[ऋषि- यज्ञ प्राजापत्य । देवता- भाववृत्त । छन्द- त्रिष्टुप-जगती ।]
10247
यो यज्ञो विश्वतस्तन्तुभिस्तत एकशतं देवकर्मेभिरायतः ।
इमे वयन्ति पितरो य आययुः प्र वयाप वयेत्यासते तते ॥1॥
सृष्टि यज्ञ में पितर हमारे पञ्च - तत्व वस्त्र बुनते हैं ।
विविध-विधा से विविध वस्तुयें क्षण-क्षण निर्मित करते हैं॥1॥
10248
पुमॉं एनं तनुत उत्कृणत्ति पुमान्वि तत्ने अधि नाके अस्मिन् ।
इमे मयूखा उप सेदुरू सदः सामानि चक्रस्तसराण्योतवे ॥2॥
विधि सर्जक पोषक संहारक नित-प्रति करते हैं विस्तार ।
विविध रूप में सुख के साधन जुडते रहते हैं हर बार ॥2॥
10249
कासीत्प्रमा प्रतिमा किं निदानमाज्यं किमासीत्परिधि: क आसीत्।
छन्दः किमासीत्प्रउगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वे ॥3॥
जब देव - शक्ति ने यज्ञ किया तब उनकी क्या- क्या सीमा थी ।
भाव और छन्द क्या-क्या थे प्रमाण और प्रतिमा क्या-क्या थी॥3॥
10250
अग्नेर्गायत्र्यभवत्सयुग्वोष्णिहया सविता सं बभूव ।
अनुष्टुभा सोम उक्थैर्महस्वांबृहस्पतेर्बृहती वाचमावत् ॥4॥
इन यज्ञ - देव और मंत्रों का सम्बन्ध छन्द से होता है ।
अग्नि के आश्रय में अनुष्टुप और बृहती छन्द भी होता है ॥4॥
10251
विराण्मित्रावरुणयोरभिश्रीरिन्द्रस्य त्रिष्टुभिह भागो अन्हः ।
विश्वांदेवाञ्जगत्या विवेश तेन चाक्लृप्र ऋषयो मनुष्या: ॥5॥
विराट- छन्द आदित्य - वरुण का विश्वदेव जगती के अर्थ ।
इन्द्र सहायक हैं त्रिष्टुप के इस तरह बन गए सब समर्थ ॥5॥
10252
चाक्लृप्रे तेन ऋषयो मनुष्या यज्ञे जाते पितरो नः पुराणे ।
पश्यन्मन्ये मनसा चक्षसा तान् य इमं यज्ञमयजन्त पूर्वे ॥6॥
सृष्टि - यज्ञ के प्रथम - पुरोधा हमारे पूर्वज ऋषि ही थे ।
जिसने परम्परा निर्मित की वे तो अपने ही पुरखे थे ॥6॥
10253
सहस्तोमा: सहछन्दस आवृत्तः सहप्रमा ऋषयः सप्त दैव्या: ।
पूर्वेषां पन्थामनुदृश्य धीरा अन्वालेभिरे रथ्यो3 न रश्मीन् ॥7॥
धीर - वीर और दिव्य ऋषि ने छन्दों को फिर संग्रहित किया ।
ऋषियों ने पुरखों की थाती को तब परम्परा से जोड दिया ॥7॥
10247
यो यज्ञो विश्वतस्तन्तुभिस्तत एकशतं देवकर्मेभिरायतः ।
इमे वयन्ति पितरो य आययुः प्र वयाप वयेत्यासते तते ॥1॥
सृष्टि यज्ञ में पितर हमारे पञ्च - तत्व वस्त्र बुनते हैं ।
विविध-विधा से विविध वस्तुयें क्षण-क्षण निर्मित करते हैं॥1॥
10248
पुमॉं एनं तनुत उत्कृणत्ति पुमान्वि तत्ने अधि नाके अस्मिन् ।
इमे मयूखा उप सेदुरू सदः सामानि चक्रस्तसराण्योतवे ॥2॥
विधि सर्जक पोषक संहारक नित-प्रति करते हैं विस्तार ।
विविध रूप में सुख के साधन जुडते रहते हैं हर बार ॥2॥
10249
कासीत्प्रमा प्रतिमा किं निदानमाज्यं किमासीत्परिधि: क आसीत्।
छन्दः किमासीत्प्रउगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वे ॥3॥
जब देव - शक्ति ने यज्ञ किया तब उनकी क्या- क्या सीमा थी ।
भाव और छन्द क्या-क्या थे प्रमाण और प्रतिमा क्या-क्या थी॥3॥
10250
अग्नेर्गायत्र्यभवत्सयुग्वोष्णिहया सविता सं बभूव ।
अनुष्टुभा सोम उक्थैर्महस्वांबृहस्पतेर्बृहती वाचमावत् ॥4॥
इन यज्ञ - देव और मंत्रों का सम्बन्ध छन्द से होता है ।
अग्नि के आश्रय में अनुष्टुप और बृहती छन्द भी होता है ॥4॥
10251
विराण्मित्रावरुणयोरभिश्रीरिन्द्रस्य त्रिष्टुभिह भागो अन्हः ।
विश्वांदेवाञ्जगत्या विवेश तेन चाक्लृप्र ऋषयो मनुष्या: ॥5॥
विराट- छन्द आदित्य - वरुण का विश्वदेव जगती के अर्थ ।
इन्द्र सहायक हैं त्रिष्टुप के इस तरह बन गए सब समर्थ ॥5॥
10252
चाक्लृप्रे तेन ऋषयो मनुष्या यज्ञे जाते पितरो नः पुराणे ।
पश्यन्मन्ये मनसा चक्षसा तान् य इमं यज्ञमयजन्त पूर्वे ॥6॥
सृष्टि - यज्ञ के प्रथम - पुरोधा हमारे पूर्वज ऋषि ही थे ।
जिसने परम्परा निर्मित की वे तो अपने ही पुरखे थे ॥6॥
10253
सहस्तोमा: सहछन्दस आवृत्तः सहप्रमा ऋषयः सप्त दैव्या: ।
पूर्वेषां पन्थामनुदृश्य धीरा अन्वालेभिरे रथ्यो3 न रश्मीन् ॥7॥
धीर - वीर और दिव्य ऋषि ने छन्दों को फिर संग्रहित किया ।
ऋषियों ने पुरखों की थाती को तब परम्परा से जोड दिया ॥7॥
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