[ऋषि- भृगुवारुणि । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
8209
हिन्वन्ति सूरमुस्त्रयः स्वसारो जामयस्पतिम् । महामिन्दुं महीयुवः॥1॥
जो सर्वोपरि सबका रक्षक है मन उस ओर सहज जाता है ।
कर्म - मार्ग से वह मिलता है पता नहीं कैसा नाता है ॥1॥
8210
पवमान रुचारुचा देवो देवेभ्यस्परि । विश्वा वसून्या विश ॥2॥
वह परम पूज्य परमेश्वर ही अतुलित बल का स्वामी है ।
प्रभु आओ अन्तर्मन में आओ यह जग तेरा अनुगामी है ॥2॥
8211
आ पवमान सुष्टुतिं वृष्टिं देवेभ्यो दुवः । इषे पवस्व संयतम्॥3॥
जो प्रभु का सुमिरन करते हैं प्रभु सुख-कर जीवन देते हैं ।
दिव्य- गुणों की वर्षा करते अपने-पन से अपना लेते हैं ॥3॥
8212
वृषा ह्यसि भानुना द्युमन्तं त्वा हवामहे । पवमान स्वाध्यः॥4॥
जो परमात्म-परायण होते उनके सब कर्म सफल होते हैं ।
उद्योगी सब सुख पाते हैं शुभ -फल-बीज वही बोते हैं ॥4॥
8213
आ पवस्व सुवीर्यं मन्दमानः स्वायुध । इहो ष्विन्दवा गहि॥5॥
कर्मानुसार सबको फल मिलता प्रभु तुम फल देना अनुकूल ।
सत्पथ पर तुम लेकर चलना भूल से भी कोई हो न भूल॥5॥
8214
यदद्भिः परिषिच्यसे मृज्यमानो गभस्त्योः। द्रुणा सधस्थमश्नुषे॥6॥
सत्कर्मों की ही पूजा होती है सत्कर्मों का ही शुभ है फल ।
सत्कर्मों से हो सकता है सबका जीवन सदा सफल ॥6॥
8215
प्र सोमाय व्यश्ववत्पवमानाय गायत । महे सहस्त्रचक्षसे॥7॥
वह पावन पूजनीय परमेश्वर सबको सबल बनाता है ।
वह ही पालन - पोषण करता सत्पथ पर ले जाता है॥7॥
8216
यस्य वर्णं मधुश्चुतं हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। इन्दुमिन्द्राय पीतये॥8॥
परमेश्वर आनन्द - रूप है पथ का कण्टक वही मिटाता ।
कर्म योग का पन्थ निराला आत्म-ज्ञान का मार्ग दिखाता॥8॥
8217
तस्य ते वाजिनो वयं विश्वा धनानि जिग्युषः। सखित्वमा वृणीमहे॥9॥
हे परम -मित्र हे परमेश्वर तुम सख्य-भाव अब अपनाओ ।
सखा-रूप सबसे सुन्दर है अति आत्मीय रूप दिखलाओ॥9॥
8218
वृषा पवस्व धारया मरुत्वते च मत्सरः। विश्वा दधान ओजसा॥10॥
परमेश्वर आनन्द - धाम है नहीं क्लेश का कोई काम ।
सज्जन इस सुख को पाते हैं यह दुनियॉ है प्रभु का धाम॥10॥
8219
तं त्वा धर्तारमोण्यो3: पवमान स्वर्दृशम् । हिन्वे वाजेषु वाजिनम्॥11॥
जो प्रभु का आश्रय लेता है साधक ध्यान - यज्ञ करता है ।
वह सर्वत्र सफल होता है प्रभु उसके सँग- सँग चलता है॥11॥
8220
अया चित्तो विपानया हरिःपवस्व धारया। युजं वाजेषु चोदय॥12॥
कर्म - योग को जो अपनाते सत्कर्म सदा जो करते हैं ।
परमेश्वर उनका हाथ थाम-कर सत्पथ पर ले चलते हैं॥12॥
