Saturday, 31 May 2014

सूक्त - 18

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7846
परि सुवानो गिरिष्ठा: पवित्रे सोमो अक्षा:। मदेषु सर्वधा असि॥1॥

सर्व  व्याप्त है वह परमात्मा विद्युत में भी  वह  विद्यमान  है ।
हर  वैभव  में  वही समाया दीप  में  वही  प्रवाहमान  है ॥1॥

7847
त्वं विप्रस्त्वं कविर्मधु प्र जातमन्धसः। मदेषु सर्वधा असि॥2॥

अद्भुत  बल  है  परमात्मा में विविध - रसों की वह मिठास है ।
उसे  ढूढने  दूर  न  जाओ  वह  तो  अपने  आस - पास  है ॥2॥

7848
तव विश्वे सजोषसो देवासः पीतिमाशत । मदेषु सर्वधा अधि॥3॥

आनन्द - रूप है वह परमात्मा विज्ञानी - जन उनको पाते  हैं ।
बिना ज्ञान के भोग कठिन है विद्वत् - जन यह समझाते हैं॥3॥

7849
आ यो विश्वानि वार्या वसूनि हस्तयोर्दधे । मदेषु सर्वधा अधि॥4॥

पात्रानुसार ही वह परमात्मा विभूति - दान  सब  को  देता  है ।
जिसको सुख की आकांक्षा है उसको  प्रभु अपना  लेता  है ॥4॥

7850
य  इमे  रोदसी  मही  सं  मातरेव  दोहते । मदेषु सर्वधा अधि ॥5॥

धरा - गगन हैं मात - पिता सम विविध - विधा में भरा है भोग ।
सबको मिले इसी चिन्तन से जितना चाहो कर लो उपयोग ॥5॥

7851
परि यो रोदसी उभे सद्यो वाजेभिरर्षति । मदेषु सर्वधा अधि ॥6॥

कण - कण में वैभव भरा हुआ है होना है इस पर परि- शोध ।
धरा - गगन हैं केन्द्र प्रकृति के हम सबको होता है बोध ॥6॥

7852
स शुष्मी कलशेष्वा पुनानो अचिक्रदत् । मदेषु  सर्वधा असि॥7॥

परमात्मा  ही  शब्द - ब्रह्म  है  पर  वह  शब्दों  में  नहीं  समाता ।
वह नेति - नेति से परिभाषित मात्र - भाव से वह मिल जाता॥7॥

Friday, 30 May 2014

सूक्त - 19

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7853
यत्सोम चित्रमुक्थ्यं दिव्यं पार्थिवं वसु । तन्नः पुनान आ भर॥1॥

हे पूजनीय पावन परमेश्वर यश - वैभव का सब को  दो दान ।
हीरे - पन्नों से भरी है धरती अन्वेषण - गुण करो प्रदान॥1॥

7854
युवं हि स्थःस्वर्पती इन्द्रश्च सोम गोपती।ईशाना पिप्यतं धियः॥2॥

गुरुजन से उत्तम - विद्या सीखो पूरी - पीढी को सिखलाते हैं ।
उन  से वाणी का वैभव जानो परा - अपरा समझाते  हैं ॥2॥

7855
वृषा पुनान आयुषु स्तनयन्नधि बर्हिषि । हरिःसन्योनिमासदत्॥3॥

मानव - मन की जो अभिलाषा है परमात्मा पूरी  करते  हैं ।
वह  ही  सबको प्रेरित करते सबकी विपदा  वे  हरते  हैं ॥3॥

7856
अवावशन्त धीतयो वृषभस्याधि रेतसि । सूनोर्वत्सस्य मातरः॥4॥

जैसे  गो- माता  बछरू  को  गो - रस  से  तंदरुस्त  करती  है ।
बस वैसी है प्रकृति हमारी आहार का ध्यान सदा रखती है॥4॥

7857
कुविद्वृषण्यन्तीभ्यः पुनानो गर्भमादधत् । या: शुक्रं दुहते पयः॥5॥

धरा - गगन अतिशय अद्भुत है कितनी  सुन्दर  है यह धरती ।
पर मानव तो सुन्दरतम है कवि की कलम हमेशा कहती ॥5॥

7858
उप शिक्षापतस्थुषो भियसमा धेहि शत्रुषु । पवमान विदा रयिम्॥6॥

सत्पथ पर हम चलें निरन्तर सब का  सुख  हो  मेरा  ध्येय ।
सज्जन का जीवन सुख - कर हो वसुन्धरा हो श्रेय - प्रेय॥6॥

7859
नि शत्रोः सोम वृष्ण्यं नि शुष्मं नि वयस्तिर । दूरे वा सतो अन्ति वा॥7॥

दुष्ट - दमन अति आवश्यक है सज्जन का तुम रखना ध्यान ।
सत्कर्मों  की  चले  श्रृँखला  वरद - हस्त  रखना भगवान ॥7॥   

सूक्त - 20

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7860
प्र कविर्देववीतयेSव्यो वारेभिरर्षति । साह्वान्विश्वाअभि स्पृधः॥1॥

जो  जैसा  चिन्तन  करता  है  परमेश्वर  देते  वैसा  ही  ज्ञान ।
वह सब का भाव समझता है  दीन बन्धु वह दया निधान॥1॥

7861
स हि ष्मा जरितृभ्य आ वाजं गोमन्तमिन्वति । पवमानःसहस्त्रिणम्॥2॥

जिस  में  जैसी प्रतिभा होती है परमात्मा प्रोत्साहित करते ।
मञ्जिल तक वे पहुँचाते हैं हाथ पकड - कर वे ले चलते ॥2॥

7862
परि विश्वानि चेतसा मृशसे पवसे मती । स नः सोम श्रवो विदः॥3॥

हे  परमात्मा  रक्षा  करना  देते  रहना  तुम  धन - धान ।
भटक न जायें राह दिखाना वर -हस्त रखना भगवान॥3॥

7863
अभ्यर्ष बृहद्यशो मघवद्भ्यो ध्रुवं रयिम् । इषं स्तोतृभ्य आ भर॥4॥

सज्जन सुख - कर जीवन पाता प्रभु रखते हैं उसका ध्यान ।
यश - वैभव  वह  ही  पाता  है  सबका रक्षक है भगवान ॥4॥

7864
त्वं राजेव सुव्रतो गिरः सोमा विवेशिथ । पुनानो वह्ने अद्भुत॥5॥

नीति - नेम निर्धारित करता पालन करने  का  देता  बल ।
सबका कल्याण वही करता है कर्मानुसार देता है फल ॥5॥

7865
स वह्निरप्सु दुष्टरो मृज्यमानो गभस्त्योः। सोमश्चमृषु सीदति॥6॥

यद्यपि  प्रभु  सर्वत्र  व्याप्त  है  पर  भाव  के  भूखे हैं भगवान ।
सत्व - भाव में सदा उपस्थित रहते हैं वह कृपा- निधान॥6॥

7866
क्रीळुर्मखो न मंहयुः पवित्रं सोम गच्छसि। दधत्स्तोत्रे सुवीर्यम्॥7॥
 
अति विचित्र है जग की रचना नहीं  है  इसका कोई किनारा ।
मन ही उस तक पहुँचाता है मन कभी किसी से कब हारा॥7॥

 

Thursday, 29 May 2014

सूक्त - 21

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7867
एते धावन्तीन्दवः सोमा इन्द्राय घृष्वयः। मत्सरासः स्वर्विदः॥1॥

स्वयं - प्रकाश  है  वह  परमात्मा  वह  ही आलोक - प्रदाता  है ।
सर्वत्र  व्याप्त  है  वह  परमेश्वर  वह   ही पिता वही माता  है ॥1॥

7868
प्रवृण्वन्तो अभियुजः सुष्वये वरिवोविदः। स्वयं स्तोत्रे वयस्कृतः॥2॥

विविध - विधा  की  उसकी   रचना कितना  सुन्दर  है  संसार ।
प्रभु के साधक सब सुख पाते  हैं  हो  जाते भव - सागर पार॥2॥

7869
वृथा क्रीळन्त इन्दवः सधस्थमभ्येकमित् । सिन्धोरूर्मा व्यक्षरन्॥3॥

आदित्य - चन्द्र  उजियारा  लाकर  वसुधा  को  देते  आलोक ।
चन्द्रमा अचानक छिप जाता  जैसे हो कोई स्वप्न - लोक ॥3॥

7870
एते विश्वानि वार्या पवमानास आशत । हिता न सप्तयो रथे ॥4॥

अनगिन  तारे  नक्षत्र  चमकते  चलता  है  कोई कोई अचल है ।
सबकी गति अत्यन्त अद्भुत है इन्हें चलाता कौन सबल है ॥4॥

7871
आस्मिन्पिशङ्गमिन्दवो दधाता वेनमादिशे । यो अस्मभ्यमरावा॥5॥

इस आकर्षक नभ - मण्डल में भॉति - भॉति के शब्द भरे  हैं ।
यदा - कदा हम सब सुनते हैं थिरके कभी तो कभी डरे हैं ॥5॥

7872
ऋभुर्न रथ्यं नवं दधाता केतमादिशे ।शुक्रा: पवध्वमर्णसा ॥6॥

प्रभु  ने  कर्म - स्वतंत्र  बनाया पर फल  से हम  हैं  कोसों  दूर ।
नर  कर्मानुकूल फल पाता यदि आज न हीं तो कल ज़रूर ॥6॥

7873
एत उ त्ये अवीवशन्काष्ठां वाजिनो अक्रत । सतः प्रासाविषुर्मतिम्॥7॥

जो जन विधि - निषेध पर चलते उनको मिलता है आत्म - ज्ञान ।
हे  प्रभु  आनन्द -  रस  दे  देना  दया - दृष्टि  रखना  भगवान ॥7॥



 

सूक्त - 22

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7874
एते सोमास आशवो रथा इव प्र वाजिनः।सर्गा:सृष्टा अहेषत॥1॥

अनन्त - शक्ति का वह स्वामी है विद्युत - समान है उसका बल ।
सब कुछ जाना नहीं गया है चखना  है अभी निरन्तर  फल ॥1॥

7875
एते वाता इवोरवः पर्जन्यस्येव वृष्टयः। अग्नेरिव भ्रमा वृथा॥2॥

जलना पावक का स्वभाव है धरा - गगन सब हैं गति - शील ।
सबकी गति की सीमायें हैं  पैरों पर मानो ठुकी  हो  कील ॥2॥

