Saturday, 10 May 2014

सूक्र - 57

[ऋषि- अवत्सार काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]


8073 
प्र ते धारा असश्चतो दिवो न यन्ति वृष्ट्यः।अच्छा वाजं सहस्त्रिणम्॥1॥

सत्पथ  पर  चलने  वाला  ही  जीवन  सार्थक  कर  पाता  है ।
उसकी सुधि परमेश्वर लेते वह प्रभु का प्यारा बन जाता है ॥1॥

8074
अभि प्रयाणि काव्या विश्वा चक्षाणो अर्षति। हरिस्तुञ्जान आयुधा॥2॥

दुष्ट - दलन अति आवश्यक  है  सज्जन  का  रखते  हैं  ध्यान ।
सज्जन  निर्भय  होकर  जीते  दीन - बन्धु  हैं  वे भगवान ॥2॥

8075
स मर्मृजान आयुभिरिभो राजेव सुव्रतः। श्येनो न वंसु षीदति॥3॥

धरा - गगन  में  विद्युत - बल  है  इसका अन्वेषण अभी  शेष है ।
इससे दुनियॉ लाभान्वित होगी परिशोध सदा रहता अशेष है॥3॥

8076
स नो विश्वा दिवो वसूतो पृथिव्या अधि । पुनान इन्दवा भर॥4॥

परमेश्वर  है  पिता  हमारा  वह  ही  एक - मात्र  आश्रय  है ।
ध्यान हमारा वह रखता है फिर हमको काहे का भय है ॥4॥ 

1 comment:

  1. धरा - गगन में विद्युत - बल है इसका अन्वेषण अभी शेष है ।
    इससे दुनियॉ लाभान्वित होगी परिशोध सदा रहता अशेष है॥3॥

    वेदों में विज्ञान भरा है..

    ReplyDelete