Sunday, 4 May 2014

सूक्त - 64

[ऋषि- कश्यप मारीच । देवता-पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8179
वृषा सोम द्युमॉ असि वृषा देव वृषव्रतः । वृषा धर्माणि दधिषे॥1॥

प्रभु  मनो - कामना  पूरी  करते आनन्द  की  करते  बरसात ।
उपासकों  को  सुख  देते  हैं  भक्तों  को  करते  आत्मसात॥1॥

8180
वृष्णस्ते वृष्ण्यं शवो वृषा वनं वृषा मदः। सत्यं वृषन् वृषेदसि॥2॥

परमेश्वर आनन्द - सागर  है  वह  पावन - प्रभु  पूजनीय  है ।
सत्- चित् - आनन्द रूप वही है केवल वही उपासनीय है॥2॥

8181
अश्वो न चक्रदो वृषा सं गा इन्दो समर्वतः। वि नो राये दुरो वृधि॥3॥

दया - दृष्टि  हम  सब  पर  रखता  कर्म-मार्ग पर हमें बढाता ।
उद्योगी सुख-सन्तति पाता कर्मानुसार फल का वह दाता॥3॥

8182
असृक्षत प्र वाजिनो गव्या सोमासो अश्वया । शुक्रासो वीरयाशवः॥4॥

सौम्य  रूप  सब  सुख  स्वरूप आलोक  रूप  है  वह परमात्मा ।
भक्तों  का आराध्य - देव  है  एकमात्र  वह  है  अखिलात्मा ॥4॥

8183
शुम्भमाना ऋतायुभिर्मृज्यमाना गभस्त्योः। पवन्ते वारे अव्यये॥5॥

सचमुच  सच  के अभिलाषी  का  तन-मन  पावन कर देता है ।
दया-दृष्टि उन  पर  रखता  है अपने-पन  से अपना  लेता है॥5॥

8184
ते विश्वा दाशुषे वसु सोमा दिव्यानि पार्थिवा । पवन्तामान्तरिक्ष्या॥6॥

जो  प्रभु  का  सुमिरन  करते  हैं  प्रभु  करते  हैं  बेडा  पार ।
यश धन बल सब कुछ देते हैं साधक पाता  है सत्कार॥6॥

8185
पवमानस्य विश्ववित्प्र ते सर्गा असृक्षत । सूर्यस्येव न रश्मयः॥7॥

अनन्त  तेज  है  परमेश्वर  में  वे  सूर्य - किरण  सम  दिखते  हैं ।
नेति - नेति  कह  चुप  हो  जाते  शब्द  यहॉ  नहीं  टिकते  हैं॥7॥

8186
केतुं कृण्वन्दिवस्परि विश्वारूपाभ्यर्षसि । समुद्रः सोम पिन्वसे॥8॥

सूर्य - चन्द्र  जगती  की  शोभा  वसुधा  की  रचना  जैसी ही  है ।
परमात्मा आनन्द-सागर वह कैसा होगा जब रचना ऐसी है॥8॥

8187
हिन्वानो वाचमिष्यसि पवमान विधर्मणि। अक्रान्देवो न सूर्यः॥9॥

परमेश्वर आलोक-प्रदाता आलोक  सभी  को  पहुँचाता  है ।
उसी तेज से सभी प्रकाशित प्रकाश बॉटने वह आता है ॥9॥

8188
इन्दुः प्रविष्ट चेतनः प्रियः कवीनां मती । सृजदश्वं रथीरिव॥10॥

आलोक - रूप  वह  परमेश्वर  ही  विद्वानों को अतिशय प्रिय है ।
सज्जन को यश-सुख देने में वह परमेश्वर बहुत सक्रिय है॥10॥

8189
ऊर्मिर्यस्ते पवित्र आ देवावीः पर्यक्षरत् । सीदन्नृतस्य योनिमा॥11॥

परमात्मा आनन्द - लहर है  हर  मन  में यह  बहती  रहती  है ।
जो सच्चाई के पथ पर चलता उसको यह लहर भिगोती है॥11॥

8190
स नो अर्ष पवित्र आ मदो यो देववीतमः। इन्दविन्द्राय पीतये॥12॥

वह  परमात्मा आनन्द - मय  है  देव - तृप्ति अनुभव  करता है ।
कर्म-मार्ग पर जो चलता है आनन्द-मार्ग पर पग धरता है॥12॥

8191
इषे पवस्व धारया मृज्यमानो मनीषिभिः। इन्दो रुचाभि गा इहि॥13॥

जो  प्रभु  की उपासना  करते  हैं  प्रभु  बल-बुध्दि उन्हें  देते हैं ।
तन - मन विमल बना देते है मन का अवगुण हर लेते हैं॥13॥

8192
पुनानो वरिवस्कृध्यूर्जं जनाय गिर्वणः । हरे सृजान आशिरम्॥14॥

दुष्ट  -  दलन  प्रभु  ही  करते  हैं  सज्जन  को  देते  सम्मान ।
प्रगति -पन्थ पर ले जाते हैं तब ही मानव बनता महान॥14॥

8193
पुनानो देववीतय इन्द्रस्य याहि निष्कृतम् । द्युतानो वाजिभिर्यतः॥15॥

ज्ञान - योग  और  कर्म - योग  की  दोनों  की  महिमा  न्यारी  है ।
प्रभु आध्यात्मिक बल देते हैं जो जैसा जिसका अधिकारी है॥15॥