7876
एते पूता विपश्चितः सोमासो दध्याशिरः। विद्या व्यानशुर्धियः॥3॥

अन्वेषण  होते  रहें  निरन्तर  मिलेगी  अविरल  राह  अनेक ।
परिशोध करें ज्ञानी - विज्ञानी लाभान्वित हों जन प्रत्येक॥3॥

7877
एते मृष्टा अमर्त्या: ससृवांसो न शश्रमुः। इयक्षन्तः पथो रजः॥4॥

दिव्य - ज्योति को लेकर नभ पर ग्रह- उपग्रह अविरल चलते हैं ।
सामर्थ्यानुसार अन्वेषण चलते वैज्ञानिक चिन्तन करते  हैं ॥4॥

7878
एते  पृष्ठानि  रोदसोर्विप्रयन्तो  व्यानशुः । उतेदमुत्तमं  रजः ॥5॥

परमात्मा  की  रचना  अद्भुत आकर्षण  का  अद्भुत - खेल ।
कहीं विकर्षण जादू चलता चलती रहती  है सृष्टि - रेल ॥5॥

7879
तन्तुं तन्वानमुत्तममनु प्रवत आशत । उतेदमुत्तमाय्यम्॥6॥

कण - कण में परमात्मा बसता कण- कण में उसकी रचना है ।
उसकी रचना उसका वैभव है हमको अपना जीवन गढना है॥6॥

7880
त्वं सोम पणिभ्य आ वसु गव्यानि धारयः। ततं तन्तुमचिक्रदः॥7॥

परमात्मा  का  रौद्र - रूप  ही  दुष्टों  को  दण्डित  करता  है ।
देव - असुर संग्राम यही है अहम् का घर खाली रहता है ॥7॥ 
 

Wednesday, 28 May 2014

सूक्त - 23

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7881
सोमा असृग्रमाशवो मधोर्मदस्य धारया । अभि विश्वानि काव्या॥1॥

वेद - ऋचायें अति - अद्भुत  हैं  विधि - निषेध  का  देतीं  ज्ञान ।
यह विद्या - निधान है सचमुच परमात्मा - पूरित - विज्ञान ॥1॥

7882
अनु प्रत्नास आयवः पदं नवीयो अक्रमुः। रुचे जनन्त सूर्यम् ॥2॥

विविध  शक्ति  है  परा - प्रकृति  में अन्वेषण अविरल करना  है ।
भरे - पडे हैं सुख - साधन सब बस सम्मुख लाकर रखना है ॥2॥

7883
आ पवमान नो भरार्यो अदाशुषो गयम् । कृधि प्रजावतीरिषः॥3॥

हे  परमेश्वर  विनती  सुन  लो  हम  सब  को  दैवीय - गुण  देना ।
हे  प्रभु  मेरा  मन  पावन  हो   अपने - पन  से  अपना  लेना ॥3॥

7884
अभि सोमास आयवः पवन्ते मद्यं मदम् । अभि कोशं मधुश्चुतम्॥4॥

विविध - विभूति  भरी  है  जग  में  पर यह वीरों को मिलती  है ।
अन्वेषन अति आवश्यक है नव - नूतन कलियॉ खिलती हैं ॥4॥

7885
सोमो अर्षति धर्णसिर्दधान इन्द्रियं रसम् । सुवीरो अभिशस्तिपा:॥5॥

धरा - गगन  दोनों अनुपम  हैं नित - नवीन हैं और निरन्तर ।
तुम कितने हो पात्र यहॉ पर पग - पग पाओ बढो परस्पर ॥5॥

7886
इन्द्राय सोम पवसे देवेभ्यः सधमाद्यः। इन्दो वाजं सिषाससि ॥6॥

परमात्मा  प्रोत्साहित  करता  उद्यम - पथ  पर  पहुँचाता  है ।
जितनी  है  सामर्थ्य  तुम्हारी उतना  सुख  देने आता  है ॥6॥

7887
अस्य पीत्वा मदानामिन्द्रो वृत्राण्यप्रति । जघान जघनच्च नु ॥7॥

इस  दुनियॉ  में  जितने  सुख  हैं आनन्द - सुख  सबसे  भारी  है ।
हे  प्रभु  दया - दृष्टि  तुम  रखना  देखो  अब  अपनी   बारी है ॥7॥  

सूक्त - 24

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7888
प्र सोमासो अधन्विषुः पवमानास इन्दवः। श्रीणाना अप्सु मृञ्जत्॥1॥

अनन्त  गुणों  का  वह  स्वामी  है  गुण आनन्द - दायक  होते  हैं ।
जब  प्रभु  का  चिन्तन  करते  हैं  हम आनन्द - बीज  बोते  हैं ॥1॥

7889
अभि गावो अधन्विषुरापो न प्रवता यतीः। पुनाना इन्द्रमाशत॥2॥

कर्म - मार्ग  के  पथिक  सर्वदा  प्रभु  का  करते  हैं  साक्षात्कार ।
सामर्थ्यानुरूप  फल  मिलता  प्रभु  हैं  हम  सबके  आधार  ॥2॥

7890
प्र पवमान धन्वसि सोमेन्द्राय पातवे । नृभिर्यतो वि नीयसे ॥3॥

कर्म - मार्ग और  ज्ञान - मार्ग  के  राही  को  प्रभु  से  है  प्यार ।
चरैवेति - पथ  पर  वह  चलते  प्रेम - मात्र जीवन का सार ॥3॥

7891
त्वं सोम नृमादनः पवस्व चर्षणीसहे । सस्निर्यो अनुमाद्यः॥4॥

कर्म  -  योग  की  महिमा  न्यारी  सब  कर्मानुकूल  फल  पाते ।
सत्कर्मों का फल शुभ - शुभ है दुर्जन बहुत - बहुत पछताते॥4॥

7892
इन्दो यदद्रिभिःसुतःपवित्रं परिधावसि । अरमिन्द्रस्य धाम्ने॥5॥

मनुज - देह में प्रभु रहता है पर पावन - मन है उसको प्यारा ।
योगी बहुत  भाग्य - शाली है प्रभु का है वह बडा - दुलारा ॥5॥

7893
पवस्व वृत्रहन्तमोक्थेभिरनुमाद्यः। शुचिः पावको अद्भुतः ॥6॥

परमात्मा अत्यन्त अद्भुत  है  उसकी  बनी  नहीं  परिभाषा ।
परमेश्वर आनन्द - रूप  है  वह  तो  है  भावों  की  भाषा ॥6॥

7894
शुचिः पावक उच्यते सोमः सुतस्य मध्वः। देवावीरघशंसह॥7॥

सज्जन  सदा  फूलते - फलते  दुर्जन  तितर - बितर  हो जाते ।
जैसी  करनी  वैसी  ही  भरनी  बात  पते  की  वही  बताते ॥7॥

 

Tuesday, 27 May 2014

सूक्त - 25

[ऋषि- दृळ्हच्युत आगस्त्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7895
पवस्व दक्षसाधनो देवेभ्यः पीतये हरे । मरुद्भ्यो वायवे मदः॥1॥

ज्ञान - मार्ग  के  पथिक  निरन्तर आनन्द  का  सुख  पाते  हैं ।
कर्म - मार्ग  के अनुयायी भी आनन्द - मार्ग  पर  जाते  हैं ॥1॥

7896
पवमान धिया हितो3भि योनिं कनिक्रदत् । धर्मणा वायुमा विश॥2॥

जो  जन  पावन  अन्तर्मन  से  करते  हैं  परमेश्वर  का  ध्यान ।
वे पाप - पुण्य को तज कर के करते हैं परम प्राप्ति अभियान॥2॥

7897
सं देवैः शोभते वृषा कविर्योनावधि प्रियः। वृत्रहा देववीतमः॥3॥

यद्यपि  प्रभु  सर्वत्र  व्याप्त  है  पर  पावन - मन  में  रहता  है ।
सब को आभास नहीं होता है योगी इस सुख को सहता है ॥3॥

7898
विश्वा रूपाण्याविशन्पुनानो याति हर्यतः। यत्रामृतास आसते॥4॥

कण- कण  में  वह  विद्यमान  है जड- चेतन  सब में बसता है ।
उसके होने के  कारण  ही  जग  इतना  सुन्दर  लगता  है ॥4॥

7899
अरुषो जगयन्गिरः सोमःपवत आयुषक् । इन्द्रं गच्छन्कविक्रतुः॥5॥

कर्म - मार्ग  के  द्वारा  चल - कर  हम  सब उसको पा सकते हैं ।
कर्मानुकूल ही फल मिलता है प्रभु को हम अपना सकते हैं॥5॥

7900
आ पवस्व मदिन्तम पवित्रं धारया कवे । अर्कस्य योनिमासदम्॥6॥

साधक  जब  भी  पावन - मन  से उसकी उपासना  करता  है ।
ज्ञान - आलोक वही पाता है आनन्द - सरिता में बहता है ॥6॥
 

सूक्त - 26

[ऋषि- इध्मवाह दार्ढच्युत । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7901
तममृक्षन्त वाजिनमुपस्थे अदितेरधि । विप्रासो अण्वया धिया॥1॥

समाधि  प्राप्त  कर  जिस  साधक  ने  पाया  है  प्रभु  का सामीप्य ।
वे ही सुख को परिभाषित करते जीवन पाता सुख- सान्निध्य ॥1॥

7902
तं गावो अभ्यनूषत सहस्त्रधारमक्षितम् । इन्दुं धर्तारमा दिवः॥2॥

मन  परमात्मा  को  भजता  है  परमेश्वर  ही  बनता  आधार ।
मन में आनन्द - रस बहता है आनन्द होता  है निर्विकार ॥2॥

7903
तं वेधां मेधयाह्यन्पवमानमधि द्यवि । धर्णसिं भूरिधायसम् ॥3॥

वह  पावन  पूजनीय  परमेश्वर  बन  जाता  सबका  आधार ।
अपना - पन  देता  है  सब को सदा लुटाता अपना प्यार ॥3॥

