Sunday, 11 May 2014

सूक्त - 54

[ऋषि- अवत्सार काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8061
अस्य प्रत्नामनु द्युतं शुक्रं दुदुह्रे अह्रयः। पयः सहस्त्रसामृषिम्॥1॥

विज्ञानी ज्ञान - साधना करता नित - नूतन अन्वेषण करता है ।
वेद - ज्ञान सामर्थ्य बढाता  मन  के अवगुण  को  हरता  है ॥1॥

8062
अयं सूर्य इवोपदृगयं सरांसि धावति । सप्त प्रवत आ दिवम् ॥2॥

वह परमात्मा खुद प्रकाश है आलोक - किरण उससे  बहती  है ।
दिया-सदृश है यह आत्मा भी काया को आलोकित करती है॥2॥

8063
अयं विश्वानि तिष्ठति पुनानो भुवनोपरि । सोमो देवो न सूर्यः॥3॥

सौम्य - सूर्य  की  तरह  बिखरता  परमेश्वर  जग  का  प्रेरक  है ।
सबको  सुख - वैभव  देता   है हम सबका पालक - पोषक है ॥3॥

8064
परि णो देववीतये वाजॉ अर्षसि गोमतः। पुनान इन्दविन्द्रयुः॥4॥

प्रभु  की  दया  से  ही  साधक  को दिव्य - शक्ति का मिलता दान ।
परमेश्वर तुम  ही  प्रणम्य  हो  वरद - हस्त  रखना  भगवान ॥4॥

1 comment:

  1. वह परमात्मा खुद प्रकाश है आलोक - किरण उससे बहती है ।
    दिया-सदृश है यह आत्मा भी काया को आलोकित करती है॥2॥

    आत्मा का दीपक ऐसे ही प्रज्वलित रहे..

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