[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7881
सोमा असृग्रमाशवो मधोर्मदस्य धारया । अभि विश्वानि काव्या॥1॥
वेद - ऋचायें अति - अद्भुत हैं विधि - निषेध का देतीं ज्ञान ।
यह विद्या - निधान है सचमुच परमात्मा - पूरित - विज्ञान ॥1॥
7882
अनु प्रत्नास आयवः पदं नवीयो अक्रमुः। रुचे जनन्त सूर्यम् ॥2॥
विविध शक्ति है परा - प्रकृति में अन्वेषण अविरल करना है ।
भरे - पडे हैं सुख - साधन सब बस सम्मुख लाकर रखना है ॥2॥
7883
आ पवमान नो भरार्यो अदाशुषो गयम् । कृधि प्रजावतीरिषः॥3॥
हे परमेश्वर विनती सुन लो हम सब को दैवीय - गुण देना ।
हे प्रभु मेरा मन पावन हो अपने - पन से अपना लेना ॥3॥
7884
अभि सोमास आयवः पवन्ते मद्यं मदम् । अभि कोशं मधुश्चुतम्॥4॥
विविध - विभूति भरी है जग में पर यह वीरों को मिलती है ।
अन्वेषन अति आवश्यक है नव - नूतन कलियॉ खिलती हैं ॥4॥
7885
सोमो अर्षति धर्णसिर्दधान इन्द्रियं रसम् । सुवीरो अभिशस्तिपा:॥5॥
धरा - गगन दोनों अनुपम हैं नित - नवीन हैं और निरन्तर ।
तुम कितने हो पात्र यहॉ पर पग - पग पाओ बढो परस्पर ॥5॥
7886
इन्द्राय सोम पवसे देवेभ्यः सधमाद्यः। इन्दो वाजं सिषाससि ॥6॥
परमात्मा प्रोत्साहित करता उद्यम - पथ पर पहुँचाता है ।
जितनी है सामर्थ्य तुम्हारी उतना सुख देने आता है ॥6॥
7887
अस्य पीत्वा मदानामिन्द्रो वृत्राण्यप्रति । जघान जघनच्च नु ॥7॥
इस दुनियॉ में जितने सुख हैं आनन्द - सुख सबसे भारी है ।
हे प्रभु दया - दृष्टि तुम रखना देखो अब अपनी बारी है ॥7॥
7881
सोमा असृग्रमाशवो मधोर्मदस्य धारया । अभि विश्वानि काव्या॥1॥
वेद - ऋचायें अति - अद्भुत हैं विधि - निषेध का देतीं ज्ञान ।
यह विद्या - निधान है सचमुच परमात्मा - पूरित - विज्ञान ॥1॥
7882
अनु प्रत्नास आयवः पदं नवीयो अक्रमुः। रुचे जनन्त सूर्यम् ॥2॥
विविध शक्ति है परा - प्रकृति में अन्वेषण अविरल करना है ।
भरे - पडे हैं सुख - साधन सब बस सम्मुख लाकर रखना है ॥2॥
7883
आ पवमान नो भरार्यो अदाशुषो गयम् । कृधि प्रजावतीरिषः॥3॥
हे परमेश्वर विनती सुन लो हम सब को दैवीय - गुण देना ।
हे प्रभु मेरा मन पावन हो अपने - पन से अपना लेना ॥3॥
7884
अभि सोमास आयवः पवन्ते मद्यं मदम् । अभि कोशं मधुश्चुतम्॥4॥
विविध - विभूति भरी है जग में पर यह वीरों को मिलती है ।
अन्वेषन अति आवश्यक है नव - नूतन कलियॉ खिलती हैं ॥4॥
7885
सोमो अर्षति धर्णसिर्दधान इन्द्रियं रसम् । सुवीरो अभिशस्तिपा:॥5॥
धरा - गगन दोनों अनुपम हैं नित - नवीन हैं और निरन्तर ।
तुम कितने हो पात्र यहॉ पर पग - पग पाओ बढो परस्पर ॥5॥
7886
इन्द्राय सोम पवसे देवेभ्यः सधमाद्यः। इन्दो वाजं सिषाससि ॥6॥
परमात्मा प्रोत्साहित करता उद्यम - पथ पर पहुँचाता है ।
जितनी है सामर्थ्य तुम्हारी उतना सुख देने आता है ॥6॥
7887
अस्य पीत्वा मदानामिन्द्रो वृत्राण्यप्रति । जघान जघनच्च नु ॥7॥
इस दुनियॉ में जितने सुख हैं आनन्द - सुख सबसे भारी है ।
हे प्रभु दया - दृष्टि तुम रखना देखो अब अपनी बारी है ॥7॥
विविध शक्ति है परा - प्रकृति में अन्वेषण अविरल करना है ।
ReplyDeleteभरे - पडे हैं सुख - साधन सब बस सम्मुख लाकर रखना है ॥2॥
माँ प्रकृति को कोटि कोटि प्रणाम..