7904
तमह्यन्भूरिजोर्धिया संवसानं विवस्वतः। पतिं वाचो अदाभ्यम् ॥4॥

वेद - ऋचायें  भी  करती  हैं  उस  परमेश्वर  का  गुण - गान ।
सज्जन पूजन - अर्चन करते योगी - जन करते हैं ध्यान ॥4॥

7905
तं सानावधि जामयो हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। हर्यतं भूरिचक्षसम्॥5॥

परमेश्वर  पालक - पोषक  है  हम  सब उसकी  हैं  सन्तान ।
भक्त योग से उसको पाता वह बन जाता मनुज  महान ॥5॥

7906
तं त्वा हिन्वन्ति वेधसः पवमान गिरावृधम् । इन्दविन्द्राय मत्सरम्॥6॥

उस  प्रभु  की  महिमा  अद्भुत  है  वेद - ऋचायें  करतीं  गान ।
सज्जन  ही उनको  पाता  है  दीन - बन्धु है वह भगवान ॥6॥  

Monday, 26 May 2014

सूक्त - 27

[ऋषि- नृमेध आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7907
एष कविरभिष्टुतः पवित्रे अधि तोशते । पुनानो घ्नन्नप स्त्रिधः॥1॥

प्रभु  दुष्टों  को  दण्डित  करते  सत् - जन  का  रखते  हैं  ध्यान ।
जिनका अन्तर्मन  पावन  है उसका  है  वह  दया - निधान ॥1॥

7908
एष इन्द्राय वायवे स्वर्जित्परि षिच्यते । पवित्रे दक्षसाधनः ॥2॥

परमात्मा  पर  जब  भी  साधक  करता  है  श्रध्दा - विश्वास ।
प्रभु  उसको यश - वैभव देते   हरदम  रहते  उसके  पास ॥2॥

7909
एष नृभिर्वि नीयते दिवो मूर्धा वृषा सुतः। सोमो वनेषु विश्ववित्॥3॥

जो  भी  साधक  सहज - सरल  है  उसका  अविरल  होता उत्थान ।
कर्मानुसार सबको फल मिलता कर्मों से  बनता  मनुज  महान॥3॥

7910
एष गव्युरचिक्रदत् पवमानो हिरण्ययुः। इन्दुः सत्राजिदस्तृतः॥4॥

प्रभु  जिस  पर  प्रसन्न  होते  हैं  सत् - विद्या  का  देते  भण्डार ।
यश - वैभव  के  वे  निधान  हैं  करते  हैं  अनगिन उपकार ॥4॥

7911
एष सूर्येण हासते पवमानो अधि द्यवि । पवित्रे मत्सरो मदः॥5॥

आलोक  सभी  को  वह  देता  है  वह  है  हम  सबका  आधार ।
वह  ही आनन्द - रस  देता  है  प्रभु  है  वैभव  का आगार ॥5॥

7912
एष शुष्म्यसिष्यददन्तरिक्षे वृषा हरिः। पुनान इन्दुरिन्द्रमा॥6॥

अनन्त - बलों का वह स्वामी है कण - कण में वह ही बसता है ।
मनो - कामना  पूरी  करता  वह  सब  की  विपदा  हरता है ॥6॥  

Sunday, 25 May 2014

सूक्त - 28

[ऋषि- प्रियमेध आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7913
एष वाजी हितो नृभिर्विश्वविन्मनसस्पतिः। अव्यो वारं वि धावति॥1॥

मन  के  निरोध  से  बल  बढता  है  मन  न  भटके  रखना  है ध्यान ।
सान्निध्य आपका  पायें  भगवन  मिट  जाए  मन  का  अज्ञान ॥1॥

7914
एष पवित्रे अक्षरत् सोमो देवेभ्यः सुतः। विश्वा धामान्याविशन् ॥2॥

कण - कण  में  वह  बसा  हुआ  है  परमात्मा  आलोक - प्रदाता ।
देह - धाम  में  वह  रहता  है  सब  का  प्रेरक  वही  विधाता  ॥2॥

7915
एष   देवः  शुभायतेSधि   योनावमर्त्यः ।  वृत्रहा   देववीतमः ॥3॥

सर्व - व्याप्त है वह अविनाशी अज्ञान - तमस को वही मिटाता ।
हम  सब को प्रोत्साहित करता ज्ञानालोक वही  दिखलाता ॥3॥

7916
एष वृषा कनिक्रदद्दशभिर्जामिभिर्यतः। अभि द्रोणानि धावति॥4॥

स्थूल - सूक्ष्म दस - भूतों में वह स्थिर हो कर सचमुच रहता  है ।
चारों  ओर  वही  रहता  है  सम्वाद  सभी  से  वह  करता  है ॥4॥

7917
एष सूर्यमरोचयत् पवमानो विचर्षणिः। विश्वा धामानि विश्ववित्॥5॥

उसके प्रकाश से सभी प्रकाशित यह जग आलोक उसी से पाता ।
वह ही सब का पोषण करता है वही पिता  है  वह  ही  माता ॥5॥

7918
एष  शुष्म्यदाभ्यः सोमः पुनानो अर्षति । देवावीरघशंसहा ॥6॥

खट - रागों से मुक्त हुए बिन सत् - विचार मन  में  नहीं  रहते ।
जिसका अन्तर्मन पावन है प्रभु उसके ही   मन  में  बसते ॥6॥

सूक्त - 29

[ऋषि- नृमेध आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7919
प्रास्य धारा अक्षरन्वृष्णः सुतस्यौजसा । देवॉ अनु प्रभूषतः॥1॥

सत् - संगति  बिन  नहीं  सवेरा  हम  विद्वानों  का  संग  करें ।
विद्या से ऑचल भर - कर फिर सारी दुनियॉ  की डगर धरें॥1॥

7920
सप्तिं मृजन्ति वेधसो गृणन्तः कारवो गिरा । ज्योतिर्जज्ञानमुक्थ्यम्॥2॥

पहले  हम  निज  शक्ति बढायें विश्व - पटल पर फिर पहुँचायें ।
सबका हो कल्याण जगत में वसुधा में परिवार  को  पायें ॥2॥

7921
सुषहा सोम तानि ते पुनानाय प्रभूवसो । वर्धा समुद्रमुक्थ्यम्॥3॥

ज्ञान - मार्ग  में  आओ  समझो  अपना  ही  है  पृथ्वी   परिवार । 
कर्म - मार्ग पर चलें निरन्तर यह ही है संस्कृति का आधार ॥3॥

7922
विश्वा वसूनि सञ्जयन्पवस्व सोम धारया । इनु द्वेषांसि सध्रयक्॥4॥

राग - द्वेष  से  बचे  रहें  हम  तब  ही  मञ्जिल  होगी  आसान ।
लक्ष्य बडा ले कर चलना  है  तब  ही  होगा दायित्व - भान ॥4॥

7923
रक्षा सु नो अररुषः स्वनात्समस्य कस्य चित् । निदो यत्र मुमुच्महे॥5॥

प्रगति  चाहिए  यदि  जीवन  में  लक्ष्य  एक  निर्धारित   कर लो ।
डगर - डगर फिर बढो निरन्तर तुम साहस का दामन  धर लो॥5॥

7924
एन्दो पार्थिवं रयिं दिव्यं पवस्व धारया । द्युमन्तं शुष्ममा भर॥6॥

हे  पावन  पूजनीय  परमेश्वर  मुझको  सत् - पथ  पर  पहुँचाओ ।
प्रभु तुम मेरे अवगुण हर लो अपना मानो मुझको अपनाओ ॥6॥  

Saturday, 24 May 2014

सूक्त - 30

[ऋषि- बिन्दु आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7925
प्र धारा अस्य शुष्मिणो वृथा पवित्रे अक्षरन् । पुनानो वाचमिष्यति॥1॥

जग  में  विविध  तरह  के  बल  हैं  पर अद्भुत  है वाणी का वैभव ।
वाक् - शक्ति  है  जिसके  भीतर  उसका  होता  नहीं  पराभव ॥1॥

7926
इन्दुर्हियानः सोतृभिर्मृज्यमानः कनिक्रदत् । इयर्ति वग्नुमिन्द्रियम्॥2॥

पण्डित जो  प्रवचन  करते  हैं  भाषा  होती  है  मधुर - मनोरम् ।
जानो  समझो  करो उसे  फिर  वाणी  का  वैभव  है अनुपम॥2॥

7927
आ नः शुष्मं नृषाह्यं वीरवन्तं पुरुस्पृहम् । पवस्व सोम धारया॥3॥

दुष्ट - दलन  अति  आवश्यक  है  हे  प्रभु  तुम  ही  रक्षा  करना ।
सत्पथ  पर  हम  चलें  निरन्तर मेरा जीवन तुम ही गढना ॥3॥

7928
प्र सोमो अति धारया पवमानो असिष्यदत् । अभि द्रोणान्यासदम्॥4॥

प्रभु  तुम  ही  सन्मार्ग  दिखाना  कर्म - योग  की  राह  बताना ।
कर्मानुसार मानव फल पाता यही सीख सबको सिखलाना ॥4॥

7929
अप्सु त्वा मधुमत्तमं हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। इन्दविन्द्राय पीतये॥5॥

हे  परमेश्वर  हे  परममित्र  अज्ञान - तमस  को  तुम्हीं  मिटाना ।
हम  सब  को ज्ञानालोक मिले तुम ज्ञान - गली में पहुँचाना ॥5॥

7930
सुनोता मधुमत्तमं सोममिन्द्राय वज्रिणे । चारुं शर्धाय मत्सरम्॥6॥

उत्तम - भोजन  फल औषधि  का  निज जीवन में उपयोग करें ।
तन - मन को फिर स्वस्थ बना कर चरैवेति की डगर  धरें ॥6॥

सूक्त - 31

[ऋषि- गोतम राहूगण । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7931
प्र सोमासः स्वाध्य1: पवमानासो अक्रमुः। रयिं कृण्वन्ति चेतनम्॥1॥

जन्म - भूमि  है  अतिशय  प्यारी  जो  इसकी  रक्षा  करता  है ।
उज्ज्वल - यश उसको मिलता है अमर सदा वह ही रहता है॥1॥

7932
दिवस्पृथिव्या अधि भवेन्दो द्युम्नवर्धनः। भवा वाजानां पतिः॥2॥

कितना  भी  कोई  तेजस्वी  हो  चाहे  जितना  भी  हो  वह  वीर ।
परा - शक्ति  है  सब  से ऊपर  सब   को समझाते  रहते धीर ॥2॥

