[ऋषि- कश्यप मारीच । देवता-पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
8179
वृषा सोम द्युमॉ असि वृषा देव वृषव्रतः । वृषा धर्माणि दधिषे॥1॥
प्रभु मनो - कामना पूरी करते आनन्द की करते बरसात ।
उपासकों को सुख देते हैं भक्तों को करते आत्मसात॥1॥
8180
वृष्णस्ते वृष्ण्यं शवो वृषा वनं वृषा मदः। सत्यं वृषन् वृषेदसि॥2॥
परमेश्वर आनन्द - सागर है वह पावन - प्रभु पूजनीय है ।
सत्- चित् - आनन्द रूप वही है केवल वही उपासनीय है॥2॥
8181
अश्वो न चक्रदो वृषा सं गा इन्दो समर्वतः। वि नो राये दुरो वृधि॥3॥
दया - दृष्टि हम सब पर रखता कर्म-मार्ग पर हमें बढाता ।
उद्योगी सुख-सन्तति पाता कर्मानुसार फल का वह दाता॥3॥
8182
असृक्षत प्र वाजिनो गव्या सोमासो अश्वया । शुक्रासो वीरयाशवः॥4॥
सौम्य रूप सब सुख स्वरूप आलोक रूप है वह परमात्मा ।
भक्तों का आराध्य - देव है एकमात्र वह है अखिलात्मा ॥4॥
8183
शुम्भमाना ऋतायुभिर्मृज्यमाना गभस्त्योः। पवन्ते वारे अव्यये॥5॥
सचमुच सच के अभिलाषी का तन-मन पावन कर देता है ।
दया-दृष्टि उन पर रखता है अपने-पन से अपना लेता है॥5॥
8184
ते विश्वा दाशुषे वसु सोमा दिव्यानि पार्थिवा । पवन्तामान्तरिक्ष्या॥6॥
जो प्रभु का सुमिरन करते हैं प्रभु करते हैं बेडा पार ।
यश धन बल सब कुछ देते हैं साधक पाता है सत्कार॥6॥
8185
पवमानस्य विश्ववित्प्र ते सर्गा असृक्षत । सूर्यस्येव न रश्मयः॥7॥
अनन्त तेज है परमेश्वर में वे सूर्य - किरण सम दिखते हैं ।
नेति - नेति कह चुप हो जाते शब्द यहॉ नहीं टिकते हैं॥7॥
8186
केतुं कृण्वन्दिवस्परि विश्वारूपाभ्यर्षसि । समुद्रः सोम पिन्वसे॥8॥
सूर्य - चन्द्र जगती की शोभा वसुधा की रचना जैसी ही है ।
परमात्मा आनन्द-सागर वह कैसा होगा जब रचना ऐसी है॥8॥
8187
हिन्वानो वाचमिष्यसि पवमान विधर्मणि। अक्रान्देवो न सूर्यः॥9॥
परमेश्वर आलोक-प्रदाता आलोक सभी को पहुँचाता है ।
उसी तेज से सभी प्रकाशित प्रकाश बॉटने वह आता है ॥9॥
8188
इन्दुः प्रविष्ट चेतनः प्रियः कवीनां मती । सृजदश्वं रथीरिव॥10॥
आलोक - रूप वह परमेश्वर ही विद्वानों को अतिशय प्रिय है ।
सज्जन को यश-सुख देने में वह परमेश्वर बहुत सक्रिय है॥10॥
8189
ऊर्मिर्यस्ते पवित्र आ देवावीः पर्यक्षरत् । सीदन्नृतस्य योनिमा॥11॥
परमात्मा आनन्द - लहर है हर मन में यह बहती रहती है ।
जो सच्चाई के पथ पर चलता उसको यह लहर भिगोती है॥11॥
8190
स नो अर्ष पवित्र आ मदो यो देववीतमः। इन्दविन्द्राय पीतये॥12॥
वह परमात्मा आनन्द - मय है देव - तृप्ति अनुभव करता है ।
