[ऋषि- बृहन्मति आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7985
पुनानो अक्रमीदभि विश्वा मृधो विचर्षणिः। शुम्भन्ति विप्रं धीतिभिः॥1॥
परमात्मा चुपचाप देखता सत् - जन का रखता है ध्यान ।
कर्मानुसार वह फल देता है सत्-कर्मों का है यह अभियान ॥1॥
7986
आ योनिमरुणो रुहद्गमदिन्द्रं वृषा सुतः। ध्रुवे सदसि सीदति॥2॥
कर्म - मार्ग के अनुयायी को परमेश्वर प्रोत्साहित करते ।
सत् - कर्मों का फल शुभ होता यही सीख वे देते रहते ॥2॥
7987
नू नो रयिं महामिन्दोSसमभ्यं सोम विश्वतः। आ पवस्व सहस्त्रिणम्॥3॥
सत् - कर्मी यश - वैभव पाता उसका होता रहता उत्थान ।
बडी भूमिका है कर्मों की कर्मों से बनता मनुज महान ॥3॥
7988
विश्वा सोम पवमान द्युम्नानीन्दवा भर । विदा: सहस्त्रिणीरिषः॥4॥
परमात्मा वैभव का स्वामी सब को वैभव वह देता है ।
वह वाणी का वैभव देता सबका अवगुण हर लेता है ॥4॥
7989
स नः पुनान आ भर रयिं स्तोत्रे सुवीर्यम् । जरितुर्वर्धया गिरः॥5॥
जिसको वाणी का वैभव मिलता वह सुख - कर प्रवचन करता है ।
वह बडा लोक - प्रिय हो जाता है उत्तम - वक्ता बनता है ॥5॥
7990
पुनान इन्दवा भर सोम द्विबर्हसं रयिम्। वृषन्निन्दो न उक्थ्यम्॥6॥
जो साधक प्रभु - गुण धारण करते वे गुण - रूपवान होते हैं ।
इह - पर दोनों का सुख पाते सत् - कर्म - बीज वे ही बोते हैं ॥6॥
7985
पुनानो अक्रमीदभि विश्वा मृधो विचर्षणिः। शुम्भन्ति विप्रं धीतिभिः॥1॥
परमात्मा चुपचाप देखता सत् - जन का रखता है ध्यान ।
कर्मानुसार वह फल देता है सत्-कर्मों का है यह अभियान ॥1॥
7986
आ योनिमरुणो रुहद्गमदिन्द्रं वृषा सुतः। ध्रुवे सदसि सीदति॥2॥
कर्म - मार्ग के अनुयायी को परमेश्वर प्रोत्साहित करते ।
सत् - कर्मों का फल शुभ होता यही सीख वे देते रहते ॥2॥
7987
नू नो रयिं महामिन्दोSसमभ्यं सोम विश्वतः। आ पवस्व सहस्त्रिणम्॥3॥
सत् - कर्मी यश - वैभव पाता उसका होता रहता उत्थान ।
बडी भूमिका है कर्मों की कर्मों से बनता मनुज महान ॥3॥
7988
विश्वा सोम पवमान द्युम्नानीन्दवा भर । विदा: सहस्त्रिणीरिषः॥4॥
परमात्मा वैभव का स्वामी सब को वैभव वह देता है ।
वह वाणी का वैभव देता सबका अवगुण हर लेता है ॥4॥
7989
स नः पुनान आ भर रयिं स्तोत्रे सुवीर्यम् । जरितुर्वर्धया गिरः॥5॥
जिसको वाणी का वैभव मिलता वह सुख - कर प्रवचन करता है ।
वह बडा लोक - प्रिय हो जाता है उत्तम - वक्ता बनता है ॥5॥
7990
पुनान इन्दवा भर सोम द्विबर्हसं रयिम्। वृषन्निन्दो न उक्थ्यम्॥6॥
जो साधक प्रभु - गुण धारण करते वे गुण - रूपवान होते हैं ।
इह - पर दोनों का सुख पाते सत् - कर्म - बीज वे ही बोते हैं ॥6॥
सारगर्भित दोहे...
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