव जगती के अर्थ ।
इन्द्र  सहायक हैं  त्रिष्टुप के इस तरह बन गए सब समर्थ ॥5॥

10252
चाक्लृप्रे  तेन  ऋषयो  मनुष्या  यज्ञे  जाते पितरो नः पुराणे ।
पश्यन्मन्ये मनसा चक्षसा तान् य इमं यज्ञमयजन्त पूर्वे ॥6॥

सृष्टि - यज्ञ  के  प्रथम - पुरोधा  हमारे  पूर्वज  ऋषि  ही  थे ।
जिसने  परम्परा  निर्मित  की  वे  तो  अपने  ही  पुरखे थे ॥6॥

10253
सहस्तोमा: सहछन्दस  आवृत्तः सहप्रमा  ऋषयः सप्त  दैव्या: ।
पूर्वेषां पन्थामनुदृश्य धीरा अन्वालेभिरे रथ्यो3 न रश्मीन् ॥7॥

धीर - वीर और दिव्य ऋषि ने छन्दों को फिर संग्रहित किया ।
ऋषियों ने पुरखों की थाती को तब परम्परा से जोड दिया ॥7॥

 

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