कर्म-मार्ग पर जो चलता है आनन्द-मार्ग पर पग धरता है॥12॥
8191
इषे पवस्व धारया मृज्यमानो मनीषिभिः। इन्दो रुचाभि गा इहि॥13॥
जो प्रभु की उपासना करते हैं प्रभु बल-बुध्दि उन्हें देते हैं ।
तन - मन विमल बना देते है मन का अवगुण हर लेते हैं॥13॥
8192
पुनानो वरिवस्कृध्यूर्जं जनाय गिर्वणः । हरे सृजान आशिरम्॥14॥
दुष्ट - दलन प्रभु ही करते हैं सज्जन को देते सम्मान ।
प्रगति -पन्थ पर ले जाते हैं तब ही मानव बनता महान॥14॥
8193
पुनानो देववीतय इन्द्रस्य याहि निष्कृतम् । द्युतानो वाजिभिर्यतः॥15॥
ज्ञान - योग और कर्म - योग की दोनों की महिमा न्यारी है ।
प्रभु आध्यात्मिक बल देते हैं जो जैसा जिसका अधिकारी है॥15॥
8194
प्र हिन्वानास इन्दवोSच्छा समुद्रमाशवः। धिया जूता असृक्षत॥16॥
परमेश्वर है आलोक - प्रदाता हम सबको प्रेरित करता है ।
साधक साधन करता रहता प्रभु का कृपा-पात्र बनता है॥16॥
8195
मर्मृजानास आयवो वृथा समुद्रमिन्दवः। अग्मन्नृतस्य योनिमा॥17॥
आलोक - रूप है वह परमात्मा वह है सर्व-शक्ति-सम्पन्न ।
जिस पर दया-दृष्टि पडती है वह सज्जन हो जाता धन्य॥17॥
8196
परि णो याह्यस्मयुर्विश्वा वसून्योजसा । पाहि नः शर्म वीरवत्॥18॥
परमेश्वर सज्जन - सँग रहते हैं दुष्टों से रहते कोसों दूर ।
सज्जन को सखा-भाव से भजते उसे प्यार देते भर-पूर॥18॥
8197
मिमाति वह्निरेतशःपदं युजान ऋक्वभिः। प्र यत्समुद्र आहितः॥19॥
जो ऋतु-अनुकूल भजन करते हैं वे ही ऋत्विक् कहलाते हैं ।
ऋतु-सँग पूजन करने वाले मन- वाञ्छित फल पाते हैं॥19॥
8198
आ यद्योनिं हिरण्ययमाशुरृतस्य सीदति । जहात्यप्रचेतसः॥20॥
साधक के मन में परमेश्वर अतुलित बल भरने आते हैं ।
आलोक- विभूषित कर देते हैं ज्ञान-ज्योति देकर जाते हैं॥20॥
8199
अभि वेना अनूषतेयक्षन्ति प्रचेतसः।मज्जन्त्यविचेतसः॥21॥
सज्जन पावन पथ पर चलते प्रभु के प्यारे बन जाते हैं ।
प्रत्याहार निरन्तर करते आत्म - ज्ञान वे ही पाते हैं ॥21॥
8200
इन्द्रायेन्दो मरुत्वते पवस्व मधुमत्तमः। ऋतस्य योनिमासदम्॥22॥
ज्ञान - मार्ग का अनुगामी भी परमेश्वर का करता है ध्यान ।
अविरल उपक्रम चलता रहता प्रतिदिन का है यह अभियान॥22॥
8201
तं त्वा विप्रा वचोविदः परिष्कृण्वन्ति वेधसः। सं त्वा मृजन्त्यायवः॥23॥
कर्म-मार्ग अतिशय रोचक है सहज-सरल है तुम भी आओ ।
हे प्रभु तुमसे यह विनती है आत्म-ज्ञान पथ पर ले जाओ॥23॥
8202
रसं ते मित्रो अर्यमा पिबन्ति वरुणः कवे । पवमानस्य मरुतः॥24॥
ज्ञान-योग प्रभु तक ले जाता उसकी महिमा सब गाते हैं ।
आनन्द-ऊर्मि हमको देना प्रभु हर जगह तुम्हीं को पाते हैं॥24॥
8203