7933
तुभ्यं वाता अभिप्रियस्तुभ्यमर्षन्ति सिन्धवः। सोम वर्धन्ति ते महः॥3॥

स्वस्थ - अ‍ॅग - प्रत्यंग  प्राप्त  कर  जन्म- भूमि  हित आते  काम ।
मातृ - भूमि - हित  मर  मिटते  हैं  उनके  प्यारे  पुत्र  तमाम ॥3॥

7934
आ प्यायस्व समेतु ते विश्वतः सोम वृष्ण्यम् । भवा वाजस्य सङ्गथे॥4॥

परमात्मा  सब  को  सुख  देते  हम  सब  पर  करते  उपकार ।
सबकी  विपदा  हर  लेते  हैं  परमेश्वर  हैं  सब  के आधार ॥4॥

7935
तुभ्यं गावो घृतं पयो बभ्रो दुदुह्रे अक्षितम् । वर्षिष्ठे अधि सानवि॥5॥

अद्भुत  है  यह  प्रकृति  हमारी  अद्भुत  है  रिमझिम - बरसात ।
परमात्मा  भी  अद्भुत  होगा  अद्भुत  हैं   उनके दिन - रात ॥5॥

7936
स्वायुधस्य ते सतो भुवनस्य पते वयम् । इन्दो सखित्वमुश्मसि॥6॥

वह  परमात्मा  सखा - सदृश  है  यही  भाव  मुझको  प्यारा  है ।
आनन्द - रस  वह  ही  देता  है पर वह प्रभु सब से न्यारा है ॥6॥


Friday, 23 May 2014

सूक्त - 32

[ऋषि- श्यावाश्व आत्रेय । देवता- पवमान सोम । छ न्द- गायत्री ।]

7937
प्र सोमासो मदच्युतः श्रवसे नो मघोनः।सुता विदथे चक्रमुः॥1॥

जो  जन  प्रभु - उपासना  करते  प्रभु  रखते  हैं  उनका  ध्यान ।
परमात्मा  यश -  वैभव  देते   दीन - बन्धु  हैं  वे  भगवान ॥1॥

7938
आदीं त्रितस्य योषणो हरिं हित्वन्त्यद्रिभिः। इन्दुमिन्द्राय पीतये॥2॥

जो जप - तप - सुमिरन करते हैं उनका मन - हर होता व्यक्तित्व ।
अभ्युदय निरन्तर होता रहता व्यापक होता सह - अस्तित्व ॥2॥

7939
आदीं हंसो यथा गणं विश्वस्यावीवशन्मतिम् । अत्यो न गोभिरज्यते॥3॥

अपना - पन  आकर्षित  करता  वह  परमात्मा  मुझको  भाता  है ।
अपने  समान  ही  वह  लगता  है  कितना अद्भुत यह नाता  है ॥3॥

7940
उभे सोमावचाकशन्मृगो न तक्तो अर्षति । सीदन्नृतस्य योनिमा॥4॥

कण - कण  में  वह  बसा हुआ है इस जगती का वह है स्वामी ।
सभी  रसों  का  वही  प्रणेता  परमात्मा  के  हम अनुगामी ॥4॥

7941 
अभि गावो अनूषत योषा जारमिव प्रियम् । अगन्नाजिं यथा हितम्॥5॥

परमात्मा  आत्मीय   सभी  का  करता  है  सब  पर  उपकार ।
पर  साधक   है  उसको प्यारा  प्रभु  है  एक - मात्र आधार ॥5॥

7942 
अस्मे धेहि द्युमद्यशो मघवद्भ्यश्च मह्यं च । सनिं मेधामुत श्रवः॥6॥

ज्ञान -  मार्ग  पर  जो  चलते  हैं  मात्र  अभ्युदय  है  अभियान ।
कर्मानुरूप सब को फल मिलता कृपा - सिन्धु हैं वे भगवान॥6॥ 

सूक्त - 33

[ऋषि- त्रित आप्त्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7943
प्र सोमासो विपश्चितोSपां न यन्त्यूर्मयः। वनानि महिषा इव॥1॥

वेद - ऋचा आमन्त्रित  करती  कानों  में  कुछ - कुछ  कहती  है ।
जिनका  अन्तः - मन  पावन  है उनको आकर्षित करती  है ॥1॥

7944
अभि द्रोणानि बभ्रवः शुक्रा ऋतस्य धारया । वाजं गोमन्तरक्षरन्॥2॥

सद् - विद्या का अविरल प्रसार हो हर  मनुज  करे अपना  विकास ।
यश - वैभव भी मिले निरन्तर फिर आयें कालिदास और भास॥2॥

7945
सुता इन्द्राय वायवे वरुणाय मरुद्भयः। सोमा अर्षन्ति विष्णवे॥3॥

माता  ही  पहली  गुरुवानी  है  देव - सदृश  ही  है  महतारी ।
चरैवेति वह सिखलाती है उसकी महिमा अतिशय भारी ॥3॥

7946
तिस्त्रो वाच उदीरते गावो मिमन्ति धेनवः। हरिरेति कनिक्रदत्॥4॥

शब्द - ब्रह्म  है  वह परमात्मा सब साधक करते साक्षात्कार ।
आस्था हो यदि अन्तर्मन में फिर हो जाती  है तरणी पार॥4॥

7947
अभि ब्रह्मीरनूषत यह्वीरृतस्य मातरः। मर्मृज्यन्ते दिवः शिशुम्॥5॥

वेद - ऋचा अज्ञान मिटा - कर अन्तर्मन करती है उज्ज्वल ।
साधक परमानन्द पाते  हैं  कर्मानुकूल ही मिलता फल ॥5॥

7948
रायः समुद्रांश्चतुरोSस्मभ्यं सोम विश्वतः। आ पवस्व सहस्त्रिणः॥6॥

अनन्त - बलों का वह स्वामी है परमेश्वर है कृपा - निधान ।
मेरी  भी  सुधि  लेते  रहना दया - दृष्टि रखना भगवान ॥6॥
 

Thursday, 22 May 2014

सूक्त - 34

[ऋषि- त्रित आप्त्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7949
प्र सुवानो धारया तनेन्दुर्हिन्वानो अर्षति । रुजद् दृळ्हा व्योजसा॥1॥

प्रभु  हम  सबको  प्रेरित  करते  कर्मानुसार  ही  फल  देते  हैं ।
सत्कर्मी  शुभ - फल पाता  है  प्रभु उसको अपना लेते  हैं ॥1॥

7950
सुत इन्द्राय वायवे वरुणाय मरुद्भ्यः। सोमो अर्षति विष्णवे॥2॥

कण- कण में वह विद्यमान है पर पावन - मन  में  रहता  है ।
कर्म - मार्ग तुम सब अपना लो परमेश्वर हमसे कहता है ॥2॥

7951
वृषाणं वृषभिर्यतं सुन्वन्ति सोमभद्रिभिः। दुहन्ति शक्मना पयः॥3॥

कर्म - मार्ग  पर  जो  चलते  हैं  करते  हैं  अविरल अभ्यास ।
परमानन्द उन्हीं  को  मिलता  परमेश्वर हैं आस - पास ॥3॥

7952
भुवत्त्रितस्य मर्ज्यो भुवदिन्द्राय मत्सरः। सं रूपैरज्यते हरिः॥4॥

यम - नियम साधना जो करते हैं प्रभु से करते  हैं सम्वाद ।
जीवन उनका सार्थक होता मिट जाता उनका अवसाद ॥4॥

7953
अभीमृतस्य विष्टपं दुहते पृश्निमातरः। चारु प्रियतमं हविः॥5॥

कर्म - योग का पथिक निरन्तर प्रभु  की उपासना करता  है ।
वह प्रभु का दर्शन करता है निज जीवन को वह गढता है ॥5॥

7954
समेनमह्रुताइमा गिरो अर्षन्ति सस्त्रुतः। धेनूर्वाश्रो  अवीवशत्॥6॥

शुभ - विचार का  मनन सदा  हो  वही  सोच  मन  में  ढल जाए ।
सत्कर्मों का फल भी मीठा है प्रत्येक - जीव प्रभु  दर्शन पाए ॥6॥


Wednesday, 21 May 2014

सूक्त - 35

[ऋषि- प्रभूवसु आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7955
आ नः पवस्व धरया पवमान रयिं पृथुम् । यया ज्योतिर्विदासि नः॥1॥

जो  मनुज  स्वयं  को पात्र बनाता वह आत्म - ज्ञान पा जाता है ।
प्रभु उसको प्रोत्साहित करता खुद मञ्जिल तक पहुँचाता है ॥1॥

7956
इन्दो समुद्रमीङ्खय पवस्व विश्वमेजय । रायो धर्ता न ओजसा॥2॥

यश - वैभव  के  स्वामी  प्रभु  हैं  सबको  सुख - वैभव  देते  हैं ।
मन का मालिक मनुज स्वतः है प्रभु सबको अपना लेते हैं॥2॥

7957
त्वया वीरेण वीरवोSभि ष्याम पृतन्यतः। क्षरा णो अभि वार्यम्॥3॥

जिसकी  जैसी  अभिलाषा  है  वह  वैसा  ही  फल  पाता  है ।
प्रभु इच्छानुरूप फल देते आपना उससे अद्भुत नाता है ॥3॥

7958
प्र वाजमिन्दुरिष्यति सिषासन्वाजसा ऋषिः। व्रता विदान आयुधा॥4॥

सत् - पथ  पर  जो  भी  चलता  है  वह  ही यश - वैभव पाता है ।
साधक पाता सदा अनुग्रह भव - सागर  पार उतर जाता  है ॥4॥

7959
तं गीर्भिर्वाचमीङ्खयं पुनानं वासयामसि । सोमं जनस्य गोपतिम्॥5॥

सत् - गुण आकर्षित  करता  है  प्रभु  दौड  के  जाते उसके पास ।
परम - प्राप्ति यह  ही  कहलाता  परमेश्वर  रहते आस - पास ॥5॥

7960
विश्वो यस्य व्रते जनो दाधार धर्मणस्पतेः। पुनानस्य प्रभूवसोः॥6॥

वह  अनन्त  वैभव  का  स्वामी  हम  सबके  सुख  का  आधार ।
नीति -  नेम  का  पाठ - पढाता  उसकी  लीला  अपरम्पार ॥6॥