8221
आ नो इन्दो महीमिषं पवस्व विश्वदर्शतः। अस्मभ्यं सोम गातुवित्॥13॥
अपना तन-मन पावन रखना सत्संगी के सँग- सँग चलना ।
सत्कर्मों में ही रुचि लेना प्रभु का सुमिरन करते रहना ॥13॥
8222
आ कलशा अनूषतेन्दो धाराभिरोजसा । एन्द्रस्य पीतये विश॥14॥
जो सत्कर्मों में रत रहते हैं शुभ-चिन्तन का लेते आश्रय ।
दया - दृष्टि रखते प्रभु उन पर उनको कर देते हैं निर्भय॥14॥
8223
यस्य ते मद्यं रसं तीव्रं दुहन्त्यद्रिभिः। स पवस्वाभिमातिहा॥15॥
कर्म - योग की राह अनूठी राही सदा सफल होता है ।
दोषों का परिमार्जन होता शुभ-कर्मों को वह बोता है ॥15॥
8224
राजामेधाभिरीयते पवमानो मनावधि। अन्तरिक्षेण यातवे॥16॥
जब पावन - मन से पूजा होती ऐसी पूजा ही फल देती है ।
कर्म सभी शुभ-शुभ फल देते गगन-धरा अपना लेती है॥16॥
8225
आ न इन्दो शतग्विनं गवां पोषं स्वश्व्यम् । वहा भगत्तिमूतये॥17॥
परमेश्वर अपने भक्तों को अन्वेषण बल देने आते हैं ।
उनकी रक्षा भी करते हैं सर्व - समर्थ बनाते हैं ॥17॥
8226
आ नः सोम सहो जुवो रूपं न वर्चसे भर । सुष्वाणो देववीतये॥18॥
दिव्य - शक्ति देते साधक को सुख- वैभव का देते भण्डार ।
अद्भुत व्यक्तित्व बना देते हैं कर लेते हैं उसको स्वीकार॥18॥
8227
अर्षा सोम द्युमत्तमोSभि द्रोणानि रोरुवत्। सीदञ्छ्येनो न योनिमा॥19॥
प्रकाश-पुञ्ज है वह परमेश्वर उसके प्रकाश से सभी प्रकाशित ।
सर्व - व्याप्त है वह परमेश्वर करता है विचार सम्प्रेषित ॥19॥
8228
अप्सा इन्द्राय वायवे वरुणाय मरुद्भ्यः। सोमो अर्षति विष्णवे॥20॥
जो ज्ञान - कर्म से आगे बढते उनको मिल जाती शीतल छॉव ।
प्रभु सन्निकट चले आते हैं प्रेम - गली पहुँचाती गॉव ॥20॥
8229
इषं तोकाय नो दधदस्मभ्यं सोम विश्वतः। आ पवस्व सहस्त्रिणम्॥21॥
हे प्रभु परम पूज्य परमेश्वर सुख सन्तति का रखना ध्यान ।
प्रगति पन्थ दिखलाते रहना दया-दृष्टि रखना भगवान॥21॥
8230
ये सोमासः परावति ये अर्वावति सुन्विरे। ये वादः शर्यणावति॥22॥
प्रभु तुम ही सन्मार्ग दिखाना तन-मन पावन तुम्हीं बनाना ।
विद्वत्-जन की संगति पाऊँ ऐसा कुछ उपक्रम कर जाना॥22॥
8231
य आर्जीकेषु कृत्वसु ये मध्ये पस्त्यानाम् । ये वा जनेषु पञ्चसु॥23॥
सत् - जन से होती यही अपेक्षा वह समाज में जागृति लाए ।
परिवर्तन पहचान प्रगति की जो जाग गया वह सबको जगाए॥23॥
8232
ते नो वृष्टिं दिवस्परि पवन्तामा सुवीर्यम् । सुवाना देवास इन्दवः॥24॥
वैज्ञानिक - गण अन्वेषण कर जगती में लायें नव - प्रभात ।
अद्भुत साहस अदम्य बल से मिट जाए दुनियॉ का ताप ॥24॥
8233
