[ऋषि- उचथ्य आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
8042
उत्ते शुष्मास ईरते सिन्धोरूर्मेरिव स्वनः। वाणस्य चोदया पविम्॥1॥
प्रभु सदा एक - रस अविनाशी है अनन्त - शक्ति का वह स्वामी है ।
वह ही वाणी का वैभव देता यह जग उसका अनुगामी है ॥1॥
8043
प्रसवे त उदीरते तिस्त्रो वाचो मखस्युवः। यदव्य एषि सानवि ॥2॥
भाव का भूखा है परमात्मा हम सबकी भावना में बसता है ।
हर साधक वह ही पाता है जिस भाव से उसको जो भजता है ॥2॥
8044
अव्यो वारे परि प्रियं हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। पवमानं मधुश्चुतम् ॥3॥
कर्म - योग और ज्ञान - योग के साधक - गण प्रभु को पाते हैं ।
परमात्मा सब की रक्षा करते हम सबको पार लगाते हैं ॥3॥
8045
आ पवस्व मदिन्तम पवित्रं धारया कवे । अर्कस्य योनिमासदम्॥4॥
हे प्रभु तुम आनन्द - सागर हो मन के द्वार में तुम आ जाओ ।
तेजस्विता हमें भी दे दो मञ्जिल तक तुम ही पहुँचाओ ॥4॥
8046
स पवस्व मदिन्तम गोभिरञ्जानो अक्तुभिः। इन्दविन्द्राय पीतये॥5॥
परम - आनन्द के तुम्हीं प्रणेता परम तृप्ति का द्वार दिखाओ ।
ब्रहम - आनन्द की कर दो वर्षा कैसे पायें तुम्हीं सिखाओ ॥5॥
8042
उत्ते शुष्मास ईरते सिन्धोरूर्मेरिव स्वनः। वाणस्य चोदया पविम्॥1॥
प्रभु सदा एक - रस अविनाशी है अनन्त - शक्ति का वह स्वामी है ।
वह ही वाणी का वैभव देता यह जग उसका अनुगामी है ॥1॥
8043
प्रसवे त उदीरते तिस्त्रो वाचो मखस्युवः। यदव्य एषि सानवि ॥2॥
भाव का भूखा है परमात्मा हम सबकी भावना में बसता है ।
हर साधक वह ही पाता है जिस भाव से उसको जो भजता है ॥2॥
8044
अव्यो वारे परि प्रियं हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। पवमानं मधुश्चुतम् ॥3॥
कर्म - योग और ज्ञान - योग के साधक - गण प्रभु को पाते हैं ।
परमात्मा सब की रक्षा करते हम सबको पार लगाते हैं ॥3॥
8045
आ पवस्व मदिन्तम पवित्रं धारया कवे । अर्कस्य योनिमासदम्॥4॥
हे प्रभु तुम आनन्द - सागर हो मन के द्वार में तुम आ जाओ ।
तेजस्विता हमें भी दे दो मञ्जिल तक तुम ही पहुँचाओ ॥4॥
8046
स पवस्व मदिन्तम गोभिरञ्जानो अक्तुभिः। इन्दविन्द्राय पीतये॥5॥
परम - आनन्द के तुम्हीं प्रणेता परम तृप्ति का द्वार दिखाओ ।
ब्रहम - आनन्द की कर दो वर्षा कैसे पायें तुम्हीं सिखाओ ॥5॥
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