सूक्त - 36

[ऋषि- प्रभूवसु आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7961
असर्जि रथ्यो यथा पवित्रे चम्वोः सुतः। कार्ष्मन्वाजी न्यक्रमीत्॥1॥

कण - कण  में  वास  तुम्हारा  पर  निर्मल - मन  में  रहते  हो ।
जो  तेरा  सुमिरन  करता  है  उस  पर  कृपा सदा करते  हो ॥1॥

7962
स वह्निः सोम जागृविः पवस्व देववीरति । अभि कोशं मधुश्चुतम्॥2॥

नित्य  शुध्द  हो  नित्य  बुध्द  हो  सबको  तुम  प्रेरित  करते  हो ।
विद्वत् - जन अति प्रिय है तुमको दया - दृष्टि सब पर रखते हो ॥2॥

7963
स नो ज्योतींषि पूर्व्यं पवमान विरोचय । क्रत्वे दक्षाय नो  हिनु ॥3॥

ज्ञान - आलोक दिखाओ भगवन अज्ञान -तमस को तुम्हीं मिटाओ ।
परम - ज्योति की महिमा जानूँ  तुम  मुझको सन्मार्ग दिखाओ॥3॥

7964
शुम्भमान ऋतायुभिर्मृज्यमानो गभस्त्योः। पवते वारे अव्यये॥4॥

चिन्तन- मनन- निदिध्यासन  से  जो  सतत - साधना  करते  हैं ।
वे  ही  मनुज  मोक्ष  पाते  हैं  जो सतत ध्यान  करते  रहते  हैं ॥4॥ 

7965
स विश्वा दाशुषे वसु सोमो दिव्यानि पार्थिवा । पवतामान्तरिक्ष्या॥5॥

जो  प्रभु  से  बहुत  प्यार  करते  हैं वे  दिव्य - गुणों  को अपनाते  हैं ।
मन - वचन - कर्म  में  संगति होती यश मिलने पर सकुचाते हैं ॥5॥

7966
आ दिवस्पृष्ठमश्वयुर्गव्ययुः सोम रोहसि । वीरयुः शवसस्पते ॥6॥

परमात्मा  सज्जन  का  रक्षक  शौर्य - धैर्य  का  वह  स्वामी  है ।
वह  सज्जन  को  वैभव  देता  भक्तों  का  वह  अनुगामी  है  ॥6॥

Tuesday, 20 May 2014

सूक्त - 37

[ऋषि- रहूगण आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7967
स सुतः पीतये वृषा सोमः पवित्रे अर्षति । विघ्नन्रक्षांसि देवयुः॥1॥

परमात्मा  को  सज्जन प्रिय है वह उसके मन  में  रहता है ।
सर्वत्र  व्याप्त  है वह परमेश्वर सबकी विपदा को हरता है ॥1॥

7968
स पवित्रे विचक्षणो हरिरर्षति धर्णसिः। अभि योनिं कनिक्रदत्॥2॥

कण - कण में वह बसा हुआ है  नभ  में  भरी  हुई  है  बानी ।
वह जग को धारण  करता  है  हम  सबको  होती  हैरानी॥2॥

7969
स वाजी रोचना दिवः पवमानो वि धावति । रक्षोहा वारमव्ययम्॥3॥

उसके  प्रकाश  से  सभी  प्रकाशित  सूर्य - चन्द्र जो कहलाते  हैं ।
स्वयं-प्रकाश मात्र परमात्मा हम उस पर बलि- बलि जाते हैं॥3॥

7970
स त्रितस्याधि सानवि पवमानो अरोचयत् । जामिभिः सूर्यं सह॥4॥

सब  विद्यायें  सभी  विधा  में  परमात्मा  ही  हमें  सिखाते ।
सभी  विषय के  वे पण्डित  हैं राज - धर्म वे ही समझाते॥4॥

7971
स वृत्रहा वृषा सुतो वरिवोविददाभ्यः। सोमो वाजमिवासरत्॥5॥

अज्ञान - तिमिर को वही मिटाते वे  देते  हैं उज्ज्वल - आलोक ।
अन्न - धान - फल वे देते हैं जिससे पलता है यह भू - लोक॥5॥

7972
स देवः कविनेषितो3भि द्रोणानि धावति । इन्दुरिन्द्राय मंहना॥6॥

सर्वत्र  व्याप्त  है  वह  परमात्मा  पर  सज्जन -  मन  में  रहता  है ।
निशि - दिन ज्ञान - दीप जलता है प्रभु का प्यार वहॉ पलता  है॥6॥

सूक्त - 38

[ऋषि- रहूगण आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7973
एष उ स्य वृषा रथोSव्यो वारेभिरर्षति । गच्छन् वाजं सहस्त्रिणम्॥1॥

परमेश्वर - महिमा  पाती  है  विद्वत् - जन  द्वारा  विस्तार ।
ज्ञान की पूजा सब करते हैं ज्ञानी पर  है ज्ञान - प्रभार ॥1॥

7974
एतं त्रितस्य योषणं हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। इन्दुमिन्द्राय पीतये॥2॥

सत - रज - तम से बनी है माया जो दिखती वह सब माया है ।
माया - रहित  है वह परमात्मा वह अदृश्य  है जैसे छाया ॥2॥

7975
एतं तं हरितो दश मर्मृज्यन्ते अपस्युवः। याभिर्मदाय शुम्भते॥3॥

दस - इन्द्रिय  का  आकर्षण  वह  है जो  प्रभु  हमसे  ही अदृश्य  है ।
जिस साधक का मन उज्ज्वल है प्रभु साधक का परम लक्ष्य है॥3॥

7976
एष स्य मानुषीष्या श्येनो न विक्षु सीदति । गच्छञ्जारो न योषितम्॥4॥

शीतल  शशी  की  शान्त  चॉदनी  मन  को आह्लादित  करती  है ।
वैसी ही प्रभु की संगति भी सबको पुलकित करती रहती  है ॥4॥

7977
एष स्य मद्यो रसोSव चष्टे दिवः शिशुः। य इन्दुर्वारमाविशत्॥5॥

जगती  का  द्रष्टा  परमेश्वर  ही  एक - मात्र  है  सगा  हमारा ।
शेष  सभी  सामान्य  मनुज  हैं परमात्मा है मात्र सहारा ॥5॥

7978
एष स्य पीतये सुतो हरिरर्षति धर्णसिः। क्रन्दन्योनिमभि प्रियम्॥6॥

शब्द -  ब्रह्म  है  वह  परमात्मा  घट - घट  में  वह  ही  बसता  है ।
आकृति  पाती  विविध कलायें रोम - रोम  में  वह  रमता  है ॥6॥   

Monday, 19 May 2014

सूक्त - 39

[ऋषि- बृहन्मति आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7979
आशुरर्ष बृहन्मते परि प्रियेण धाम्ना । यत्र देवा इति ब्रवन्॥1॥

सर्वत्र  व्याप्त  है  वह परमात्मा उसकी गति भी अति अद्भुत है ।
दिव्य - गुणों का वह निधान है  सर्वत्र सदा वह अच्युत  है ॥1॥

7980
परिष्कृण्वन्ननिष्कृतं जनाय यातयन्निषः। वृष्टिं दिवः परि स्त्रव॥2॥

परमात्मा  की रचना अद्भुत आदित्य - अनिल  हैं सुख के श्रोत ।
अत्यन्त सुखद है यह वसुधा भी कौतूहल से  है ओत - प्रोत॥2॥

7981
सुत एति पवित्र आ त्विषिं दधान ओजसा । विचक्षाणो विरोचयन्॥3॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  सन्त - हृदय  में  वह  रहता  है ।
सम्पूर्ण  धरा  का  वह  द्रष्टा  है  वह  सबकी  विपदा हरता है ॥3॥

7982
अयं स यो दिवस्परि रघुयामा पवित्र आ । सिन्धोरूर्मा व्यक्षरत्॥4॥

परमेश्वर की  गति  अद्भुत  है  वह  नभ  से  भी ऊपर  रहता  है ।
कण - कण में वह विद्यमान है पर सज्जन-मन में बसता है॥4॥

7983
आविवासन्परावतो अथो अर्वावतः सुतः। इन्द्राय सिच्यते मधु॥5॥

आनन्द - उत्स  है  वह  परमेश्वर एक - मात्र वह ही अपना है ।
हम सबको वह सुख देता  है शेष  सभी  केवल  सपना  है ॥5॥

7984
समीचीना अनूषत हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। योनावृतस्य सीदत्॥6॥

सत्कर्म - मार्ग पर जो चलता है प्रभु दिव्य - गुणों का देते दान ।
यश - वैभव  वह  ही  पाता  है  वह ही पाता है आत्म- ज्ञान ॥6॥

सूक्त - 40

[ऋषि- बृहन्मति आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7985
पुनानो अक्रमीदभि विश्वा मृधो विचर्षणिः। शुम्भन्ति विप्रं धीतिभिः॥1॥

परमात्मा  चुपचाप  देखता  सत् - जन  का  रखता  है  ध्यान ।
कर्मानुसार वह फल देता है सत्-कर्मों का है यह अभियान ॥1॥

7986
आ योनिमरुणो रुहद्गमदिन्द्रं वृषा सुतः। ध्रुवे सदसि सीदति॥2॥

कर्म - मार्ग  के  अनुयायी  को  परमेश्वर  प्रोत्साहित  करते ।
सत् - कर्मों  का  फल  शुभ  होता यही सीख वे देते रहते ॥2॥

7987
नू नो रयिं महामिन्दोSसमभ्यं सोम विश्वतः। आ पवस्व सहस्त्रिणम्॥3॥

सत् - कर्मी  यश - वैभव  पाता  उसका  होता  रहता  उत्थान ।
बडी  भूमिका  है  कर्मों  की  कर्मों  से बनता मनुज महान ॥3॥

7988
विश्वा सोम पवमान द्युम्नानीन्दवा भर । विदा: सहस्त्रिणीरिषः॥4॥

परमात्मा  वैभव  का  स्वामी  सब  को  वैभव  वह  देता  है ।
वह वाणी का  वैभव  देता  सबका अवगुण  हर  लेता  है ॥4॥

