Friday 22 November 2013

सूक्त - 114

[ऋषि- धर्म-तापस । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- त्रिष्टुप-जगती ।]

10104
घर्मा  समन्ता  त्रिवृतं  व्यापतुष्टयोर्जुष्टिं  मातरिश्वा जगाम ।
दिवस्पयो दिधिषाणा अवेषन्विदुर्देवा: सहसामानमर्कम्॥1॥

हे अग्नि - देव आदित्य - देव आलोक प्रदान तुम्हीं करते हो ।
पवन-देव की प्रसन्नता से नभ में जल की रचना रचते हो॥1॥

10105
तिस्त्रो देष्ट्राय निरृतीरुपासते  दीर्घश्रुतो वि हि जानन्तिवह्नयः ।
तासां  नि  चिक्युः कवयो निदानं  परेषु  या  गुह्येषु  व्रतेषु ॥2॥

आदित्य अनल अनिल सभी को हविष्यान्न अर्पित करते हैं ।
अग्नि-देव हैं बडे  यशस्वी  हम  सब उन्हें  नमन करते हैं ॥2॥

10106
चतुष्कपर्दा   युवतिः  सुपेशा   घृतप्रतीका   वयुनानि  वस्ते ।
तस्यां  सुपर्णा वृषणा नि षेदतुर्यत्र देवा  दधिरे भागधेयम्॥3॥

यज्ञ- वेदिका  चतुष्कोण  है  अल्पना-सजी सुन्दर लगती है ।
उस यज्ञ- कुण्ड में देव-शक्ति हविषा- भोग ग्रहण करती है॥3॥

10107
एकः सुपर्णः स समुद्रमा विवेष स इदं विश्वं भुवनं वि चष्टे ।
तं पाकेन मनसापश्यमन्तितस्तं माता रेळिह स उ रेळिह मातरम्॥4॥

प्राण - रूप इस प्राण - वायु की उपासना प्रतिदिन करते हैं ।
प्राण और  मध्यमा  परस्पर विचार - विनिमय करते हैं॥4॥

10108
सुपर्णं  विप्रा:  कवयो  वचोभिरेकं  सन्तं  बहुधा  कल्पयन्ति ।
छन्दांसि च दधतो अध्वरेषु ग्रहान्त्सोमस्य मिमते द्वादश॥5॥ 

ब्रह्म  एक  है  फिर  भी उसे हम  विविध नाम आकृति देते हैं ।
सप्त - छन्द  से यज्ञ  सुसज्जित सोम-पात्र  द्वादश लेते हैं ॥5॥

10109
षट्त्रिंशॉंश्च चतुरः कल्पयन्तश्छन्दांसि च दधत आद्वादशम् ।
यज्ञं विमाय कवयो मनीष ऋक्सामाभ्यां प्र रथं वर्तयन्ति॥6॥

चालीस  सोम - पात्र  होते  हैं  छन्दों  के  हैं  बारह - प्रकार ।
विधि -विधान से अनुष्ठान कर यज्ञ - रथ पाता है आकार ॥6॥

10110
चतुर्दशान्ये  महिमानो अस्य तं धीरा वाचा प्र णयन्ति सप्त ।
आप्नानं  तीर्थं क इह  प्र वोचद्येन पथा प्रपिबन्ते सुतस्य ॥7॥

यज्ञ - देव  की  महिमा  अद्भुत  यह  वेद - मंत्र का है स्थान ।
अनिवर्चनीय  है वेद- मार्ग जहॉ देव भी करते सोम-पान ॥7॥

10111
सहस्त्रधा  पञ्चदशान्युक्था  यावद्  द्यावापृथिवी  तावदित्तत् ।
सहस्त्रधा महिमानः सहस्त्रं यावद् ब्रह्म विष्ठितं तावती वाक्॥8॥

ऋचा  हजारों  फिर  भी  वैदिक  सूक्तों  की अकथ  कहानी  है ।
यह  विराट  है  यह  व्यापक  है ऐसी अनन्त वेद - वाणी है॥8॥

10112
कश्छन्दसां योगमा वेद  धीरः  को  धिष्ण्यां  प्रति  वाचं  पपाद ।
कमृत्विजामष्टमं शूरमाहुर्हरी इन्द्रस्य नि चिकाय कः स्वित्॥9॥

कौन  छन्द  की  गरिमा  जाने  कौन  सी  यज्ञ - विधा को माने ।
कौन  है  होता  प्रमुख  कौन  है  कैसे  कह  दें  बिन  पहचानें ॥9॥

10113
भूम्या  अन्तं  पर्येके  चरन्ति  रथस्य  धूर्षु  युक्तासो  अस्थुः ।
श्रमस्य दायं वि भजन्त्येभ्यो यदा यमो भवति हर्म्ये हितः॥10॥

प्रभु  की  महिमा  नेति - नेति  है  कौन  उसे  कह  सकता  है ।
जो  जाना  वह  मौन  हो  गया  जो  न  जाना  चुप रहता है ॥10॥       
 

1 comment:

  1. ऋचा हजारों फिर भी वैदिक सूक्तों की अकथ कहानी है ।
    यह विराट है यह व्यापक है ऐसी अनन्त वेद - वाणी है॥8॥

    वाकई अद्भुत है वेद वाणी ! आभार उसे हमें पढ़वाने के लिए..

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