Tuesday, 20 May 2014

सूक्त - 37

[ऋषि- रहूगण आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7967
स सुतः पीतये वृषा सोमः पवित्रे अर्षति । विघ्नन्रक्षांसि देवयुः॥1॥

परमात्मा  को  सज्जन प्रिय है वह उसके मन  में  रहता है ।
सर्वत्र  व्याप्त  है वह परमेश्वर सबकी विपदा को हरता है ॥1॥

7968
स पवित्रे विचक्षणो हरिरर्षति धर्णसिः। अभि योनिं कनिक्रदत्॥2॥

कण - कण में वह बसा हुआ है  नभ  में  भरी  हुई  है  बानी ।
वह जग को धारण  करता  है  हम  सबको  होती  हैरानी॥2॥

7969
स वाजी रोचना दिवः पवमानो वि धावति । रक्षोहा वारमव्ययम्॥3॥

उसके  प्रकाश  से  सभी  प्रकाशित  सूर्य - चन्द्र जो कहलाते  हैं ।
स्वयं-प्रकाश मात्र परमात्मा हम उस पर बलि- बलि जाते हैं॥3॥

7970
स त्रितस्याधि सानवि पवमानो अरोचयत् । जामिभिः सूर्यं सह॥4॥

सब  विद्यायें  सभी  विधा  में  परमात्मा  ही  हमें  सिखाते ।
सभी  विषय के  वे पण्डित  हैं राज - धर्म वे ही समझाते॥4॥

7971
स वृत्रहा वृषा सुतो वरिवोविददाभ्यः। सोमो वाजमिवासरत्॥5॥

अज्ञान - तिमिर को वही मिटाते वे  देते  हैं उज्ज्वल - आलोक ।
अन्न - धान - फल वे देते हैं जिससे पलता है यह भू - लोक॥5॥

7972
स देवः कविनेषितो3भि द्रोणानि धावति । इन्दुरिन्द्राय मंहना॥6॥

सर्वत्र  व्याप्त  है  वह  परमात्मा  पर  सज्जन -  मन  में  रहता  है ।
निशि - दिन ज्ञान - दीप जलता है प्रभु का प्यार वहॉ पलता  है॥6॥

1 comment:

  1. कण - कण में वह बसा हुआ है नभ में भरी हुई है बानी ।
    वह जग को धारण करता है हम सबको होती हैरानी॥2॥

    विस्मयकारी है ही वह..

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