Thursday, 1 May 2014

सूक्त - 65

[ऋषि- भृगुवारुणि । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8209
हिन्वन्ति सूरमुस्त्रयः स्वसारो जामयस्पतिम् । महामिन्दुं महीयुवः॥1॥

जो सर्वोपरि सबका रक्षक है मन उस ओर सहज जाता  है ।
कर्म - मार्ग से वह मिलता है पता नहीं कैसा  नाता  है ॥1॥

8210
पवमान रुचारुचा देवो देवेभ्यस्परि । विश्वा वसून्या विश ॥2॥

वह  परम  पूज्य  परमेश्वर  ही  अतुलित  बल  का स्वामी है ।
प्रभु आओ अन्तर्मन में आओ यह जग तेरा अनुगामी है ॥2॥

8211
आ पवमान सुष्टुतिं वृष्टिं देवेभ्यो दुवः । इषे पवस्व संयतम्॥3॥

जो प्रभु का सुमिरन करते  हैं  प्रभु  सुख-कर  जीवन  देते  हैं ।
दिव्य- गुणों की वर्षा करते अपने-पन से   अपना लेते  हैं ॥3॥

8212
वृषा ह्यसि भानुना द्युमन्तं त्वा हवामहे । पवमान स्वाध्यः॥4॥

जो परमात्म-परायण होते  उनके  सब  कर्म  सफल  होते  हैं ।
उद्योगी  सब  सुख  पाते  हैं  शुभ -फल-बीज  वही  बोते  हैं ॥4॥

8213
आ पवस्व सुवीर्यं मन्दमानः स्वायुध । इहो ष्विन्दवा गहि॥5॥

कर्मानुसार  सबको फल मिलता प्रभु तुम फल देना अनुकूल ।
सत्पथ पर तुम लेकर चलना भूल से भी कोई  हो  न भूल॥5॥

8214
यदद्भिः परिषिच्यसे मृज्यमानो गभस्त्योः। द्रुणा सधस्थमश्नुषे॥6॥

सत्कर्मों की ही पूजा होती है सत्कर्मों का ही शुभ है फल ।
सत्कर्मों से हो सकता है सबका जीवन  सदा  सफल ॥6॥

8215
प्र सोमाय व्यश्ववत्पवमानाय गायत । महे सहस्त्रचक्षसे॥7॥

वह  पावन  पूजनीय  परमेश्वर  सबको  सबल  बनाता  है ।
वह ही पालन - पोषण  करता  सत्पथ  पर  ले जाता है॥7॥

8216
यस्य वर्णं मधुश्चुतं हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। इन्दुमिन्द्राय पीतये॥8॥

परमेश्वर  आनन्द -  रूप  है  पथ  का  कण्टक  वही  मिटाता ।
कर्म योग का पन्थ निराला आत्म-ज्ञान का मार्ग दिखाता॥8॥

8217
तस्य ते वाजिनो वयं विश्वा धनानि जिग्युषः। सखित्वमा वृणीमहे॥9॥

हे  परम  -मित्र  हे  परमेश्वर  तुम सख्य-भाव अब अपनाओ ।
सखा-रूप सबसे सुन्दर है अति आत्मीय रूप  दिखलाओ॥9॥

8218
वृषा पवस्व धारया मरुत्वते च मत्सरः। विश्वा दधान ओजसा॥10॥

परमेश्वर  आनन्द -  धाम  है  नहीं  क्लेश  का  कोई  काम ।
सज्जन इस सुख को पाते हैं यह दुनियॉ है प्रभु का धाम॥10॥

8219
तं त्वा धर्तारमोण्यो3: पवमान स्वर्दृशम् । हिन्वे वाजेषु वाजिनम्॥11॥

जो  प्रभु  का आश्रय  लेता  है  साधक  ध्यान - यज्ञ करता है ।
वह सर्वत्र सफल होता है प्रभु उसके सँग- सँग   चलता है॥11॥

8220
अया चित्तो विपानया हरिःपवस्व धारया। युजं वाजेषु चोदय॥12॥

कर्म - योग  को  जो  अपनाते  सत्कर्म  सदा  जो  करते  हैं ।
परमेश्वर उनका हाथ थाम-कर सत्पथ पर ले चलते  हैं॥12॥

8221
आ नो इन्दो महीमिषं पवस्व विश्वदर्शतः। अस्मभ्यं सोम गातुवित्॥13॥

अपना तन-मन पावन रखना सत्संगी के सँग- सँग चलना ।
सत्कर्मों में ही रुचि लेना प्रभु का सुमिरन करते रहना ॥13॥

8222
आ कलशा अनूषतेन्दो धाराभिरोजसा । एन्द्रस्य पीतये विश॥14॥

जो  सत्कर्मों  में  रत  रहते हैं शुभ-चिन्तन का लेते आश्रय ।
दया - दृष्टि रखते प्रभु उन पर उनको कर देते हैं निर्भय॥14॥

8223
यस्य ते मद्यं रसं तीव्रं दुहन्त्यद्रिभिः। स पवस्वाभिमातिहा॥15॥

कर्म - योग  की  राह  अनूठी  राही  सदा  सफल  होता  है ।
दोषों का परिमार्जन होता शुभ-कर्मों को वह बोता है ॥15॥

8224
राजामेधाभिरीयते पवमानो मनावधि। अन्तरिक्षेण यातवे॥16॥

जब  पावन - मन  से  पूजा  होती  ऐसी पूजा ही फल देती है ।
कर्म सभी शुभ-शुभ फल देते गगन-धरा अपना लेती है॥16॥

