Saturday, 17 May 2014

सूक्त - 44

[ऋषि- अयास्य आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8009
प्र ण इन्दो महे तन ऊर्मिं न बिभ्रदर्षसि । अभि देवॉ अयास्यः॥1॥

जो  कर्म - मार्ग  को  नहीं  जानते  वे  सुख - वैभव  से  रहते  दूर ।
उद्योगी  बन   चलें  निरन्तर  पा  सकते  हैं  वैभव  भर -  पूर ॥1॥

8010
मती जुष्टो धिया हितःसोमो हिन्वे परावति । विप्रस्य धारया कविः॥2॥

वेद  शब्द  में  ज्ञान  है  अद्भुत  यह  विद्  धातु  से  बना  हुआ  है ।
जीवन  के  हर  मोड  को  छूता ज्ञान - अमृत  से सना हुआ है ॥2॥

8011
अयं देवेषु जागृविःसुत एति पवित्र आ । सोमो याति विचर्षणिः॥3॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  सबकी  सुधि  वह  ही  लेता  है ।
पावन - मन में वह रहता है सुख - सुविधा - साधन देता  है ॥3॥

8012
स नःपवस्व वाजयुश्चक्राणश्चारुमध्वरम् । बर्हिष्मॉ आ विवासति॥4॥

परमात्मा  की  व्यापक  सत्ता  वह  ही  है  जगती  का  वितान ।
वही  सखा  प्रोत्साहित करता वसुधा का वह नव - बिहान ॥4॥

8013
स नो भगाय वायवे विप्रवीरः सदावृधः। सोमो देवेष्वा यमत् ॥5॥

साधक को सत्पथ दिखलाता सज्जन - बल - वर्धन करता है ।
चरैवेति  का  मर्म  सिखाता  हम सब का जीवन गढता  है ॥5॥

8014
स नो अद्य वसुत्तये क्रतुविद् गातुवित्तमः। वाजं जेषि श्रवो बृहत्॥6॥

कवियों  में  वह  उत्तम  कवि  है  सब  के  कर्मों  का  वह  ज्ञाता ।
ज्ञानी को वह प्रेरित कतता है वह जग का आलोक - प्रदाता ॥6॥         




1 comment:

  1. जीवन में कर्म ही प्रधान है...

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