7989
स नः पुनान आ भर रयिं स्तोत्रे सुवीर्यम् । जरितुर्वर्धया गिरः॥5॥

जिसको वाणी का वैभव मिलता वह सुख - कर प्रवचन करता है ।
वह  बडा  लोक -  प्रिय  हो  जाता  है  उत्तम - वक्ता  बनता  है ॥5॥

7990
पुनान इन्दवा भर सोम द्विबर्हसं रयिम्। वृषन्निन्दो न उक्थ्यम्॥6॥

जो  साधक  प्रभु - गुण  धारण  करते  वे  गुण - रूपवान  होते  हैं ।
इह - पर  दोनों  का  सुख  पाते सत् - कर्म - बीज वे ही बोते हैं ॥6॥ 

Sunday, 18 May 2014

सूक्त - 41

[ऋषि- मेध्यातिथि काण्व । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7991
प्र ये गावो न भूर्णयस्त्वेषा अयासो अक्रमुः। घ्नन्तः कृष्णामप त्वचम्॥1॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  सबका  ध्यान  वही  रखता  है ।
हम  सबको  वह  प्रेरित  करता सबका जीवन वह गढता है ॥1॥

7992
सुवितस्य मनामहेSति सेतुं दुराव्यम् । साह्वांसो दस्युमव्रतम्॥2॥

जगत - सेतु  है  वह  परमात्मा रखता  है सब के सुख का ध्यान ।
सूर्य - चन्द्र  आलोक  बिछाते सुख - कर है उसका अभियान ॥2॥

7993
शृण्वे वृष्टेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिणः। चरन्ति विद्युतो दिवि॥3॥

परमात्मा  पावस  पर   देता  पृथ्वी  पर  रिम- झिम  बरसात ।
सुख - साधन बिखरे धरती  पर मल्हार सुनाता पात - पात॥3॥

7994
आ पवस्व महीमिषं गोमदिन्दो हिरण्यवत् । अश्वावद्वाजवत् सुतः॥4॥

अनन्त - शक्ति का वह  स्वामी  है  परमात्मा है स्वयं - प्रकाश ।
सबको वही प्रकाशित करता  तम  का  करता  है  वह नाश ॥4॥ 

7995
स पवस्व विचर्षण आ मही रोदसी पृण । उषा: सूर्यो न रश्मिभिः॥5॥

सूर्य - किरण धरती पर आती प्रति - दिन होता नया - बिहान ।
सज्जन को सुख - साधन देता रखता है उसका पूरा ध्यान ॥5॥

7996
परि णः शर्मयन्त्या धारया सोम विश्वतः। सरा रसेव विष्टपम्॥6॥

परमात्मा आनन्द - उत्स  है आओ  कर  लें  हम  भी  रस-पान ।
कर्म - मार्ग तुम  ही  दिखलाना दया - दृष्टि  रखना  भगवान ॥6॥ 

सूक्त - 42

[ऋषि- मेध्यातिथि काण्व । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7997
जनयन्रोचना दिवो जनयन्नप्सु सूर्यम् । वसानो गा अपो हरिः॥1॥

परमात्मा  आलोक - प्रदाता  कण - कण  में  वह  बसता  है ।
सूर्य-चन्द्र है छटा उसी की सुखमय संसार यहॉ पलता  है॥1॥

7998
एष प्रत्नेन मन्मना देवो देवेभ्योस्परि । धारया पवते सुतः ॥2॥

वेद - ऋचा  की  महिमा अद्भुत  मन  का  तमस  मिटाती  है ।
वैज्ञानिक अन्वेषण करता यह  दुनियॉ  लाभ उठाती  है ॥2॥

8099
वावृधानाय तूर्वये पवन्ते वाजसातये । सोमा:सहस्त्रपाजसः॥3॥

परमात्मा  प्रेरित  करते  हैं  सन्मार्ग  वही  दिखलाते  हैं ।
उद्यम - फल सबसे मीठा है हम सबको सिखलाते  हैं ॥3॥

8000
दुहानः प्रत्नमित्पयः पवित्रे परि षिच्यते । क्रन्दन्देवॉ अजीजनत्॥4॥

वेद - ऋचाओं से  मिलता  है  मन  की  तृप्ति और सन्तोष ।
कर्म - मार्ग पर चलने  वाला  पाता  है  पावन  परितोष॥4॥

8001
अभि विश्वानि वार्याभि देवॉ ऋतावृधः। सोमः पुनानो अर्षति॥5॥

सबका कल्याण वही करता है वह  करुणा का सागर  है ।
पर उद्योगी सब सुख पाता भर जाता सुख - गागर है ॥5॥

8002
गोमन्नः सोम वीरवदश्वावद्वाजवत्सुतः। पवस्व बृहतीरिषः॥6॥

शौर्य -  धैर्य  देता  परमेश्वर  दुर्जन  को  दण्डित  करता  है ।
वीरों को प्रोत्साहित करता दया - दृष्टि सब पर रखता है॥6॥

Saturday, 17 May 2014

सूक्त - 43

[ऋषि- मेध्यातिथि काण्व । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8003
यो अत्य इव गोभिर्मदाय हर्यतः। तं गीर्भिर्वासयामसि ॥1॥

सर्वोपरि  है वह परमात्मा विद्युत - सम है फिर भी ग्राह्य है ।
अनुष्ठान से  वह  मिलता है उपासना से सहज प्राप्य है ॥1॥

8004
तं नो विश्वा अवस्युवो गिरःशुम्भन्ति पूर्वथा । इन्दुमिन्द्राय पीतये॥2॥

वह आलोक - पुञ्ज परमात्मा मानव को देता  है  परितोष ।
हम  उनकी  पूजा  करते  हैं  वे  हमको  देते  हैं  सन्तोष ॥2॥

8005
पुनानो याति हर्यतः सोमो गीर्भिः परिष्कृतः। विप्रस्य मेध्यातिथेः॥3॥

जो ज्ञान - मार्ग पर चलते हैं वे ज्ञान - ज्योति  सँग  रहते हैं ।
मन - मन्दिर में दीप जलाते परमेश्वर का दर्शन करते हैं॥3॥

8006
पवमान विदा रयिमस्मभ्यं सोम सुश्रियम् । इन्दो सहस्त्रवर्चसम्॥4॥

सबको  पावन  करने  वाला  वह  प्रभु  प्रोत्साहित  करता  है ।
साधक सद्- गति पाता है आनन्द-रस-पान वही करता है॥4॥

8007
इन्रदुत्यो न वाजसृत्कनिक्रन्ति पवित्र आ । यदक्षारति देवयुः॥5॥

सज्जन के मन के मन्दिर में प्रभु की ज्योति सदा जलती  है ।
पावन - मन में प्रभु बसता है जहॉ निर्मल सरिता बहती है॥5॥

8008
पवस्व वाजसातये विप्रस्य गृणतो वृधे । सोम रास्व सुवीर्यम्॥6॥

उद्योगी को सब कुछ  मिलता  है  परमेश्वर  देते  हैं आनन्द । 
यश - वैभव वह ही पाता  है वह  ही  देते  हैं  परमानन्द ॥6॥ 

सूक्त - 44

[ऋषि- अयास्य आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8009
प्र ण इन्दो महे तन ऊर्मिं न बिभ्रदर्षसि । अभि देवॉ अयास्यः॥1॥

जो  कर्म - मार्ग  को  नहीं  जानते  वे  सुख - वैभव  से  रहते  दूर ।
उद्योगी  बन   चलें  निरन्तर  पा  सकते  हैं  वैभव  भर -  पूर ॥1॥

8010
मती जुष्टो धिया हितःसोमो हिन्वे परावति । विप्रस्य धारया कविः॥2॥

वेद  शब्द  में  ज्ञान  है  अद्भुत  यह  विद्  धातु  से  बना  हुआ  है ।
जीवन  के  हर  मोड  को  छूता ज्ञान - अमृत  से सना हुआ है ॥2॥

8011
अयं देवेषु जागृविःसुत एति पवित्र आ । सोमो याति विचर्षणिः॥3॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  सबकी  सुधि  वह  ही  लेता  है ।
पावन - मन में वह रहता है सुख - सुविधा - साधन देता  है ॥3॥

8012
स नःपवस्व वाजयुश्चक्राणश्चारुमध्वरम् । बर्हिष्मॉ आ विवासति॥4॥

परमात्मा  की  व्यापक  सत्ता  वह  ही  है  जगती  का  वितान ।
वही  सखा  प्रोत्साहित करता वसुधा का वह नव - बिहान ॥4॥

8013
स नो भगाय वायवे विप्रवीरः सदावृधः। सोमो देवेष्वा यमत् ॥5॥

साधक को सत्पथ दिखलाता सज्जन - बल - वर्धन करता है ।
चरैवेति  का  मर्म  सिखाता  हम सब का जीवन गढता  है ॥5॥

8014
स नो अद्य वसुत्तये क्रतुविद् गातुवित्तमः। वाजं जेषि श्रवो बृहत्॥6॥

कवियों  में  वह  उत्तम  कवि  है  सब  के  कर्मों  का  वह  ज्ञाता ।
ज्ञानी को वह प्रेरित कतता है वह जग का आलोक - प्रदाता ॥6॥         




Wednesday, 14 May 2014

सूक्त - 45

[ऋषि- अयास्य आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8015
स पवस्व मदाय कं नृचक्षा देववीतये । इन्दविन्द्राय पीतये॥1॥

मानव के मन - मन्दिर में प्रति - पल परमेश्वर का रहता वास ।
वह हमको रेखाञ्कित करता है हर पल रहता  है आस-पास॥1॥

8016
स नो अर्षाभि दूत्यं1त्वमिन्द्राय तोशसे।देवान्त्सखिभ्य आ वरम्॥2॥

कर्मानुसार  ही  फल  मिलता  है  सत्कर्मों  का  फल  है  सुख ।
इससे  कोई  बच नहीं सकता दुष्कर्मों का प्रति - फल दुख ॥2॥

8017
उत त्वामरुणं वयं गोभिरञ्ज्मो मदाय कम् । वि नो राये दुरो वृधि॥3॥

जीवन  में  गति आवश्यक  है  गति  है  जीवन  की  पहचान ।
कर्म - मार्ग  है  सुखद  इसी  से आ जाओ  सब  है आह्वान ॥3॥

