Thursday, 22 May 2014

सूक्त - 34

[ऋषि- त्रित आप्त्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7949
प्र सुवानो धारया तनेन्दुर्हिन्वानो अर्षति । रुजद् दृळ्हा व्योजसा॥1॥

प्रभु  हम  सबको  प्रेरित  करते  कर्मानुसार  ही  फल  देते  हैं ।
सत्कर्मी  शुभ - फल पाता  है  प्रभु उसको अपना लेते  हैं ॥1॥

7950
सुत इन्द्राय वायवे वरुणाय मरुद्भ्यः। सोमो अर्षति विष्णवे॥2॥

कण- कण में वह विद्यमान है पर पावन - मन  में  रहता  है ।
कर्म - मार्ग तुम सब अपना लो परमेश्वर हमसे कहता है ॥2॥

7951
वृषाणं वृषभिर्यतं सुन्वन्ति सोमभद्रिभिः। दुहन्ति शक्मना पयः॥3॥

कर्म - मार्ग  पर  जो  चलते  हैं  करते  हैं  अविरल अभ्यास ।
परमानन्द उन्हीं  को  मिलता  परमेश्वर हैं आस - पास ॥3॥

7952
भुवत्त्रितस्य मर्ज्यो भुवदिन्द्राय मत्सरः। सं रूपैरज्यते हरिः॥4॥

यम - नियम साधना जो करते हैं प्रभु से करते  हैं सम्वाद ।
जीवन उनका सार्थक होता मिट जाता उनका अवसाद ॥4॥

7953
अभीमृतस्य विष्टपं दुहते पृश्निमातरः। चारु प्रियतमं हविः॥5॥

कर्म - योग का पथिक निरन्तर प्रभु  की उपासना करता  है ।
वह प्रभु का दर्शन करता है निज जीवन को वह गढता है ॥5॥

7954
समेनमह्रुताइमा गिरो अर्षन्ति सस्त्रुतः। धेनूर्वाश्रो  अवीवशत्॥6॥

शुभ - विचार का  मनन सदा  हो  वही  सोच  मन  में  ढल जाए ।
सत्कर्मों का फल भी मीठा है प्रत्येक - जीव प्रभु  दर्शन पाए ॥6॥


1 comment:

  1. यम - नियम साधना जो करते हैं प्रभ से करते हैं सम्वाद ।
    जीवन उनका सार्थक होता मिट जाता उनका अवसाद ॥4॥

    प्रभु से संवाद हो खत्म हर विवाद हो..

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