[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7888
प्र सोमासो अधन्विषुः पवमानास इन्दवः। श्रीणाना अप्सु मृञ्जत्॥1॥
अनन्त गुणों का वह स्वामी है गुण आनन्द - दायक होते हैं ।
जब प्रभु का चिन्तन करते हैं हम आनन्द - बीज बोते हैं ॥1॥
7889
अभि गावो अधन्विषुरापो न प्रवता यतीः। पुनाना इन्द्रमाशत॥2॥
कर्म - मार्ग के पथिक सर्वदा प्रभु का करते हैं साक्षात्कार ।
सामर्थ्यानुरूप फल मिलता प्रभु हैं हम सबके आधार ॥2॥
7890
प्र पवमान धन्वसि सोमेन्द्राय पातवे । नृभिर्यतो वि नीयसे ॥3॥
कर्म - मार्ग और ज्ञान - मार्ग के राही को प्रभु से है प्यार ।
चरैवेति - पथ पर वह चलते प्रेम - मात्र जीवन का सार ॥3॥
7891
त्वं सोम नृमादनः पवस्व चर्षणीसहे । सस्निर्यो अनुमाद्यः॥4॥
कर्म - योग की महिमा न्यारी सब कर्मानुकूल फल पाते ।
सत्कर्मों का फल शुभ - शुभ है दुर्जन बहुत - बहुत पछताते॥4॥
7892
इन्दो यदद्रिभिःसुतःपवित्रं परिधावसि । अरमिन्द्रस्य धाम्ने॥5॥
मनुज - देह में प्रभु रहता है पर पावन - मन है उसको प्यारा ।
योगी बहुत भाग्य - शाली है प्रभु का है वह बडा - दुलारा ॥5॥
7893
पवस्व वृत्रहन्तमोक्थेभिरनुमाद्यः। शुचिः पावको अद्भुतः ॥6॥
परमात्मा अत्यन्त अद्भुत है उसकी बनी नहीं परिभाषा ।
परमेश्वर आनन्द - रूप है वह तो है भावों की भाषा ॥6॥
7894
शुचिः पावक उच्यते सोमः सुतस्य मध्वः। देवावीरघशंसह॥7॥
सज्जन सदा फूलते - फलते दुर्जन तितर - बितर हो जाते ।
जैसी करनी वैसी ही भरनी बात पते की वही बताते ॥7॥
7888
प्र सोमासो अधन्विषुः पवमानास इन्दवः। श्रीणाना अप्सु मृञ्जत्॥1॥
अनन्त गुणों का वह स्वामी है गुण आनन्द - दायक होते हैं ।
जब प्रभु का चिन्तन करते हैं हम आनन्द - बीज बोते हैं ॥1॥
7889
अभि गावो अधन्विषुरापो न प्रवता यतीः। पुनाना इन्द्रमाशत॥2॥
कर्म - मार्ग के पथिक सर्वदा प्रभु का करते हैं साक्षात्कार ।
सामर्थ्यानुरूप फल मिलता प्रभु हैं हम सबके आधार ॥2॥
7890
प्र पवमान धन्वसि सोमेन्द्राय पातवे । नृभिर्यतो वि नीयसे ॥3॥
कर्म - मार्ग और ज्ञान - मार्ग के राही को प्रभु से है प्यार ।
चरैवेति - पथ पर वह चलते प्रेम - मात्र जीवन का सार ॥3॥
7891
त्वं सोम नृमादनः पवस्व चर्षणीसहे । सस्निर्यो अनुमाद्यः॥4॥
कर्म - योग की महिमा न्यारी सब कर्मानुकूल फल पाते ।
सत्कर्मों का फल शुभ - शुभ है दुर्जन बहुत - बहुत पछताते॥4॥
7892
इन्दो यदद्रिभिःसुतःपवित्रं परिधावसि । अरमिन्द्रस्य धाम्ने॥5॥
मनुज - देह में प्रभु रहता है पर पावन - मन है उसको प्यारा ।
योगी बहुत भाग्य - शाली है प्रभु का है वह बडा - दुलारा ॥5॥
7893
पवस्व वृत्रहन्तमोक्थेभिरनुमाद्यः। शुचिः पावको अद्भुतः ॥6॥
परमात्मा अत्यन्त अद्भुत है उसकी बनी नहीं परिभाषा ।
परमेश्वर आनन्द - रूप है वह तो है भावों की भाषा ॥6॥
7894
शुचिः पावक उच्यते सोमः सुतस्य मध्वः। देवावीरघशंसह॥7॥
सज्जन सदा फूलते - फलते दुर्जन तितर - बितर हो जाते ।
जैसी करनी वैसी ही भरनी बात पते की वही बताते ॥7॥
सुन्दर सन्देश...
ReplyDeleteपरमात्मा अत्यन्त अद्भुत है उसकी बनी नहीं परिभाषा ।
ReplyDeleteपरमेश्वर आनन्द - रूप है वह तो है भावों की भाषा ॥6॥
तभी न कहते हैं ईश्वर भाव का भूखा है