Monday, 12 May 2014

सूक्त - 50

[ऋषि- उचथ्य आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8042
उत्ते शुष्मास ईरते सिन्धोरूर्मेरिव स्वनः। वाणस्य चोदया पविम्॥1॥

प्रभु सदा एक - रस अविनाशी है अनन्त - शक्ति  का  वह  स्वामी है ।
वह  ही  वाणी  का  वैभव  देता   यह  जग  उसका  अनुगामी  है ॥1॥

8043
प्रसवे  त  उदीरते  तिस्त्रो वाचो मखस्युवः। यदव्य एषि सानवि ॥2॥

भाव  का  भूखा  है  परमात्मा  हम  सबकी  भावना  में  बसता  है ।
हर साधक वह ही पाता  है  जिस भाव से उसको जो भजता  है ॥2॥

8044
अव्यो वारे परि प्रियं हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। पवमानं मधुश्चुतम् ॥3॥

कर्म - योग और  ज्ञान - योग  के  साधक -  गण  प्रभु  को  पाते  हैं ।
परमात्मा  सब  की  रक्षा  करते  हम  सबको  पार  लगाते   हैं  ॥3॥

8045
आ पवस्व मदिन्तम पवित्रं धारया कवे । अर्कस्य योनिमासदम्॥4॥

हे  प्रभु  तुम आनन्द - सागर  हो  मन  के  द्वार  में  तुम आ  जाओ ।
तेजस्विता  हमें  भी  दे  दो  मञ्जिल  तक  तुम  ही  पहुँचाओ  ॥4॥

8046
स पवस्व मदिन्तम गोभिरञ्जानो अक्तुभिः। इन्दविन्द्राय पीतये॥5॥

परम - आनन्द  के  तुम्हीं  प्रणेता  परम  तृप्ति  का  द्वार  दिखाओ ।
ब्रहम - आनन्द  की  कर  दो  वर्षा   कैसे पायें  तुम्हीं सिखाओ ॥5॥ 

No comments:

Post a Comment