[ऋषि- बृहन्मति आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7979
आशुरर्ष बृहन्मते परि प्रियेण धाम्ना । यत्र देवा इति ब्रवन्॥1॥
सर्वत्र व्याप्त है वह परमात्मा उसकी गति भी अति अद्भुत है ।
दिव्य - गुणों का वह निधान है सर्वत्र सदा वह अच्युत है ॥1॥
7980
परिष्कृण्वन्ननिष्कृतं जनाय यातयन्निषः। वृष्टिं दिवः परि स्त्रव॥2॥
परमात्मा की रचना अद्भुत आदित्य - अनिल हैं सुख के श्रोत ।
अत्यन्त सुखद है यह वसुधा भी कौतूहल से है ओत - प्रोत॥2॥
7981
सुत एति पवित्र आ त्विषिं दधान ओजसा । विचक्षाणो विरोचयन्॥3॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा सन्त - हृदय में वह रहता है ।
सम्पूर्ण धरा का वह द्रष्टा है वह सबकी विपदा हरता है ॥3॥
7982
अयं स यो दिवस्परि रघुयामा पवित्र आ । सिन्धोरूर्मा व्यक्षरत्॥4॥
परमेश्वर की गति अद्भुत है वह नभ से भी ऊपर रहता है ।
कण - कण में वह विद्यमान है पर सज्जन-मन में बसता है॥4॥
7983
आविवासन्परावतो अथो अर्वावतः सुतः। इन्द्राय सिच्यते मधु॥5॥
आनन्द - उत्स है वह परमेश्वर एक - मात्र वह ही अपना है ।
हम सबको वह सुख देता है शेष सभी केवल सपना है ॥5॥
7984
समीचीना अनूषत हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। योनावृतस्य सीदत्॥6॥
सत्कर्म - मार्ग पर जो चलता है प्रभु दिव्य - गुणों का देते दान ।
यश - वैभव वह ही पाता है वह ही पाता है आत्म- ज्ञान ॥6॥
7979
आशुरर्ष बृहन्मते परि प्रियेण धाम्ना । यत्र देवा इति ब्रवन्॥1॥
सर्वत्र व्याप्त है वह परमात्मा उसकी गति भी अति अद्भुत है ।
दिव्य - गुणों का वह निधान है सर्वत्र सदा वह अच्युत है ॥1॥
7980
परिष्कृण्वन्ननिष्कृतं जनाय यातयन्निषः। वृष्टिं दिवः परि स्त्रव॥2॥
परमात्मा की रचना अद्भुत आदित्य - अनिल हैं सुख के श्रोत ।
अत्यन्त सुखद है यह वसुधा भी कौतूहल से है ओत - प्रोत॥2॥
7981
सुत एति पवित्र आ त्विषिं दधान ओजसा । विचक्षाणो विरोचयन्॥3॥
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा सन्त - हृदय में वह रहता है ।
सम्पूर्ण धरा का वह द्रष्टा है वह सबकी विपदा हरता है ॥3॥
7982
अयं स यो दिवस्परि रघुयामा पवित्र आ । सिन्धोरूर्मा व्यक्षरत्॥4॥
परमेश्वर की गति अद्भुत है वह नभ से भी ऊपर रहता है ।
कण - कण में वह विद्यमान है पर सज्जन-मन में बसता है॥4॥
7983
आविवासन्परावतो अथो अर्वावतः सुतः। इन्द्राय सिच्यते मधु॥5॥
आनन्द - उत्स है वह परमेश्वर एक - मात्र वह ही अपना है ।
हम सबको वह सुख देता है शेष सभी केवल सपना है ॥5॥
7984
समीचीना अनूषत हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। योनावृतस्य सीदत्॥6॥
सत्कर्म - मार्ग पर जो चलता है प्रभु दिव्य - गुणों का देते दान ।
यश - वैभव वह ही पाता है वह ही पाता है आत्म- ज्ञान ॥6॥
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