Saturday, 10 May 2014

सूक्त - 55

[ऋषि- अवत्सार काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8065
यवंयवं नो अन्धसा पुष्टम्पुष्टं  परि स्त्रव । सोम विश्वा च सौभगा॥1॥

हे  प्रभु  अतुलित  बल  के  स्वामी  शौर्य -  धैर्य  का  दो  वरदान ।
अन्न - धान  तुम  ही देना प्रभु सुख - वैभव  भी  करो  प्रदान॥1॥

8066
इन्दो यथा तव स्तवो यथा ते जातमन्धसः। नि बर्हिषि प्रिये सदः॥2॥

तुम  ही  यश  वैभव  के  स्वामी  यश - वैभव  का  दे  दो  दान ।
अन्न - धान - औषधि भी देना दया - दृष्टि रखना भगवान ॥2॥

8067
उत नो गोविदश्ववित्पवस्य सोमान्धसा । मक्षूतमेभिरहभिः॥3॥

हे  अतुलित  वैभव  के  मालिक  सुख -  वैभव  तुम  देते  रहना ।
तुझको  याद  सदा  करते  हैं  तुम  भी  मेरी सुधि लेते रहना ॥3॥

8068
यो जिनाति न जीयते हन्ति शत्रुमभीत्य । स पवस्व सहस्त्रजित्॥4॥

काल  सतत  सबको  खाता  है  पर  वह  खुद  रहता  अविनाशी ।
उपासनीय है वह परमेश्वर कण- कण में है क्या मथुरा-काशी॥4॥ 

1 comment:

  1. काशी में बैठे हैं, प्रकाशमय है यहाँ का आध्यात्मिक वातावरण।

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