[ऋषि- अवत्सार काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
8069
परि सोम ऋतं बृहदाशुः पवित्रे अर्षति । विघ्नन्रक्षांसि देवयुः॥1॥
प्रभु कर्मानुरूप फल देता सत्कर्म सदा ही श्रेयस्कर है ।
साधन से मन पावन होता शुभ- कर्म सदा ही रुचिकर है॥1॥
8070
यत्सोमो वाजमर्षति शतं धारा अपस्युवः। इन्द्रस्य सख्यमाविशन्॥2॥
कोई भी प्रभु का मित्र नहीं है और न कोई है दुश्मन ।
जो सत्-पथ पर चलते हैं प्रभु के प्यारे हैं वे सज्जन ॥2॥
8071
अभि त्वा योषणो दश जारं न कन्यानूषत । मृज्यसे सोम सातये॥3॥
सहज रूप से ही प्रकाश में अग्नि समाई रहती है ।
वैसे ही मन प्रभु को भजता प्रभु से डोर बँधी रहती है॥3॥
8072
त्वमिन्द्राय विष्णवे स्वादुरिन्दो परि स्त्रव । नृन्त्स्तोतृन्पाह्यंहसः॥4॥
ज्ञान - मार्ग पर जो चलते हैं प्रभु का पाते हैं सान्निध्य ।
खट् - रागों से वही बचाता परमेश्वर है अतिशय - भव्य ॥4॥
8069
परि सोम ऋतं बृहदाशुः पवित्रे अर्षति । विघ्नन्रक्षांसि देवयुः॥1॥
प्रभु कर्मानुरूप फल देता सत्कर्म सदा ही श्रेयस्कर है ।
साधन से मन पावन होता शुभ- कर्म सदा ही रुचिकर है॥1॥
8070
यत्सोमो वाजमर्षति शतं धारा अपस्युवः। इन्द्रस्य सख्यमाविशन्॥2॥
कोई भी प्रभु का मित्र नहीं है और न कोई है दुश्मन ।
जो सत्-पथ पर चलते हैं प्रभु के प्यारे हैं वे सज्जन ॥2॥
8071
अभि त्वा योषणो दश जारं न कन्यानूषत । मृज्यसे सोम सातये॥3॥
सहज रूप से ही प्रकाश में अग्नि समाई रहती है ।
वैसे ही मन प्रभु को भजता प्रभु से डोर बँधी रहती है॥3॥
8072
त्वमिन्द्राय विष्णवे स्वादुरिन्दो परि स्त्रव । नृन्त्स्तोतृन्पाह्यंहसः॥4॥
ज्ञान - मार्ग पर जो चलते हैं प्रभु का पाते हैं सान्निध्य ।
खट् - रागों से वही बचाता परमेश्वर है अतिशय - भव्य ॥4॥
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