पवते हर्यतो हरिर्गृणानो जमदग्निना । हिन्वानो गोरधि त्वचि॥25॥
हे परम - मित्र हे परमेश्वर सज्जन - बिरादरी बढती जाए ।
शुभ-चिन्तन और शुभ-कर्मों से यह धरती राग- देस गाए ॥25॥
8234
प्र शुक्रासो वयोजुवो हिन्वानासो न सप्तयः। श्रीणाना अप्सु मृञ्जत॥26॥
ज्ञानेन्द्रिय बनते हैं साधन मनुज दिव्य जीवन पाता है ।
यही सम्पदा सबको बॉटें जीने का ढंग बदल जाता है ॥26॥
8235
तं त्वा सुतेष्वाभुवो हिन्विरे देवतातये । स पवस्वानया रुचा॥27॥
वह पावन पूजनीय परमात्मा हम सबको कर देता पावन ।
अन्तर्मन में वह रहता है वह है हम सबका मन - भावन॥27॥
8236
आ ते दक्षं मयोभुवं वह्निमद्या वृणीमहे । पान्तमा पुरुस्पृहम्॥28॥
जो प्रभु की उपासना करते हैं वे परम - भाव को पाते हैं ।
तन-मन पावन हो जाता है परमेश्वर उनको अपनाते हैं ॥28॥
8237
आ मन्द्रमा वरेण्यमा विप्रमा मनीषिणम् । पान्तमा पुरुस्पृहम्॥29॥
हे वरद्-हस्त तुम ही वरेण्य हो तुम मेधा -मन के स्वामी हो ।
पूजनीय रक्षक हो सब के और तुम्हीं अन्तर्यामी हो ॥29॥
8238
आ रयिमा सुचेतुनमा सुक्रतो तनूष्वा । पान्तमा पुरुस्पृहम्॥30॥
हे प्रभु तुम सबके रक्षक हो पतित - पावनी छवि तुम्हारी ।
परम पूजनीय तुम ही हो सुधि लेते रहना सदा हमारी॥30॥
8209
हिन्वन्ति सूरमुस्त्रयः स्वसारो जामयस्पतिम् । महामिन्दुं महीयुवः॥1॥
जो सर्वोपरि सबका रक्षक है मन उस ओर सहज जाता है ।
कर्म - मार्ग से वह मिलता है पता नहीं कैसा नाता है ॥1॥
8210
पवमान रुचारुचा देवो देवेभ्यस्परि । विश्वा वसून्या विश ॥2॥
वह परम पूज्य परमेश्वर ही अतुलित बल का स्वामी है ।
प्रभु आओ अन्तर्मन में आओ यह जग तेरा अनुगामी है ॥2॥
8211
आ पवमान सुष्टुतिं वृष्टिं देवेभ्यो दुवः । इषे पवस्व संयतम्॥3॥
जो प्रभु का सुमिरन करते हैं प्रभु सुख-कर जीवन देते हैं ।
दिव्य- गुणों की वर्षा करते अपने-पन से अपना लेते हैं ॥3॥
8212
वृषा ह्यसि भानुना द्युमन्तं त्वा हवामहे । पवमान स्वाध्यः॥4॥
जो परमात्म-परायण होते उनके सब कर्म सफल होते हैं ।
उद्योगी सब सुख पाते हैं शुभ -फल-बीज वही बोते हैं ॥4॥
8213
आ पवस्व सुवीर्यं मन्दमानः स्वायुध । इहो ष्विन्दवा गहि॥5॥
कर्मानुसार सबको फल मिलता प्रभु तुम फल देना अनुकूल ।
सत्पथ पर तुम लेकर चलना भूल से भी कोई हो न भूल॥5॥
8214
यदद्भिः परिषिच्यसे मृज्यमानो गभस्त्योः। द्रुणा सधस्थमश्नुषे॥6॥
सत्कर्मों की ही पूजा होती है सत्कर्मों का ही शुभ है फल ।
सत्कर्मों से हो सकता है सबका जीवन सदा सफल ॥6॥
8215
प्र सोमाय व्यश्ववत्पवमानाय गायत । महे सहस्त्रचक्षसे॥7॥
