Sunday, 18 May 2014

सूक्त - 41

[ऋषि- मेध्यातिथि काण्व । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7991
प्र ये गावो न भूर्णयस्त्वेषा अयासो अक्रमुः। घ्नन्तः कृष्णामप त्वचम्॥1॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  सबका  ध्यान  वही  रखता  है ।
हम  सबको  वह  प्रेरित  करता सबका जीवन वह गढता है ॥1॥

7992
सुवितस्य मनामहेSति सेतुं दुराव्यम् । साह्वांसो दस्युमव्रतम्॥2॥

जगत - सेतु  है  वह  परमात्मा रखता  है सब के सुख का ध्यान ।
सूर्य - चन्द्र  आलोक  बिछाते सुख - कर है उसका अभियान ॥2॥

7993
शृण्वे वृष्टेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिणः। चरन्ति विद्युतो दिवि॥3॥

परमात्मा  पावस  पर   देता  पृथ्वी  पर  रिम- झिम  बरसात ।
सुख - साधन बिखरे धरती  पर मल्हार सुनाता पात - पात॥3॥

7994
आ पवस्व महीमिषं गोमदिन्दो हिरण्यवत् । अश्वावद्वाजवत् सुतः॥4॥

अनन्त - शक्ति का वह  स्वामी  है  परमात्मा है स्वयं - प्रकाश ।
सबको वही प्रकाशित करता  तम  का  करता  है  वह नाश ॥4॥ 

7995
स पवस्व विचर्षण आ मही रोदसी पृण । उषा: सूर्यो न रश्मिभिः॥5॥

सूर्य - किरण धरती पर आती प्रति - दिन होता नया - बिहान ।
सज्जन को सुख - साधन देता रखता है उसका पूरा ध्यान ॥5॥

7996
परि णः शर्मयन्त्या धारया सोम विश्वतः। सरा रसेव विष्टपम्॥6॥

परमात्मा आनन्द - उत्स  है आओ  कर  लें  हम  भी  रस-पान ।
कर्म - मार्ग तुम  ही  दिखलाना दया - दृष्टि  रखना  भगवान ॥6॥ 

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