Monday, 19 May 2014

सूक्त - 40

[ऋषि- बृहन्मति आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7985
पुनानो अक्रमीदभि विश्वा मृधो विचर्षणिः। शुम्भन्ति विप्रं धीतिभिः॥1॥

परमात्मा  चुपचाप  देखता  सत् - जन  का  रखता  है  ध्यान ।
कर्मानुसार वह फल देता है सत्-कर्मों का है यह अभियान ॥1॥

7986
आ योनिमरुणो रुहद्गमदिन्द्रं वृषा सुतः। ध्रुवे सदसि सीदति॥2॥

कर्म - मार्ग  के  अनुयायी  को  परमेश्वर  प्रोत्साहित  करते ।
सत् - कर्मों  का  फल  शुभ  होता यही सीख वे देते रहते ॥2॥

7987
नू नो रयिं महामिन्दोSसमभ्यं सोम विश्वतः। आ पवस्व सहस्त्रिणम्॥3॥

सत् - कर्मी  यश - वैभव  पाता  उसका  होता  रहता  उत्थान ।
बडी  भूमिका  है  कर्मों  की  कर्मों  से बनता मनुज महान ॥3॥

7988
विश्वा सोम पवमान द्युम्नानीन्दवा भर । विदा: सहस्त्रिणीरिषः॥4॥

परमात्मा  वैभव  का  स्वामी  सब  को  वैभव  वह  देता  है ।
वह वाणी का  वैभव  देता  सबका अवगुण  हर  लेता  है ॥4॥

7989
स नः पुनान आ भर रयिं स्तोत्रे सुवीर्यम् । जरितुर्वर्धया गिरः॥5॥

जिसको वाणी का वैभव मिलता वह सुख - कर प्रवचन करता है ।
वह  बडा  लोक -  प्रिय  हो  जाता  है  उत्तम - वक्ता  बनता  है ॥5॥

7990
पुनान इन्दवा भर सोम द्विबर्हसं रयिम्। वृषन्निन्दो न उक्थ्यम्॥6॥

जो  साधक  प्रभु - गुण  धारण  करते  वे  गुण - रूपवान  होते  हैं ।
इह - पर  दोनों  का  सुख  पाते सत् - कर्म - बीज वे ही बोते हैं ॥6॥ 

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