त्वं सोम विपश्चितं पुनानो वाचमिष्यसि । इन्दो सहस्त्रभर्णसम्॥25॥
वेद-ऋचायें अति अद्भुत हैं यह है ज्ञान का अनुपम - कोष ।
जो पढता है नर्तन करता मिलता है उसको परि - तोष ॥25॥
8204
उतो सहस्त्रभर्णसं वाचं सोम मखस्युवम् । पुनान इन्दवा भर॥26॥
हे पूजनीय पावन परमेश्वर हमको भी दे दो आत्म- ज्ञान ।
हम खुद को जानें - पहचानें कर लें आज तुम्हारा ध्यान॥26॥
8205
पुनान इन्दवेषां पुरुहूत जनानाम् । प्रियः समुद्रमा विश॥27॥
जो विद्या - वान और विनयी हैं उनका मन होता है पावन ।
प्रभु वहॉ बसेरा कर लेते हैं वही जगह लगती मन-भावन॥27॥
8206
दविद्युतत्या रुचा परिष्टोभन्त्या कृपा । सोम्स: शुक्रा गवाशिरः॥28॥
अनन्त - शक्ति का वह स्वामी है सबका करता है कल्याण ।
नेक - राह पर सदा चलेंगे जब तक है इस तन में प्राण ॥28॥
8207
हिन्वानो हेतुभिर्यत आ वाजं वाज्यक्रमीत् । सीदन्तो वनुषो यथा॥29॥
सर्व - शक्ति - सम्पन्न वही है सबका रखता है वह ध्यान ।
दया - दृष्टि हम पर भी रखना हे प्रभु दीन- बन्धु भगवान॥29॥
8208
ऋधक्सोम स्वस्तये सञ्जग्मानो दिवः कविः। पवस्व सूर्यो दृशे॥30॥
कर्म - मार्ग की महिमा भारी बडे भाग्य से नर - तन पाया ।
हे प्रभु तुम ही मार्ग दिखाना इस जगती में मन भरमाया॥30॥
8179
वृषा सोम द्युमॉ असि वृषा देव वृषव्रतः । वृषा धर्माणि दधिषे॥1॥
प्रभु मनो - कामना पूरी करते आनन्द की करते बरसात ।
उपासकों को सुख देते हैं भक्तों को करते आत्मसात॥1॥
8180
वृष्णस्ते वृष्ण्यं शवो वृषा वनं वृषा मदः। सत्यं वृषन् वृषेदसि॥2॥
परमेश्वर आनन्द - सागर है वह पावन - प्रभु पूजनीय है ।
सत्- चित् - आनन्द रूप वही है केवल वही उपासनीय है॥2॥
8181
अश्वो न चक्रदो वृषा सं गा इन्दो समर्वतः। वि नो राये दुरो वृधि॥3॥
दया - दृष्टि हम सब पर रखता कर्म-मार्ग पर हमें बढाता ।
उद्योगी सुख-सन्तति पाता कर्मानुसार फल का वह दाता॥3॥
8182
असृक्षत प्र वाजिनो गव्या सोमासो अश्वया । शुक्रासो वीरयाशवः॥4॥
सौम्य रूप सब सुख स्वरूप आलोक रूप है वह परमात्मा ।
भक्तों का आराध्य - देव है एकमात्र वह है अखिलात्मा ॥4॥
8183
शुम्भमाना ऋतायुभिर्मृज्यमाना गभस्त्योः। पवन्ते वारे अव्यये॥5॥
सचमुच सच के अभिलाषी का तन-मन पावन कर देता है ।
दया-दृष्टि उन पर रखता है अपने-पन से अपना लेता है॥5॥
8184
ते विश्वा दाशुषे वसु सोमा दिव्यानि पार्थिवा । पवन्तामान्तरिक्ष्या॥6॥
जो प्रभु का सुमिरन करते हैं प्रभु करते हैं बेडा पार ।
यश धन बल सब कुछ देते हैं साधक पाता है सत्कार॥6॥
8185
पवमानस्य विश्ववित्प्र ते सर्गा असृक्षत । सूर्यस्येव न रश्मयः॥7॥
