Wednesday, 14 May 2014

सूक्त - 45

[ऋषि- अयास्य आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8015
स पवस्व मदाय कं नृचक्षा देववीतये । इन्दविन्द्राय पीतये॥1॥

मानव के मन - मन्दिर में प्रति - पल परमेश्वर का रहता वास ।
वह हमको रेखाञ्कित करता है हर पल रहता  है आस-पास॥1॥

8016
स नो अर्षाभि दूत्यं1त्वमिन्द्राय तोशसे।देवान्त्सखिभ्य आ वरम्॥2॥

कर्मानुसार  ही  फल  मिलता  है  सत्कर्मों  का  फल  है  सुख ।
इससे  कोई  बच नहीं सकता दुष्कर्मों का प्रति - फल दुख ॥2॥

8017
उत त्वामरुणं वयं गोभिरञ्ज्मो मदाय कम् । वि नो राये दुरो वृधि॥3॥

जीवन  में  गति आवश्यक  है  गति  है  जीवन  की  पहचान ।
कर्म - मार्ग  है  सुखद  इसी  से आ जाओ  सब  है आह्वान ॥3॥

8018
अत्यू पवित्रमक्रमीद्वाजी धुरं न यामनि । इन्दुर्देवेषु पत्यते ॥4॥

परमात्मा  है  सबका  आश्रय  हम  सबका  है  वह  आधार ।
वह ज्ञानी के मन में बसता दिव्य - गुणों का  है आगार ॥4॥

8019
समी सखायो अस्वरन्वने क्रीळन्तमत्यविम् । इन्दुं नावा अनूषत॥5॥

परमात्मा  सबका  रक्षक  है  परमात्मा  है  सखा - समान ।
मन ही मन हम बातें करते दीन - बन्धु  हैं  वे भगवान ॥5॥ 

8020
तया पवस्व धारया यया पीतो विचक्षसे । इन्दो स्तोत्रे सुवीर्यम्॥6॥

ज्ञान - कर्म की अविरल गति से मनुज - मात्र का बढता बल ।
आनन्द - रूप  है वह परमेश्वर सबको देता कर्मों का फल ॥6॥  

3 comments:

  1. परमात्मा है सबका आश्रय हम सबका है वह आधार ।
    वह ज्ञानी के मन में बसता दिव्य - गुणों का है आगार ॥4॥

    उस परमात्मा को नमन..

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  2. कर्मन की गति न्यारी...

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