[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7846
परि सुवानो गिरिष्ठा: पवित्रे सोमो अक्षा:। मदेषु सर्वधा असि॥1॥
सर्व व्याप्त है वह परमात्मा विद्युत में भी वह विद्यमान है ।
हर वैभव में वही समाया दीप में वही प्रवाहमान है ॥1॥
7847
त्वं विप्रस्त्वं कविर्मधु प्र जातमन्धसः। मदेषु सर्वधा असि॥2॥
अद्भुत बल है परमात्मा में विविध - रसों की वह मिठास है ।
उसे ढूढने दूर न जाओ वह तो अपने आस - पास है ॥2॥
7848
तव विश्वे सजोषसो देवासः पीतिमाशत । मदेषु सर्वधा अधि॥3॥
आनन्द - रूप है वह परमात्मा विज्ञानी - जन उनको पाते हैं ।
बिना ज्ञान के भोग कठिन है विद्वत् - जन यह समझाते हैं॥3॥
7849
आ यो विश्वानि वार्या वसूनि हस्तयोर्दधे । मदेषु सर्वधा अधि॥4॥
पात्रानुसार ही वह परमात्मा विभूति - दान सब को देता है ।
जिसको सुख की आकांक्षा है उसको प्रभु अपना लेता है ॥4॥
7850
य इमे रोदसी मही सं मातरेव दोहते । मदेषु सर्वधा अधि ॥5॥
धरा - गगन हैं मात - पिता सम विविध - विधा में भरा है भोग ।
सबको मिले इसी चिन्तन से जितना चाहो कर लो उपयोग ॥5॥
7851
परि यो रोदसी उभे सद्यो वाजेभिरर्षति । मदेषु सर्वधा अधि ॥6॥
कण - कण में वैभव भरा हुआ है होना है इस पर परि- शोध ।
धरा - गगन हैं केन्द्र प्रकृति के हम सबको होता है बोध ॥6॥
7852
स शुष्मी कलशेष्वा पुनानो अचिक्रदत् । मदेषु सर्वधा असि॥7॥
परमात्मा ही शब्द - ब्रह्म है पर वह शब्दों में नहीं समाता ।
वह नेति - नेति से परिभाषित मात्र - भाव से वह मिल जाता॥7॥
7846
परि सुवानो गिरिष्ठा: पवित्रे सोमो अक्षा:। मदेषु सर्वधा असि॥1॥
सर्व व्याप्त है वह परमात्मा विद्युत में भी वह विद्यमान है ।
हर वैभव में वही समाया दीप में वही प्रवाहमान है ॥1॥
7847
त्वं विप्रस्त्वं कविर्मधु प्र जातमन्धसः। मदेषु सर्वधा असि॥2॥
अद्भुत बल है परमात्मा में विविध - रसों की वह मिठास है ।
उसे ढूढने दूर न जाओ वह तो अपने आस - पास है ॥2॥
7848
तव विश्वे सजोषसो देवासः पीतिमाशत । मदेषु सर्वधा अधि॥3॥
आनन्द - रूप है वह परमात्मा विज्ञानी - जन उनको पाते हैं ।
बिना ज्ञान के भोग कठिन है विद्वत् - जन यह समझाते हैं॥3॥
7849
आ यो विश्वानि वार्या वसूनि हस्तयोर्दधे । मदेषु सर्वधा अधि॥4॥
पात्रानुसार ही वह परमात्मा विभूति - दान सब को देता है ।
जिसको सुख की आकांक्षा है उसको प्रभु अपना लेता है ॥4॥
7850
य इमे रोदसी मही सं मातरेव दोहते । मदेषु सर्वधा अधि ॥5॥
धरा - गगन हैं मात - पिता सम विविध - विधा में भरा है भोग ।
सबको मिले इसी चिन्तन से जितना चाहो कर लो उपयोग ॥5॥
7851
परि यो रोदसी उभे सद्यो वाजेभिरर्षति । मदेषु सर्वधा अधि ॥6॥
कण - कण में वैभव भरा हुआ है होना है इस पर परि- शोध ।
धरा - गगन हैं केन्द्र प्रकृति के हम सबको होता है बोध ॥6॥
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स शुष्मी कलशेष्वा पुनानो अचिक्रदत् । मदेषु सर्वधा असि॥7॥
परमात्मा ही शब्द - ब्रह्म है पर वह शब्दों में नहीं समाता ।
वह नेति - नेति से परिभाषित मात्र - भाव से वह मिल जाता॥7॥