अनन्त तेज है परमेश्वर में वे सूर्य - किरण सम दिखते हैं ।
नेति - नेति कह चुप हो जाते शब्द यहॉ नहीं टिकते हैं॥7॥
8186
केतुं कृण्वन्दिवस्परि विश्वारूपाभ्यर्षसि । समुद्रः सोम पिन्वसे॥8॥
सूर्य - चन्द्र जगती की शोभा वसुधा की रचना जैसी ही है ।
परमात्मा आनन्द-सागर वह कैसा होगा जब रचना ऐसी है॥8॥
8187
हिन्वानो वाचमिष्यसि पवमान विधर्मणि। अक्रान्देवो न सूर्यः॥9॥
परमेश्वर आलोक-प्रदाता आलोक सभी को पहुँचाता है ।
उसी तेज से सभी प्रकाशित प्रकाश बॉटने वह आता है ॥9॥
8188
इन्दुः प्रविष्ट चेतनः प्रियः कवीनां मती । सृजदश्वं रथीरिव॥10॥
आलोक - रूप वह परमेश्वर ही विद्वानों को अतिशय प्रिय है ।
सज्जन को यश-सुख देने में वह परमेश्वर बहुत सक्रिय है॥10॥
8189
ऊर्मिर्यस्ते पवित्र आ देवावीः पर्यक्षरत् । सीदन्नृतस्य योनिमा॥11॥
परमात्मा आनन्द - लहर है हर मन में यह बहती रहती है ।
जो सच्चाई के पथ पर चलता उसको यह लहर भिगोती है॥11॥
8190
स नो अर्ष पवित्र आ मदो यो देववीतमः। इन्दविन्द्राय पीतये॥12॥
वह परमात्मा आनन्द - मय है देव - तृप्ति अनुभव करता है ।
कर्म-मार्ग पर जो चलता है आनन्द-मार्ग पर पग धरता है॥12॥
8191
इषे पवस्व धारया मृज्यमानो मनीषिभिः। इन्दो रुचाभि गा इहि॥13॥
जो प्रभु की उपासना करते हैं प्रभु बल-बुध्दि उन्हें देते हैं ।
तन - मन विमल बना देते है मन का अवगुण हर लेते हैं॥13॥
8192
पुनानो वरिवस्कृध्यूर्जं जनाय गिर्वणः । हरे सृजान आशिरम्॥14॥
दुष्ट - दलन प्रभु ही करते हैं सज्जन को देते सम्मान ।
प्रगति -पन्थ पर ले जाते हैं तब ही मानव बनता महान॥14॥
8193
पुनानो देववीतय इन्द्रस्य याहि निष्कृतम् । द्युतानो वाजिभिर्यतः॥15॥
ज्ञान - योग और कर्म - योग की दोनों की महिमा न्यारी है ।
प्रभु आध्यात्मिक बल देते हैं जो जैसा जिसका अधिकारी है॥15॥
8194
प्र हिन्वानास इन्दवोSच्छा समुद्रमाशवः। धिया जूता असृक्षत॥16॥
परमेश्वर है आलोक - प्रदाता हम सबको प्रेरित करता है ।
साधक साधन करता रहता प्रभु का कृपा-पात्र बनता है॥16॥
8195
मर्मृजानास आयवो वृथा समुद्रमिन्दवः। अग्मन्नृतस्य योनिमा॥17॥
आलोक - रूप है वह परमात्मा वह है सर्व-शक्ति-सम्पन्न ।
जिस पर दया-दृष्टि पडती है वह सज्जन हो जाता धन्य॥17॥
8196
परि णो याह्यस्मयुर्विश्वा वसून्योजसा । पाहि नः शर्म वीरवत्॥18॥
परमेश्वर सज्जन - सँग रहते हैं दुष्टों से रहते कोसों दूर ।
सज्जन को सखा-भाव से भजते उसे प्यार देते भर-पूर॥18॥
8197
मिमाति वह्निरेतशःपदं युजान ऋक्वभिः। प्र यत्समुद्र आहितः॥19॥
