Thursday 28 November 2013

सूक्त - 108

[ऋषि- असुर-समूह । ऋषिका- सरमा देवशुनी । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10045
किमिच्छन्ती  सरमा   प्रेदमानङ्  दूरे   ह्यध्वा  जगुरिः  पराचैः ।
कास्मेहितिः का परितक्म्यासीत्कथं रसाया अतरः पयांसि॥1॥

मेघ  पूछते  हैं  वाणी  से  इस  दुर्गम  में  तुम  कैसे  आई  हो ।
हमसे  क्या  है  सम्बन्ध तेरा किस ध्येय से यहॉं पधारी हो॥1॥

10046
इन्द्रस्य  दूतीरिषिता  चरामि मह इच्छन्ती पणयो निधीन्वः ।
अतिष्कदो  भियसा  तन्न  आवत्तथा रसाया अतरं पयांसि॥2॥

मैं  सूरज  की  संवदिया हूँ रवि -किरणों  के  सँग- सँग आई हूँ ।
जल - देव  मेरी  रक्षा  करते  हैं  सबका  हित करने आई हूँ ॥2॥

10047
कीदृङ्डिन्द्र  सरमे  का  दृशीका  यस्येदं  दूतीरसरः  पराकात् ।
आ च  गच्छान्मित्रमेना दधामाथा गवां गोपतिर्नो भवाति ॥3॥

वे आदित्य-देव क्या  करते  हैं  जिनकी  सन्देश - वाहिका हो ।
आओ हम अभिनन्दन करते हैं अब तुम हमारी  कनिष्ठा हो॥3॥

10048
नाहं   तं   वेद   दभ्यं   दभत्स   यस्येदं   दूतीरसरं   पराकात् ।
न  तं  गूहन्ति स्त्रवतो गभीरा  हता इन्द्रेण पणयः शयध्वे ॥4॥

मेरा  स्वामी  अति  बलशाली  उसे  कोई  नहीं  हरा  सकता ।
वह तो है तुम सब पर भारी वह कभी किसी से नहीं डरता ॥4॥

10049
इमा गावः सरमे या ऐच्छः परि दिवो अन्तान्त्सुभगे पतन्ती ।
कस्त एना अव सृजादयुध्व्युतास्माकमायुधा सन्ति तिग्मा॥5॥

तुम  इस  दुर्गम  में  आकर  भी  जन-हित  की  बातें  करती हो ।
अस्त्र - शस्त्र  हैं  पास  हमारे  आयुध  से  क्या  तुम डरती हो ॥5॥

10050
असेन्या   वः   पणयो   वचांस्यनिषव्यास्तन्वः  सन्तु   पापीः ।
अधृष्टो  व  एतवा  अस्तु  पन्था बृहस्पतिर्व उभया न मृळात्॥6॥

तुम  सब   बडे   स्वार्थी   हो  परमारथ   को  तुम   क्या   जानो ।
सूर्य - देव  में  अतुलित  बल है उनकी महिमा  को पहचानो ॥6॥

10051
अयं     निधिः   सरमे   अद्रिबुध्नो    गोभिरश्वेभिर्वसुभिर्न्यृष्टः ।
रक्षन्ति  तं  पणयो  ये   सुगोपा  रेकु  पदमलकमा  जगन्थ ॥7॥

हम  सब  भले  असुर  हैं  पर  हम धीर - वीर अति उत्साही हैं ।
तुम व्यर्थ यहॉं तक आई हो हम सब आपस में भाई-भाई हैं॥7॥

10052
एह  गमन्नृषयः  सोमशिता  अयास्यो  अङ्गिरसो  नवग्वा: ।
त एतमूर्वं  वि  भजन्त  गोनामथैतद्वचः पणयो  वमन्नित् ॥8॥

तुम  सब   मुझे तुच्छ  न  समझो  मैं  भी  हूँ  अति  बलशाली ।
दिखने  में  अति  कोमल  हूँ पर मत समझो भोली - भाली ॥8॥

10053
एवा   च   त्वं  सरम  आजगन्थ   प्रबाधिता   सहसा   दैव्येन ।
स्वसारं त्वा कृणवै मा पुनर्गा अप  ते  गवां  सुभगे भजाम ॥9॥

सुभगे  तुम  हो  बहन  हमारी  मत  जाओ  अब  उनके  पास ।
तुम जो चाहोगी  हम  वह  देंगे  यहीं  रहने का करो प्रयास ॥9॥

10054
नाहं  वेद  भ्रातृत्वं नो स्वसृत्य मिन्द्रो विदुरङ्गिरसश्च घोरा: ।
गोकामा  मे  अच्छदयन्यदायमपात  इत पणयो वरीयः ॥10॥

मैं  सम्बन्धों  से  भी  ऊपर  हूँ  उपकार  सभी  का  करती  हूँ ।
तुम भी सत्पथ पर आ जाओ बस बात यही मैं कहती हूँ ॥10॥

10055
दूरमित      पणयो      वरीय      उद्रावो      यन्तु      मिनतीरृतेन ।
बृहस्पतिर्या अविन्दन्निगूळहा:सोमो ग्रावाण ऋ ऋषयश्च विप्रा:॥11॥

अब  तुम  सब  मेरी  बात  सुनो  यह  जगह  छोड  दो  मान  लो हार ।
सबके   हित   में   अपना   हित   है  करते  रहना  पर - उपकार ॥11॥
 

           
  

3 comments:

  1. मेघ पूछते हैं वाणी से इस दुर्गम में तुम कैसे आई हो ।
    हमसे क्या है सम्बन्ध तेरा किस ध्येय से यहॉं पधारी हो॥1॥

    सुंदर कथात्मक वर्णन...

    ReplyDelete
  2. प्रश्न की कडी संग सुक्ति अद्भभूत

    ReplyDelete