[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7874
एते सोमास आशवो रथा इव प्र वाजिनः।सर्गा:सृष्टा अहेषत॥1॥
अनन्त - शक्ति का वह स्वामी है विद्युत - समान है उसका बल ।
सब कुछ जाना नहीं गया है चखना है अभी निरन्तर फल ॥1॥
7875
एते वाता इवोरवः पर्जन्यस्येव वृष्टयः। अग्नेरिव भ्रमा वृथा॥2॥
जलना पावक का स्वभाव है धरा - गगन सब हैं गति - शील ।
सबकी गति की सीमायें हैं पैरों पर मानो ठुकी हो कील ॥2॥
7876
एते पूता विपश्चितः सोमासो दध्याशिरः। विद्या व्यानशुर्धियः॥3॥
अन्वेषण होते रहें निरन्तर मिलेगी अविरल राह अनेक ।
परिशोध करें ज्ञानी - विज्ञानी लाभान्वित हों जन प्रत्येक॥3॥
7877
एते मृष्टा अमर्त्या: ससृवांसो न शश्रमुः। इयक्षन्तः पथो रजः॥4॥
दिव्य - ज्योति को लेकर नभ पर ग्रह- उपग्रह अविरल चलते हैं ।
सामर्थ्यानुसार अन्वेषण चलते वैज्ञानिक चिन्तन करते हैं ॥4॥
7878
एते पृष्ठानि रोदसोर्विप्रयन्तो व्यानशुः । उतेदमुत्तमं रजः ॥5॥
परमात्मा की रचना अद्भुत आकर्षण का अद्भुत - खेल ।
कहीं विकर्षण जादू चलता चलती रहती है सृष्टि - रेल ॥5॥
7879
तन्तुं तन्वानमुत्तममनु प्रवत आशत । उतेदमुत्तमाय्यम्॥6॥
कण - कण में परमात्मा बसता कण- कण में उसकी रचना है ।
उसकी रचना उसका वैभव है हमको अपना जीवन गढना है॥6॥
7880
त्वं सोम पणिभ्य आ वसु गव्यानि धारयः। ततं तन्तुमचिक्रदः॥7॥
परमात्मा का रौद्र - रूप ही दुष्टों को दण्डित करता है ।
देव - असुर संग्राम यही है अहम् का घर खाली रहता है ॥7॥
7874
एते सोमास आशवो रथा इव प्र वाजिनः।सर्गा:सृष्टा अहेषत॥1॥
अनन्त - शक्ति का वह स्वामी है विद्युत - समान है उसका बल ।
सब कुछ जाना नहीं गया है चखना है अभी निरन्तर फल ॥1॥
7875
एते वाता इवोरवः पर्जन्यस्येव वृष्टयः। अग्नेरिव भ्रमा वृथा॥2॥
जलना पावक का स्वभाव है धरा - गगन सब हैं गति - शील ।
सबकी गति की सीमायें हैं पैरों पर मानो ठुकी हो कील ॥2॥
7876
एते पूता विपश्चितः सोमासो दध्याशिरः। विद्या व्यानशुर्धियः॥3॥
अन्वेषण होते रहें निरन्तर मिलेगी अविरल राह अनेक ।
परिशोध करें ज्ञानी - विज्ञानी लाभान्वित हों जन प्रत्येक॥3॥
7877
एते मृष्टा अमर्त्या: ससृवांसो न शश्रमुः। इयक्षन्तः पथो रजः॥4॥
दिव्य - ज्योति को लेकर नभ पर ग्रह- उपग्रह अविरल चलते हैं ।
सामर्थ्यानुसार अन्वेषण चलते वैज्ञानिक चिन्तन करते हैं ॥4॥
7878
एते पृष्ठानि रोदसोर्विप्रयन्तो व्यानशुः । उतेदमुत्तमं रजः ॥5॥
परमात्मा की रचना अद्भुत आकर्षण का अद्भुत - खेल ।
कहीं विकर्षण जादू चलता चलती रहती है सृष्टि - रेल ॥5॥
7879
तन्तुं तन्वानमुत्तममनु प्रवत आशत । उतेदमुत्तमाय्यम्॥6॥
कण - कण में परमात्मा बसता कण- कण में उसकी रचना है ।
उसकी रचना उसका वैभव है हमको अपना जीवन गढना है॥6॥
7880
त्वं सोम पणिभ्य आ वसु गव्यानि धारयः। ततं तन्तुमचिक्रदः॥7॥
परमात्मा का रौद्र - रूप ही दुष्टों को दण्डित करता है ।
देव - असुर संग्राम यही है अहम् का घर खाली रहता है ॥7॥
सुन्दर संकलन...
ReplyDeleteकण - कण में परमात्मा बसता कण- कण में उसकी रचना है ।
ReplyDeleteउसकी रचना उसका वैभव है हमको अपना जीवन गढना है॥6॥
कितना सुंदर बोध देती पंक्तियाँ..