वह पावन पूजनीय परमेश्वर सबको सबल बनाता है ।
वह ही पालन - पोषण करता सत्पथ पर ले जाता है॥7॥
8216
यस्य वर्णं मधुश्चुतं हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। इन्दुमिन्द्राय पीतये॥8॥
परमेश्वर आनन्द - रूप है पथ का कण्टक वही मिटाता ।
कर्म योग का पन्थ निराला आत्म-ज्ञान का मार्ग दिखाता॥8॥
8217
तस्य ते वाजिनो वयं विश्वा धनानि जिग्युषः। सखित्वमा वृणीमहे॥9॥
हे परम -मित्र हे परमेश्वर तुम सख्य-भाव अब अपनाओ ।
सखा-रूप सबसे सुन्दर है अति आत्मीय रूप दिखलाओ॥9॥
8218
वृषा पवस्व धारया मरुत्वते च मत्सरः। विश्वा दधान ओजसा॥10॥
परमेश्वर आनन्द - धाम है नहीं क्लेश का कोई काम ।
सज्जन इस सुख को पाते हैं यह दुनियॉ है प्रभु का धाम॥10॥
8219
तं त्वा धर्तारमोण्यो3: पवमान स्वर्दृशम् । हिन्वे वाजेषु वाजिनम्॥11॥
जो प्रभु का आश्रय लेता है साधक ध्यान - यज्ञ करता है ।
वह सर्वत्र सफल होता है प्रभु उसके सँग- सँग चलता है॥11॥
8220
अया चित्तो विपानया हरिःपवस्व धारया। युजं वाजेषु चोदय॥12॥
कर्म - योग को जो अपनाते सत्कर्म सदा जो करते हैं ।
परमेश्वर उनका हाथ थाम-कर सत्पथ पर ले चलते हैं॥12॥
8221
आ नो इन्दो महीमिषं पवस्व विश्वदर्शतः। अस्मभ्यं सोम गातुवित्॥13॥
अपना तन-मन पावन रखना सत्संगी के सँग- सँग चलना ।
सत्कर्मों में ही रुचि लेना प्रभु का सुमिरन करते रहना ॥13॥
8222
आ कलशा अनूषतेन्दो धाराभिरोजसा । एन्द्रस्य पीतये विश॥14॥
जो सत्कर्मों में रत रहते हैं शुभ-चिन्तन का लेते आश्रय ।
दया - दृष्टि रखते प्रभु उन पर उनको कर देते हैं निर्भय॥14॥
8223
यस्य ते मद्यं रसं तीव्रं दुहन्त्यद्रिभिः। स पवस्वाभिमातिहा॥15॥
कर्म - योग की राह अनूठी राही सदा सफल होता है ।
दोषों का परिमार्जन होता शुभ-कर्मों को वह बोता है ॥15॥
8224
राजामेधाभिरीयते पवमानो मनावधि। अन्तरिक्षेण यातवे॥16॥
जब पावन - मन से पूजा होती ऐसी पूजा ही फल देती है ।
कर्म सभी शुभ-शुभ फल देते गगन-धरा अपना लेती है॥16॥
8225
आ न इन्दो शतग्विनं गवां पोषं स्वश्व्यम् । वहा भगत्तिमूतये॥17॥
परमेश्वर अपने भक्तों को अन्वेषण बल देने आते हैं ।
उनकी रक्षा भी करते हैं सर्व - समर्थ बनाते हैं ॥17॥
8226
आ नः सोम सहो जुवो रूपं न वर्चसे भर । सुष्वाणो देववीतये॥18॥
दिव्य - शक्ति देते साधक को सुख- वैभव का देते भण्डार ।
अद्भुत व्यक्तित्व बना देते हैं कर लेते हैं उसको स्वीकार॥18॥
8227
अर्षा सोम द्युमत्तमोSभि द्रोणानि रोरुवत्। सीदञ्छ्येनो न योनिमा॥19॥
प्रकाश-पुञ्ज है वह परमेश्वर उसके प्रकाश से सभी प्रकाशित ।
