[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7853
यत्सोम चित्रमुक्थ्यं दिव्यं पार्थिवं वसु । तन्नः पुनान आ भर॥1॥
हे पूजनीय पावन परमेश्वर यश - वैभव का सब को दो दान ।
हीरे - पन्नों से भरी है धरती अन्वेषण - गुण करो प्रदान॥1॥
7854
युवं हि स्थःस्वर्पती इन्द्रश्च सोम गोपती।ईशाना पिप्यतं धियः॥2॥
गुरुजन से उत्तम - विद्या सीखो पूरी - पीढी को सिखलाते हैं ।
उन से वाणी का वैभव जानो परा - अपरा समझाते हैं ॥2॥
7855
वृषा पुनान आयुषु स्तनयन्नधि बर्हिषि । हरिःसन्योनिमासदत्॥3॥
मानव - मन की जो अभिलाषा है परमात्मा पूरी करते हैं ।
वह ही सबको प्रेरित करते सबकी विपदा वे हरते हैं ॥3॥
7856
अवावशन्त धीतयो वृषभस्याधि रेतसि । सूनोर्वत्सस्य मातरः॥4॥
जैसे गो- माता बछरू को गो - रस से तंदरुस्त करती है ।
बस वैसी है प्रकृति हमारी आहार का ध्यान सदा रखती है॥4॥
7857
कुविद्वृषण्यन्तीभ्यः पुनानो गर्भमादधत् । या: शुक्रं दुहते पयः॥5॥
धरा - गगन अतिशय अद्भुत है कितनी सुन्दर है यह धरती ।
पर मानव तो सुन्दरतम है कवि की कलम हमेशा कहती ॥5॥
7858
उप शिक्षापतस्थुषो भियसमा धेहि शत्रुषु । पवमान विदा रयिम्॥6॥
सत्पथ पर हम चलें निरन्तर सब का सुख हो मेरा ध्येय ।
सज्जन का जीवन सुख - कर हो वसुन्धरा हो श्रेय - प्रेय॥6॥
7859
नि शत्रोः सोम वृष्ण्यं नि शुष्मं नि वयस्तिर । दूरे वा सतो अन्ति वा॥7॥
दुष्ट - दमन अति आवश्यक है सज्जन का तुम रखना ध्यान ।
सत्कर्मों की चले श्रृँखला वरद - हस्त रखना भगवान ॥7॥
7853
यत्सोम चित्रमुक्थ्यं दिव्यं पार्थिवं वसु । तन्नः पुनान आ भर॥1॥
हे पूजनीय पावन परमेश्वर यश - वैभव का सब को दो दान ।
हीरे - पन्नों से भरी है धरती अन्वेषण - गुण करो प्रदान॥1॥
7854
युवं हि स्थःस्वर्पती इन्द्रश्च सोम गोपती।ईशाना पिप्यतं धियः॥2॥
गुरुजन से उत्तम - विद्या सीखो पूरी - पीढी को सिखलाते हैं ।
उन से वाणी का वैभव जानो परा - अपरा समझाते हैं ॥2॥
7855
वृषा पुनान आयुषु स्तनयन्नधि बर्हिषि । हरिःसन्योनिमासदत्॥3॥
मानव - मन की जो अभिलाषा है परमात्मा पूरी करते हैं ।
वह ही सबको प्रेरित करते सबकी विपदा वे हरते हैं ॥3॥
7856
अवावशन्त धीतयो वृषभस्याधि रेतसि । सूनोर्वत्सस्य मातरः॥4॥
जैसे गो- माता बछरू को गो - रस से तंदरुस्त करती है ।
बस वैसी है प्रकृति हमारी आहार का ध्यान सदा रखती है॥4॥
7857
कुविद्वृषण्यन्तीभ्यः पुनानो गर्भमादधत् । या: शुक्रं दुहते पयः॥5॥
धरा - गगन अतिशय अद्भुत है कितनी सुन्दर है यह धरती ।
पर मानव तो सुन्दरतम है कवि की कलम हमेशा कहती ॥5॥
7858
उप शिक्षापतस्थुषो भियसमा धेहि शत्रुषु । पवमान विदा रयिम्॥6॥
सत्पथ पर हम चलें निरन्तर सब का सुख हो मेरा ध्येय ।
सज्जन का जीवन सुख - कर हो वसुन्धरा हो श्रेय - प्रेय॥6॥
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नि शत्रोः सोम वृष्ण्यं नि शुष्मं नि वयस्तिर । दूरे वा सतो अन्ति वा॥7॥
दुष्ट - दमन अति आवश्यक है सज्जन का तुम रखना ध्यान ।
सत्कर्मों की चले श्रृँखला वरद - हस्त रखना भगवान ॥7॥
दुष्ट - दमन अति आवश्यक है सज्जन का तुम रखना ध्यान...सूक्तों में भी ये उल्लिखित है...
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