8018
अत्यू पवित्रमक्रमीद्वाजी धुरं न यामनि । इन्दुर्देवेषु पत्यते ॥4॥

परमात्मा  है  सबका  आश्रय  हम  सबका  है  वह  आधार ।
वह ज्ञानी के मन में बसता दिव्य - गुणों का  है आगार ॥4॥

8019
समी सखायो अस्वरन्वने क्रीळन्तमत्यविम् । इन्दुं नावा अनूषत॥5॥

परमात्मा  सबका  रक्षक  है  परमात्मा  है  सखा - समान ।
मन ही मन हम बातें करते दीन - बन्धु  हैं  वे भगवान ॥5॥ 

8020
तया पवस्व धारया यया पीतो विचक्षसे । इन्दो स्तोत्रे सुवीर्यम्॥6॥

ज्ञान - कर्म की अविरल गति से मनुज - मात्र का बढता बल ।
आनन्द - रूप  है वह परमेश्वर सबको देता कर्मों का फल ॥6॥  

सूक्त - 46

[ऋषि- अयास्य आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8021
असृग्रन्देववीतयेSत्यासः कृत्व्या इव । क्षरन्तः पर्वतावृधः॥1॥

कर्म -  मार्ग  पर  चलने  वाले  ज्ञानी -  वैज्ञानिक  बनते  हैं ।
विविध - विधा में विद्वत् - जन अन्वेषण करते रहते  हैं ॥1॥

8022
परिष्कृतास इन्दवो योषेव पित्र्यावती । वायुं सोमा असृक्षत॥2॥

सूक्ष्म - भाव का चिन्तन करते जनता  को जागरूक  करते  हैं ।
कर्तव्य - कर्म  का  बोध  कराते  सत्पथ पर लेकर चलते हैं ॥2॥

8023
एते सोमास इन्दवः प्रयस्वन्तश्चमू सुता:। इन्द्रं वर्धन्ति कर्मभिः॥3॥

कर्म - मार्ग  की  महिमा  से  ही  सैन्य - शक्ति  का  बल  बढता  है ।
विविध - शक्ति सेना सँग जुडती स्वाभिमान मन में पलता  है ॥3॥

8024
आ धावता सुहस्त्यः शुक्रा गृभ्णीत मन्थिना।गोभिःश्रीणीत मत्सरम्॥4॥

कर्म - मार्ग  पर  जो  चलता  है  देश -  धर्म -  हित  वह  जीता  है ।
विविध - कलायें विकसित होतीं मनुज तृप्ति - रस को पीता है॥4॥

8025
स पवस्व धनञ्जय प्रयन्ता राधसो महः। अस्मभ्यं सोम गातुवित्॥5॥

चिन्तन  शुभ  हो  यदि हम सबका अभ्युदय देश का निश्चित है ।
कर्म - मार्ग शुभ - फल ही देगा सन्देह नहीं कोई किञ्चित् है॥5॥

8026
एतं मृजन्ति मर्ज्यं पवमानं दश क्षिपः। इन्द्राय मत्सरं मदम्॥6॥

आनन्द - उत्स है  वह  परमेश्वर  वह  हम  सब  की अभिलाषा है ।
आनन्द - हेतु  हम  भटक  रहे  हैं  निर्वाक - एक वह भाषा  है ॥6॥  

Tuesday, 13 May 2014

सूक्त - 47

[ऋषि- कवि भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री । ]

8027
अया सोमः सुकृत्यया महश्चिदभ्यवर्धत । मन्दान उद्वृषायते ॥1॥

सत् - कर्मों  की  होती  है  पूजा  कर्मों  से  बनता  मनुज  महान ।
अभ्युदय चाहते जो जीवन में सत् - कर्मों का छेडें अभियान ॥1॥

8028
कृतानीदस्य कर्त्वा चेतन्ते दस्युतर्हणा । ऋणा च धृष्णुश्चयते॥2॥

प्रभु  दुष्टों  को  दण्डित  करते  सत् - जन  का  करते  प्रति - पाल ।
धन - वैभव  सबको  देते  हैं उद्योगी का सदा चमकता - भाल ॥2॥

8029
आत्सोम इन्द्रियो रसो वज्रः सहस्त्रसा भुवत्। उक्थं यदस्य जायते॥3॥

परमात्मा  ने  जीवात्मा  को  अनन्त - बलों  से  किया  सुसज्जित ।
जब मानव आत्म - ज्ञान पाता है तब  होता  है मनुज विभूषित ॥3॥

8030
स्वयं कविर्विधर्तरि विप्राय रत्नमिच्छति । यदी ममृज्यते धियः॥4॥

मनुज जहॉ  जिस   जगह  खडा  है  खुद  ही  है उसका  जिम्मेदार ।
सत् - जन  ही  यश - वैभव  पाता  है दुर्जन  को  पडती  है मार ॥4॥

8031
सिषासतू  रयीणां  वाजेष्वर्वताविव ।  भरेषु  जिग्युषामसि ॥5॥

जीवन - रण  में  कर्म - योग  की  सचमुच  अद्भुत  महिमा  है ।
उद्योगी विजय - दुँदुभी सुनता परमेश्वर की ऐसी गरिमा है ॥5॥

सूक्त - 48

[ऋषि- कवि भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8032
तं त्वा नृम्णानि बिभ्रतं सधस्थेषु महो दिवः। चारुं सुकृत्ययेमहे॥1॥

नभ  में  कितनी  नभ - गंगायें  भू - सम्पदा  भरी  धरती  पर ।
अद्भुत  है  यह दुनियॉ प्रभु - वर जाने कैसा होगा परमेश्वर ॥1॥

8033
संवृक्तधृष्णुमुक्थ्यं महामहिव्रतं मदम् । शतं पुरो रुरुक्षणिम्॥2॥

धर्म  -  मार्ग  ही  पूजनीय  है  सब  निर्भय  हो -  कर  चलते  हैं ।
उपासना अति - आवश्यक है  प्रभु  सबको  प्रेरित  करते  हैं ॥2॥

8034
अतस्त्वा रयिमभि राजानं सुक्रतो दिवः। सुपर्णो अव्यथिर्भरत्॥3॥

हे  परम - मित्र  हे  परमात्मा  सम्पूर्ण  धनों  के  तुम  भण्डार ।
कण - कण में  है  वास  तुम्हारा अविरल करते हो उपकार ॥3॥

8035
विश्वस्मा इत्स्वर्दृशे साधारणं रजस्तुरम् । गोपामृतस्य निर्भरत्॥4॥

सत - रज- तम  से  प्रकृति  बनी  है  पर रज - गुण की है प्रधानता ।
सतचितआनन्द प्रभु के गुण हैं पर चित की रहती सदा प्रबलता॥4॥

8036
अधा हिन्वान इन्द्रियं ज्यायो महित्वमानशे । अभिष्टिकृद्विचर्षणिः॥5॥

परमेश्वर  हम  सब  के  प्रेरक  अति - अद्भुत  है  उनकी  महिमा ।
सर्व - व्याप्त  है  वह  परमेश्वर अभीष्ट - प्रदाता की  है गरिमा ॥5॥

Monday, 12 May 2014

सूक्त - 49

[ऋषि- कवि भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8037
पवस्व वृष्टिमा सु नोSपामूर्मिं दिवस्परि । अयक्ष्मा  बृहतीरिषः॥1॥

हे  प्रभु  नभ  से  जल - वर्षा  दो  पृथ्वी पर हो रिमझिम - बरसात ।
अन्न - धान - फल - पल्लव झूमें  झूम - झूम  कर गाये पात ॥1॥

8038
तया पवस्व धारया यया गाव इहागमन् । जन्यास उप नो गृहम्॥2॥

आनन्द - सरिता  पावन  कर  दे  प्रभु  तुम  ही  कोई  करो  उपाय ।
हर बरस तुम्हीं सम्यक जल देना मिट जाए सबकी हाय - हाय ॥2॥

8039
घृतं पवस्व धारया  यज्ञेषु  देववीतमः। अस्मभ्यं  वृष्टिमा  पव ॥3॥

तुम ही सबके परि - पोषक हो अज्ञान - तिमिर को तुम्हीं मिटाओ ।
यश - वैभव तुम ही देना प्रभु आनन्द - धाम की राह दिखाओ ॥3॥

8040
स न ऊर्जे व्य1व्ययं पवित्रं धाव धारया । देवासः शृणवह्नि कम्॥4॥

ज्ञान - योग और क्रिया - योग सम्पूरक  बन  कर  चलें  निरन्तर ।
समवेत -  स्वरों  में  वेद  उचारें  परमेश्वर  सँग  रहें  परस्पर  ॥4॥

8041
पवमानो असिष्यदद्रक्षांस्यपजङ्घनत् । प्रत्नवद्रोचयन्  रुचः ॥5॥

परमात्मा  आलोक -  प्रदाता  दिव्य -  शक्ति  का  वही  निधान ।
वेद - ऋचा  का  गान करें  हम दया - दृष्टि  रखना  भगवान ॥5॥

सूक्त - 50

[ऋषि- उचथ्य आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8042
उत्ते शुष्मास ईरते सिन्धोरूर्मेरिव स्वनः। वाणस्य चोदया पविम्॥1॥

प्रभु सदा एक - रस अविनाशी है अनन्त - शक्ति  का  वह  स्वामी है ।
वह  ही  वाणी  का  वैभव  देता   यह  जग  उसका  अनुगामी  है ॥1॥

8043
प्रसवे  त  उदीरते  तिस्त्रो वाचो मखस्युवः। यदव्य एषि सानवि ॥2॥

भाव  का  भूखा  है  परमात्मा  हम  सबकी  भावना  में  बसता  है ।
हर साधक वह ही पाता  है  जिस भाव से उसको जो भजता  है ॥2॥

8044
अव्यो वारे परि प्रियं हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। पवमानं मधुश्चुतम् ॥3॥

कर्म - योग और  ज्ञान - योग  के  साधक -  गण  प्रभु  को  पाते  हैं ।
परमात्मा  सब  की  रक्षा  करते  हम  सबको  पार  लगाते   हैं  ॥3॥

8045
आ पवस्व मदिन्तम पवित्रं धारया कवे । अर्कस्य योनिमासदम्॥4॥

हे  प्रभु  तुम आनन्द - सागर  हो  मन  के  द्वार  में  तुम आ  जाओ ।
तेजस्विता  हमें  भी  दे  दो  मञ्जिल  तक  तुम  ही  पहुँचाओ  ॥4॥