सर्व - व्याप्त है वह परमेश्वर करता है विचार सम्प्रेषित ॥19॥
8228
अप्सा इन्द्राय वायवे वरुणाय मरुद्भ्यः। सोमो अर्षति विष्णवे॥20॥
जो ज्ञान - कर्म से आगे बढते उनको मिल जाती शीतल छॉव ।
प्रभु सन्निकट चले आते हैं प्रेम - गली पहुँचाती गॉव ॥20॥
8229
इषं तोकाय नो दधदस्मभ्यं सोम विश्वतः। आ पवस्व सहस्त्रिणम्॥21॥
हे प्रभु परम पूज्य परमेश्वर सुख सन्तति का रखना ध्यान ।
प्रगति पन्थ दिखलाते रहना दया-दृष्टि रखना भगवान॥21॥
8230
ये सोमासः परावति ये अर्वावति सुन्विरे। ये वादः शर्यणावति॥22॥
प्रभु तुम ही सन्मार्ग दिखाना तन-मन पावन तुम्हीं बनाना ।
विद्वत्-जन की संगति पाऊँ ऐसा कुछ उपक्रम कर जाना॥22॥
8231
य आर्जीकेषु कृत्वसु ये मध्ये पस्त्यानाम् । ये वा जनेषु पञ्चसु॥23॥
सत् - जन से होती यही अपेक्षा वह समाज में जागृति लाए ।
परिवर्तन पहचान प्रगति की जो जाग गया वह सबको जगाए॥23॥
8232
ते नो वृष्टिं दिवस्परि पवन्तामा सुवीर्यम् । सुवाना देवास इन्दवः॥24॥
वैज्ञानिक - गण अन्वेषण कर जगती में लायें नव - प्रभात ।
अद्भुत साहस अदम्य बल से मिट जाए दुनियॉ का ताप ॥24॥
8233
पवते हर्यतो हरिर्गृणानो जमदग्निना । हिन्वानो गोरधि त्वचि॥25॥
हे परम - मित्र हे परमेश्वर सज्जन - बिरादरी बढती जाए ।
शुभ-चिन्तन और शुभ-कर्मों से यह धरती राग- देस गाए ॥25॥
8234
प्र शुक्रासो वयोजुवो हिन्वानासो न सप्तयः। श्रीणाना अप्सु मृञ्जत॥26॥
ज्ञानेन्द्रिय बनते हैं साधन मनुज दिव्य जीवन पाता है ।
यही सम्पदा सबको बॉटें जीने का ढंग बदल जाता है ॥26॥
8235
तं त्वा सुतेष्वाभुवो हिन्विरे देवतातये । स पवस्वानया रुचा॥27॥
वह पावन पूजनीय परमात्मा हम सबको कर देता पावन ।
अन्तर्मन में वह रहता है वह है हम सबका मन - भावन॥27॥
8236
आ ते दक्षं मयोभुवं वह्निमद्या वृणीमहे । पान्तमा पुरुस्पृहम्॥28॥
जो प्रभु की उपासना करते हैं वे परम - भाव को पाते हैं ।
तन-मन पावन हो जाता है परमेश्वर उनको अपनाते हैं ॥28॥
8237
आ मन्द्रमा वरेण्यमा विप्रमा मनीषिणम् । पान्तमा पुरुस्पृहम्॥29॥
हे वरद्-हस्त तुम ही वरेण्य हो तुम मेधा -मन के स्वामी हो ।
पूजनीय रक्षक हो सब के और तुम्हीं अन्तर्यामी हो ॥29॥
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आ रयिमा सुचेतुनमा सुक्रतो तनूष्वा । पान्तमा पुरुस्पृहम्॥30॥
हे प्रभु तुम सबके रक्षक हो पतित - पावनी छवि तुम्हारी ।
परम पूजनीय तुम ही हो सुधि लेते रहना सदा हमारी॥30॥
परमेश्वर आनन्द - धाम है नहीं क्लेश का कोई काम ।
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