8225
आ न इन्दो शतग्विनं गवां पोषं स्वश्व्यम् । वहा भगत्तिमूतये॥17॥

परमेश्वर  अपने  भक्तों  को  अन्वेषण  बल  देने  आते  हैं ।
उनकी  रक्षा  भी  करते  हैं  सर्व -  समर्थ  बनाते  हैं  ॥17॥

8226 
आ नः सोम सहो जुवो रूपं न वर्चसे भर । सुष्वाणो देववीतये॥18॥

दिव्य - शक्ति  देते  साधक  को  सुख- वैभव का देते भण्डार ।
अद्भुत व्यक्तित्व बना देते हैं कर लेते हैं उसको स्वीकार॥18॥

8227
अर्षा सोम द्युमत्तमोSभि द्रोणानि रोरुवत्। सीदञ्छ्येनो न योनिमा॥19॥

प्रकाश-पुञ्ज है वह परमेश्वर उसके प्रकाश से सभी प्रकाशित ।
सर्व - व्याप्त  है  वह परमेश्वर करता है विचार सम्प्रेषित ॥19॥

8228
अप्सा इन्द्राय वायवे वरुणाय मरुद्भ्यः। सोमो अर्षति विष्णवे॥20॥

जो ज्ञान - कर्म से आगे बढते उनको मिल जाती शीतल छॉव ।
प्रभु  सन्निकट  चले आते  हैं  प्रेम - गली पहुँचाती गॉव ॥20॥

8229
इषं तोकाय नो दधदस्मभ्यं सोम विश्वतः। आ पवस्व सहस्त्रिणम्॥21॥

हे  प्रभु  परम  पूज्य परमेश्वर सुख सन्तति का  रखना ध्यान ।
प्रगति  पन्थ  दिखलाते  रहना दया-दृष्टि रखना भगवान॥21॥

8230
ये सोमासः परावति ये अर्वावति सुन्विरे। ये वादः शर्यणावति॥22॥

प्रभु  तुम  ही सन्मार्ग दिखाना तन-मन पावन तुम्हीं बनाना ।
विद्वत्-जन की संगति पाऊँ ऐसा कुछ उपक्रम कर जाना॥22॥

8231
य आर्जीकेषु कृत्वसु ये मध्ये पस्त्यानाम् । ये वा जनेषु पञ्चसु॥23॥

सत् -  जन  से  होती  यही  अपेक्षा  वह  समाज  में  जागृति  लाए ।
परिवर्तन पहचान प्रगति की जो जाग गया वह सबको जगाए॥23॥

8232
ते नो वृष्टिं दिवस्परि पवन्तामा सुवीर्यम् । सुवाना देवास इन्दवः॥24॥

वैज्ञानिक - गण  अन्वेषण  कर  जगती  में  लायें  नव - प्रभात ।
अद्भुत साहस अदम्य बल से मिट  जाए  दुनियॉ  का  ताप ॥24॥

8233
पवते हर्यतो हरिर्गृणानो जमदग्निना । हिन्वानो गोरधि त्वचि॥25॥

हे   परम - मित्र  हे  परमेश्वर  सज्जन -  बिरादरी  बढती  जाए ।
शुभ-चिन्तन और शुभ-कर्मों से यह धरती राग- देस गाए ॥25॥

8234
प्र शुक्रासो वयोजुवो हिन्वानासो न सप्तयः। श्रीणाना अप्सु मृञ्जत॥26॥

ज्ञानेन्द्रिय बनते हैं साधन मनुज  दिव्य  जीवन  पाता  है ।
यही सम्पदा सबको बॉटें जीने का ढंग बदल जाता है ॥26॥

8235
तं त्वा सुतेष्वाभुवो हिन्विरे देवतातये । स पवस्वानया रुचा॥27॥

वह  पावन  पूजनीय  परमात्मा  हम सबको कर देता पावन ।
अन्तर्मन में वह रहता है वह है हम सबका मन - भावन॥27॥

8236
आ ते दक्षं मयोभुवं वह्निमद्या वृणीमहे । पान्तमा पुरुस्पृहम्॥28॥

जो  प्रभु  की उपासना  करते  हैं  वे  परम - भाव  को  पाते  हैं ।
तन-मन  पावन हो जाता है परमेश्वर उनको अपनाते हैं ॥28॥

8237
आ मन्द्रमा वरेण्यमा विप्रमा मनीषिणम् । पान्तमा पुरुस्पृहम्॥29॥

हे  वरद्-हस्त  तुम  ही  वरेण्य  हो तुम मेधा -मन के स्वामी हो ।
पूजनीय  रक्षक  हो  सब  के  और  तुम्हीं  अन्तर्यामी  हो  ॥29॥

8238
आ रयिमा सुचेतुनमा सुक्रतो तनूष्वा । पान्तमा पुरुस्पृहम्॥30॥

हे  प्रभु  तुम  सबके  रक्षक  हो  पतित - पावनी  छवि  तुम्हारी ।
परम  पूजनीय  तुम  ही  हो  सुधि  लेते  रहना सदा हमारी॥30॥
             

2 comments:

  1. परमेश्वर आनन्द - धाम है नहीं क्लेश का कोई काम ।
    सज्जन इस सुख को पाते हैं यह दुनियॉ है प्रभु का धाम॥10॥

    परमात्मा और दुःख साथ नहीं रह सकते

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  2. सुन्दर विचार सूत्र..

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