Friday, 9 May 2014

सूक्त - 58

[ऋषि- अवत्सार काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8077
तरत्स मन्दी धावति धारा सुतस्यान्धसः। तरत्स मन्दी धावति॥1॥

परमेश्वर  आनन्द - प्रदाता  सन्मार्ग  वही  दिखलाता  है ।
भूले - भटके  राही  को  वह मञ्जिल तक पहुँचाता है ॥1॥

8078
उस्त्रा वेद वसूनां मर्तस्य देव्यवसः। तरस्त  मन्दी धावति॥2॥

प्रभु के आनन्द से ही तो मानव आनन्द का अनुभव करता है ।
मात्र  वही  आनन्द - रूप  है  सबको  सम्प्रेषित  करता  है ॥2॥

8079
ध्वस्त्रयोः पुरुषन्त्योरा सहस्त्राणि दद्महे । तरस्त मन्दी धावति॥3॥

ज्ञान - योग  है  वह  परमात्मा  कर्म - योग  का  है  वह  धाम ।
चरैवेति से मनुज सीखता पथ पर चलता अविरल अविराम्॥3॥

8080
आ ययोस्त्रिंशतं तना सहस्त्राणि च दद्महे । तरत्स मन्दी धामहि॥4॥

कर्म - मार्ग  पर  चलने  वाला  अपनी  आयु  बढा  सकता  है ।
नेक राह पर चल- कर मानव आत्मज्ञान भी पा सकता है॥4॥

1 comment:

  1. प्रभु के आनन्द से ही तो मानव आनन्द का अनुभव करता है ।
    मात्र वही आनन्द - रूप है सबको सम्प्रेषित करता है ॥2॥

    सही कहा है..

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