Tuesday, 13 May 2014

सूक्त - 47

[ऋषि- कवि भार्गव । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री । ]

8027
अया सोमः सुकृत्यया महश्चिदभ्यवर्धत । मन्दान उद्वृषायते ॥1॥

सत् - कर्मों  की  होती  है  पूजा  कर्मों  से  बनता  मनुज  महान ।
अभ्युदय चाहते जो जीवन में सत् - कर्मों का छेडें अभियान ॥1॥

8028
कृतानीदस्य कर्त्वा चेतन्ते दस्युतर्हणा । ऋणा च धृष्णुश्चयते॥2॥

प्रभु  दुष्टों  को  दण्डित  करते  सत् - जन  का  करते  प्रति - पाल ।
धन - वैभव  सबको  देते  हैं उद्योगी का सदा चमकता - भाल ॥2॥

8029
आत्सोम इन्द्रियो रसो वज्रः सहस्त्रसा भुवत्। उक्थं यदस्य जायते॥3॥

परमात्मा  ने  जीवात्मा  को  अनन्त - बलों  से  किया  सुसज्जित ।
जब मानव आत्म - ज्ञान पाता है तब  होता  है मनुज विभूषित ॥3॥

8030
स्वयं कविर्विधर्तरि विप्राय रत्नमिच्छति । यदी ममृज्यते धियः॥4॥

मनुज जहॉ  जिस   जगह  खडा  है  खुद  ही  है उसका  जिम्मेदार ।
सत् - जन  ही  यश - वैभव  पाता  है दुर्जन  को  पडती  है मार ॥4॥

8031
सिषासतू  रयीणां  वाजेष्वर्वताविव ।  भरेषु  जिग्युषामसि ॥5॥

जीवन - रण  में  कर्म - योग  की  सचमुच  अद्भुत  महिमा  है ।
उद्योगी विजय - दुँदुभी सुनता परमेश्वर की ऐसी गरिमा है ॥5॥

3 comments:

  1. अनुपम काव्यमय अनुवाद

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  2. परमात्मा ने जीवात्मा को अनन्त - बलों से किया सुसज्जित ।
    जब मानव आत्म - ज्ञान पाता है तब होता है मनुज विभूषित ॥3॥

    आत्मज्ञान बिना सब सूना

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  3. सुन्दर बोध...

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