8046
स पवस्व मदिन्तम गोभिरञ्जानो अक्तुभिः। इन्दविन्द्राय पीतये॥5॥

परम - आनन्द  के  तुम्हीं  प्रणेता  परम  तृप्ति  का  द्वार  दिखाओ ।
ब्रहम - आनन्द  की  कर  दो  वर्षा   कैसे पायें  तुम्हीं सिखाओ ॥5॥ 

सूक्त - 51

[ऋषि- उचथ्य आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8047
अध्वर्यो अद्रिभिः सुतं सोमं पवित्र आ सृज । पुनीहीन्द्राय पातवे॥1॥

प्रभु  के  करीब  यदि  जाना  हो  अपने -  मन  का  रखो  ध्यान  ।
प्रभु को पावन-मन ही प्रिय है आरम्भ करें अब यह अभियान॥1॥

8048
दिवः पीयूषमुत्तमं सोममिन्द्राय वज्रिणे । सुनोता मधुमुत्तमम्॥2॥

जिसको  मन  की  तृप्ति  चाहिए  जिसको  पाना  है  सन्तोष ।
वह  उपासना  करे  निरन्तर  पा  जाएगा  वह परि - तोष ॥2॥

8049
तव त्य इन्दो अन्धसो देवा मधोर्व्यश्नते । पवमानस्य मरुतः॥3॥

परमेश्वर  पावन  मन  में  रहता  साधक  पाता  है  परमानन्द । 
आनन्द  हेतु  बल  नहीं चाहिए सरल - सहज है ब्रह्मानन्द ॥3॥

8050
त्वं हि सोम वर्धयन्त्सुतो मदाय भूर्णये । वृषन्त्स्तोतारमूतये॥4॥

वेद - ज्ञान  की  महिमा  अद्भुत  अपरा - परा  का   यह भण्डार ।
परमात्मा - सान्निध्य यहीं  है सब विषयों का यह आगार ॥4॥

8051
अभ्यर्ष विचक्षण पवित्रं धारया सुतः। अभि वाजमुत श्रवः ॥5॥

तुम अनन्त बल के स्वामी हो आओ अन्तर्मन में  बस जाओ ।
यश - वैभव का दान हमें दो मोक्ष - द्वार तक तुम पहुँचाओ॥5॥
 

Sunday, 11 May 2014

सूक्त - 52

[ऋषि- उचथ्य आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8052
तव द्युक्षः सनद्रयिर्भरद्वाजं नो अन्धसा । सुवानो अर्ष पवित्र आ॥1॥

जब  मानव  पावन - मन  लेकर  कोई  अभिलाषा  करता  है । 
तब मनो-कामना पूरी होती सबका ध्यान वही  रखता  है ॥1॥

8053
तव प्रत्नेभिरध्वभिरव्यो वारे परि प्रियः। सहस्त्रधारो यात्तना॥2॥

वेद - ऋचा  की  महिमा  अद्भुत  यह  आनन्द  की  सरिता  है ।
विविध - विधा में यह बहती है कवि की कोमल कविता है ॥2॥

8054
चरुर्न यस्तमीङ्खयेन्दो न दानमीङ्खय । वधैर्वधस्नवीङ्खय॥3॥

हे  परमेश्वर  राह  दिखाना  सत् - पथ  पर  मुझको  ले  चलना ।
आनन्द - मार्ग है कहॉ किधर है तुम मेरे  मन  में ही रहना ॥3॥

8055
नि शुष्ममिन्दवेषां पुरुहूत जनानाम् । यो अस्मॉ आदिदेशति॥4॥

चारों  बल  मुझको  देना  प्रभु  हम  सब  बन  जायें  विद्या - वान ।
सत्कर्मों  में  रुचि हो सबकी हे दीन - बन्धु हे दया - निधान ॥4॥

8056
शतं न इन्द ऊतिभिः सहस्त्रं वा शुचीनाम् । पवस्व मंहयद्रयिः॥5॥

अनन्त - शक्ति  के  तुम  स्वामी  हो  मुझको  भी  तुम  देना  बल ।
कर्म - मार्ग पर चलूँ निरन्तर पा जाऊँ मैं भी शुभ - शुभ  फल ॥5॥

सूक्त - 53

[ऋषि- अवत्सार काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8057
उत्ते शुष्मासो अस्थू रक्षो भिन्दन्तो अद्रिवः। नुदस्व या: परिस्पृधः॥1॥

हे  आयुध - धर  हे  परमेश्वर  तुम  हम  सबकी  रक्षा  करना ।
कर्मानुसार तुम फल देते हो तुम सबकी सुधि लेते  रहना॥1॥

8058
अया निजघ्निरोजसा रथसङ्गे धने हिते । स्तवा अबिभ्युषा हृदा॥2॥

जो  साधक  कर्म - मार्ग  पर  चलते  वे  पाते हैं प्रभु का सामीप्य ।
निर्भय होकर जीवन-जीते उनको मिलता प्रभु का सान्निध्य ॥2॥

8059
अस्य व्रतानि नाधृषे पवमानस्य दूढ्या । रुज यस्त्वा पृतन्यति॥3॥

असत्य  सत्य  से  डर - कर रहता  श्रुतियॉ  हमको  समझाती  हैं ।
सज्जन प्रति- पल उपक्रम करते दिव्य-शक्तियॉ मिल जाती हैं॥3॥

8060
तं हिन्वन्ति मदच्युतं हरिं नदीषु वाजिनम्।इन्दुमिन्द्राय मत्सरम्॥4॥

आनन्द - रूप  है  वह  परमात्मा  वह  सबको  प्रेरित  करता  है ।
अज्ञान-तिमिर को वही मिटाता सबका ध्यान वही रखता है॥4॥

सूक्त - 54

[ऋषि- अवत्सार काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8061
अस्य प्रत्नामनु द्युतं शुक्रं दुदुह्रे अह्रयः। पयः सहस्त्रसामृषिम्॥1॥

विज्ञानी ज्ञान - साधना करता नित - नूतन अन्वेषण करता है ।
वेद - ज्ञान सामर्थ्य बढाता  मन  के अवगुण  को  हरता  है ॥1॥

8062
अयं सूर्य इवोपदृगयं सरांसि धावति । सप्त प्रवत आ दिवम् ॥2॥

वह परमात्मा खुद प्रकाश है आलोक - किरण उससे  बहती  है ।
दिया-सदृश है यह आत्मा भी काया को आलोकित करती है॥2॥

8063
अयं विश्वानि तिष्ठति पुनानो भुवनोपरि । सोमो देवो न सूर्यः॥3॥

सौम्य - सूर्य  की  तरह  बिखरता  परमेश्वर  जग  का  प्रेरक  है ।
सबको  सुख - वैभव  देता   है हम सबका पालक - पोषक है ॥3॥

8064
परि णो देववीतये वाजॉ अर्षसि गोमतः। पुनान इन्दविन्द्रयुः॥4॥

प्रभु  की  दया  से  ही  साधक  को दिव्य - शक्ति का मिलता दान ।
परमेश्वर तुम  ही  प्रणम्य  हो  वरद - हस्त  रखना  भगवान ॥4॥

Saturday, 10 May 2014

सूक्त - 55

[ऋषि- अवत्सार काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8065
यवंयवं नो अन्धसा पुष्टम्पुष्टं  परि स्त्रव । सोम विश्वा च सौभगा॥1॥

हे  प्रभु  अतुलित  बल  के  स्वामी  शौर्य -  धैर्य  का  दो  वरदान ।
अन्न - धान  तुम  ही देना प्रभु सुख - वैभव  भी  करो  प्रदान॥1॥

8066
इन्दो यथा तव स्तवो यथा ते जातमन्धसः। नि बर्हिषि प्रिये सदः॥2॥

तुम  ही  यश  वैभव  के  स्वामी  यश - वैभव  का  दे  दो  दान ।
अन्न - धान - औषधि भी देना दया - दृष्टि रखना भगवान ॥2॥

8067
उत नो गोविदश्ववित्पवस्य सोमान्धसा । मक्षूतमेभिरहभिः॥3॥

हे  अतुलित  वैभव  के  मालिक  सुख -  वैभव  तुम  देते  रहना ।
तुझको  याद  सदा  करते  हैं  तुम  भी  मेरी सुधि लेते रहना ॥3॥

8068
यो जिनाति न जीयते हन्ति शत्रुमभीत्य । स पवस्व सहस्त्रजित्॥4॥

काल  सतत  सबको  खाता  है  पर  वह  खुद  रहता  अविनाशी ।
उपासनीय है वह परमेश्वर कण- कण में है क्या मथुरा-काशी॥4॥ 

सूक्त - 56

[ऋषि- अवत्सार काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8069
परि सोम ऋतं बृहदाशुः पवित्रे अर्षति । विघ्नन्रक्षांसि देवयुः॥1॥

प्रभु  कर्मानुरूप  फल  देता  सत्कर्म  सदा  ही   श्रेयस्कर है ।
साधन से मन पावन होता शुभ- कर्म सदा ही रुचिकर है॥1॥

8070
यत्सोमो वाजमर्षति शतं धारा अपस्युवः। इन्द्रस्य सख्यमाविशन्॥2॥

कोई  भी  प्रभु  का  मित्र  नहीं  है और  न  कोई  है  दुश्मन ।
जो  सत्-पथ  पर  चलते  हैं  प्रभु के प्यारे हैं वे सज्जन ॥2॥

8071
अभि त्वा योषणो दश जारं न कन्यानूषत । मृज्यसे सोम सातये॥3॥

सहज  रूप  से  ही  प्रकाश  में  अग्नि  समाई  रहती  है ।
वैसे ही मन प्रभु को भजता प्रभु से डोर बँधी रहती है॥3॥

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त्वमिन्द्राय विष्णवे स्वादुरिन्दो परि स्त्रव । नृन्त्स्तोतृन्पाह्यंहसः॥4॥

ज्ञान - मार्ग  पर  जो  चलते  हैं  प्रभु  का  पाते  हैं  सान्निध्य ।
खट् - रागों   से  वही  बचाता परमेश्वर है अतिशय - भव्य ॥4॥