8194
प्र हिन्वानास इन्दवोSच्छा समुद्रमाशवः। धिया जूता असृक्षत॥16॥

परमेश्वर है आलोक - प्रदाता  हम  सबको  प्रेरित  करता  है ।
साधक साधन करता रहता प्रभु का कृपा-पात्र बनता है॥16॥

8195
मर्मृजानास आयवो वृथा समुद्रमिन्दवः। अग्मन्नृतस्य योनिमा॥17॥

आलोक - रूप  है  वह  परमात्मा  वह है सर्व-शक्ति-सम्पन्न ।
जिस पर दया-दृष्टि पडती है वह सज्जन हो जाता धन्य॥17॥

8196
परि णो याह्यस्मयुर्विश्वा वसून्योजसा । पाहि नः शर्म वीरवत्॥18॥

परमेश्वर  सज्जन -  सँग  रहते  हैं  दुष्टों  से  रहते  कोसों  दूर ।
सज्जन को सखा-भाव से भजते उसे  प्यार  देते भर-पूर॥18॥

8197
मिमाति वह्निरेतशःपदं युजान ऋक्वभिः। प्र यत्समुद्र आहितः॥19॥

जो ऋतु-अनुकूल भजन करते हैं वे ही ऋत्विक् कहलाते हैं ।
ऋतु-सँग पूजन करने वाले मन- वाञ्छित फल पाते हैं॥19॥

8198
आ यद्योनिं हिरण्ययमाशुरृतस्य सीदति । जहात्यप्रचेतसः॥20॥

साधक  के  मन  में  परमेश्वर  अतुलित  बल  भरने  आते  हैं ।
आलोक- विभूषित कर देते हैं ज्ञान-ज्योति देकर जाते हैं॥20॥

8199
अभि वेना अनूषतेयक्षन्ति प्रचेतसः।मज्जन्त्यविचेतसः॥21॥

सज्जन  पावन  पथ  पर  चलते  प्रभु  के  प्यारे  बन  जाते  हैं ।
प्रत्याहार  निरन्तर  करते आत्म - ज्ञान  वे  ही  पाते  हैं  ॥21॥

8200
इन्द्रायेन्दो मरुत्वते पवस्व मधुमत्तमः। ऋतस्य योनिमासदम्॥22॥

ज्ञान - मार्ग  का  अनुगामी  भी  परमेश्वर  का  करता  है  ध्यान ।
अविरल उपक्रम चलता रहता प्रतिदिन का है यह अभियान॥22॥

8201
तं त्वा विप्रा वचोविदः परिष्कृण्वन्ति वेधसः। सं त्वा मृजन्त्यायवः॥23॥

कर्म-मार्ग अतिशय रोचक  है सहज-सरल  है  तुम  भी आओ ।
हे प्रभु तुमसे यह विनती है आत्म-ज्ञान पथ पर ले जाओ॥23॥

8202
रसं ते मित्रो अर्यमा पिबन्ति वरुणः कवे । पवमानस्य मरुतः॥24॥

ज्ञान-योग  प्रभु  तक  ले  जाता  उसकी  महिमा  सब  गाते  हैं ।
आनन्द-ऊर्मि हमको देना प्रभु हर जगह तुम्हीं को पाते हैं॥24॥

8203
त्वं सोम विपश्चितं पुनानो वाचमिष्यसि । इन्दो सहस्त्रभर्णसम्॥25॥

वेद-ऋचायें अति अद्भुत हैं यह  है  ज्ञान  का अनुपम - कोष ।
जो पढता है नर्तन करता मिलता है उसको परि - तोष ॥25॥

8204
उतो सहस्त्रभर्णसं वाचं सोम मखस्युवम् । पुनान इन्दवा भर॥26॥

हे  पूजनीय  पावन  परमेश्वर  हमको  भी दे दो आत्म- ज्ञान ।
हम खुद को जानें - पहचानें कर लें आज तुम्हारा ध्यान॥26॥

8205
पुनान इन्दवेषां पुरुहूत जनानाम् । प्रियः समुद्रमा  विश॥27॥

जो विद्या - वान और  विनयी  हैं  उनका  मन  होता है पावन ।
प्रभु वहॉ बसेरा कर लेते हैं वही जगह लगती मन-भावन॥27॥

8206
दविद्युतत्या रुचा परिष्टोभन्त्या कृपा । सोम्स: शुक्रा गवाशिरः॥28॥

अनन्त - शक्ति का वह स्वामी है सबका करता  है कल्याण ।
नेक - राह पर सदा चलेंगे जब तक है इस तन में प्राण ॥28॥

8207
हिन्वानो हेतुभिर्यत आ वाजं वाज्यक्रमीत् । सीदन्तो वनुषो यथा॥29॥

सर्व - शक्ति - सम्पन्न  वही  है  सबका  रखता  है  वह ध्यान ।
दया - दृष्टि हम पर भी रखना हे प्रभु दीन- बन्धु भगवान॥29॥

8208
ऋधक्सोम स्वस्तये सञ्जग्मानो दिवः कविः। पवस्व सूर्यो दृशे॥30॥

कर्म - मार्ग  की  महिमा  भारी  बडे भाग्य से नर - तन पाया ।
हे प्रभु तुम ही मार्ग दिखाना इस जगती में मन भरमाया॥30॥
 
          

1 comment:

  1. अनन्त तेज है परमेश्वर में वे सूर्य - किरण सम दिखते हैं ।
    नेति - नेति कह चुप हो जाते शब्द यहॉ नहीं टिकते हैं॥7॥

    परम पिता को शत शत नमन..

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