Wednesday, 21 May 2014

सूक्त - 35

[ऋषि- प्रभूवसु आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7955
आ नः पवस्व धरया पवमान रयिं पृथुम् । यया ज्योतिर्विदासि नः॥1॥

जो  मनुज  स्वयं  को पात्र बनाता वह आत्म - ज्ञान पा जाता है ।
प्रभु उसको प्रोत्साहित करता खुद मञ्जिल तक पहुँचाता है ॥1॥

7956
इन्दो समुद्रमीङ्खय पवस्व विश्वमेजय । रायो धर्ता न ओजसा॥2॥

यश - वैभव  के  स्वामी  प्रभु  हैं  सबको  सुख - वैभव  देते  हैं ।
मन का मालिक मनुज स्वतः है प्रभु सबको अपना लेते हैं॥2॥

7957
त्वया वीरेण वीरवोSभि ष्याम पृतन्यतः। क्षरा णो अभि वार्यम्॥3॥

जिसकी  जैसी  अभिलाषा  है  वह  वैसा  ही  फल  पाता  है ।
प्रभु इच्छानुरूप फल देते आपना उससे अद्भुत नाता है ॥3॥

7958
प्र वाजमिन्दुरिष्यति सिषासन्वाजसा ऋषिः। व्रता विदान आयुधा॥4॥

सत् - पथ  पर  जो  भी  चलता  है  वह  ही यश - वैभव पाता है ।
साधक पाता सदा अनुग्रह भव - सागर  पार उतर जाता  है ॥4॥

7959
तं गीर्भिर्वाचमीङ्खयं पुनानं वासयामसि । सोमं जनस्य गोपतिम्॥5॥

सत् - गुण आकर्षित  करता  है  प्रभु  दौड  के  जाते उसके पास ।
परम - प्राप्ति यह  ही  कहलाता  परमेश्वर  रहते आस - पास ॥5॥

7960
विश्वो यस्य व्रते जनो दाधार धर्मणस्पतेः। पुनानस्य प्रभूवसोः॥6॥

वह  अनन्त  वैभव  का  स्वामी  हम  सबके  सुख  का  आधार ।
नीति -  नेम  का  पाठ - पढाता  उसकी  लीला  अपरम्पार ॥6॥

1 comment:

  1. सत् - पथ पर जो भी चलता है वह ही यश - वैभव पाता है ।
    साधक पाता सदा अनुग्रह भव - सागर पार उतर जाता है ॥4॥

    जिसने कृपा का दामन थामा वही पार उतर गया..

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