जो ऋतु-अनुकूल भजन करते हैं वे ही ऋत्विक् कहलाते हैं ।
ऋतु-सँग पूजन करने वाले मन- वाञ्छित फल पाते हैं॥19॥
8198
आ यद्योनिं हिरण्ययमाशुरृतस्य सीदति । जहात्यप्रचेतसः॥20॥
साधक के मन में परमेश्वर अतुलित बल भरने आते हैं ।
आलोक- विभूषित कर देते हैं ज्ञान-ज्योति देकर जाते हैं॥20॥
8199
अभि वेना अनूषतेयक्षन्ति प्रचेतसः।मज्जन्त्यविचेतसः॥21॥
सज्जन पावन पथ पर चलते प्रभु के प्यारे बन जाते हैं ।
प्रत्याहार निरन्तर करते आत्म - ज्ञान वे ही पाते हैं ॥21॥
8200
इन्द्रायेन्दो मरुत्वते पवस्व मधुमत्तमः। ऋतस्य योनिमासदम्॥22॥
ज्ञान - मार्ग का अनुगामी भी परमेश्वर का करता है ध्यान ।
अविरल उपक्रम चलता रहता प्रतिदिन का है यह अभियान॥22॥
8201
तं त्वा विप्रा वचोविदः परिष्कृण्वन्ति वेधसः। सं त्वा मृजन्त्यायवः॥23॥
कर्म-मार्ग अतिशय रोचक है सहज-सरल है तुम भी आओ ।
हे प्रभु तुमसे यह विनती है आत्म-ज्ञान पथ पर ले जाओ॥23॥
8202
रसं ते मित्रो अर्यमा पिबन्ति वरुणः कवे । पवमानस्य मरुतः॥24॥
ज्ञान-योग प्रभु तक ले जाता उसकी महिमा सब गाते हैं ।
आनन्द-ऊर्मि हमको देना प्रभु हर जगह तुम्हीं को पाते हैं॥24॥
8203
त्वं सोम विपश्चितं पुनानो वाचमिष्यसि । इन्दो सहस्त्रभर्णसम्॥25॥
वेद-ऋचायें अति अद्भुत हैं यह है ज्ञान का अनुपम - कोष ।
जो पढता है नर्तन करता मिलता है उसको परि - तोष ॥25॥
8204
उतो सहस्त्रभर्णसं वाचं सोम मखस्युवम् । पुनान इन्दवा भर॥26॥
हे पूजनीय पावन परमेश्वर हमको भी दे दो आत्म- ज्ञान ।
हम खुद को जानें - पहचानें कर लें आज तुम्हारा ध्यान॥26॥
8205
पुनान इन्दवेषां पुरुहूत जनानाम् । प्रियः समुद्रमा विश॥27॥
जो विद्या - वान और विनयी हैं उनका मन होता है पावन ।
प्रभु वहॉ बसेरा कर लेते हैं वही जगह लगती मन-भावन॥27॥
8206
दविद्युतत्या रुचा परिष्टोभन्त्या कृपा । सोम्स: शुक्रा गवाशिरः॥28॥
अनन्त - शक्ति का वह स्वामी है सबका करता है कल्याण ।
नेक - राह पर सदा चलेंगे जब तक है इस तन में प्राण ॥28॥
8207
हिन्वानो हेतुभिर्यत आ वाजं वाज्यक्रमीत् । सीदन्तो वनुषो यथा॥29॥
सर्व - शक्ति - सम्पन्न वही है सबका रखता है वह ध्यान ।
दया - दृष्टि हम पर भी रखना हे प्रभु दीन- बन्धु भगवान॥29॥
8208
ऋधक्सोम स्वस्तये सञ्जग्मानो दिवः कविः। पवस्व सूर्यो दृशे॥30॥
कर्म - मार्ग की महिमा भारी बडे भाग्य से नर - तन पाया ।
हे प्रभु तुम ही मार्ग दिखाना इस जगती में मन भरमाया॥30॥
अनन्त तेज है परमेश्वर में वे सूर्य - किरण सम दिखते हैं ।
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परम पिता को शत शत नमन..