Tuesday 5 November 2013

सूक्त - 134

[ऋषि- मान्धाता यौवनाश्व, गोधा ऋषिका । देवता- इन्द्र । छन्द- पङ्क्ति ।]

10275
उभे यदिन्द्र रोदसी आपप्राथोषाइव । महान्तं त्वा महीनां सम्राजं चर्षणीनां 
देवी जनित्र्यजीजनद् भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥1॥

उषा  सदृश  द्युलोक - धरा  को  बडी  लगन  से  वह  गढती  है ।
परा-प्रकृति ही जग-जननी है सबका पालन-पोषण करती है॥1॥

10276
अव स्म दुर्हणायतो मर्तस्य तनुहि स्थिरम् । अधस्पदं तमीं कृधि यो अस्मां
आदिदेशति देवी जनित्र्यजीजनभ्दद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥2॥

ईर्ष्या - द्वेष   से   हमें   बचाओ   हमें  सतत  सर्वज्ञ  बनाओ ।
दुष्ट-दलन अति-आवश्यक है सज्जन के रक्षक बन जाओ॥2॥

10277
अव त्या बृहतीरिषो विश्वश्चन्द्रा अमित्रहन् । शचीभिः शक्र धूनुहीन्द्र
विश्वाभिरूतिभि र्देवी जनित्र्यजीजनद् भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥3॥

हे   इन्द्र - देव   हे   शक्तिमान   तुम   रक्षा   करना   सदा  हमारी ।
तुम  अन्न- सम्पदा लेकर आना स्तुति करते हैं सदा तुम्हारी ॥3॥

10278
अव यत्त्वं शतक्रतविन्द्र विश्वानि धूनुषे । रयिं न सुन्वते सचा
सहस्त्रिणीभिरूतिभि र्देवी जनित्र्यजीजनद् भद्रा जनित्र्यजीजनत्॥4॥

ध्यान  सदा  रखते  हो  सबका  जन - हित  करते  ही  रहते  हो ।
धन  और  धान  हमें  दो  प्रभुवर  तुम  ही  सबकी  रक्षा करते हो ॥4॥

10279
अव स्वेदाइवाभितो विष्वकपतन्तु दिद्यवः । दूर्वायाइव तन्तवो व्य1स्मदेतु
दुर्मति र्देवी जनित्र्यजीजनद् भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥5॥

दशों - दिशायें   रहें  सुरक्षित  देश -  भूमि  की  करो  सुरक्षा ।
सबका हित ही मेरा हित हो तुम ही करना हम सबकी रक्षा ॥5॥

10280
दीर्घं ह्यङ्कुशं यथा शक्तिं बिभर्षि मन्तुमः। पूर्वेण मघवन्पदाजो वयां यथा यमो
देवी जनित्र्यजीजनद् भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥6॥

तुम  समर्थ  हो  बल - शाली  हो  सबके  पालक - पोषक  तुम  हो ।
जन-कल्याण सतत करते हो तुम ज्ञानवान हो तुम महान हो ॥6॥ 

10281
नकिर्देवा मिनीमसि नकिरा योपयामसि मन्त्रश्रुत्यं चरामसि ।
पक्षेभिरपिकक्षेभिरत्राभि सं रभामहे ॥7॥

सत्कर्म  सदा  ही  हम  करते  हैं  दुष्कर्मों  से  बचते  रहते  हैं ।
अहित कभी भी किसी का न हो शुभ-शुभ चिंतन हम करते हैं ॥7॥    

1 comment:

  1. कितनी प्यारी बातें लिखी हैं वेदों में..काश आज भी हम ऐसे ही सरल होते..

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