Friday, 23 May 2014

सूक्त - 32

[ऋषि- श्यावाश्व आत्रेय । देवता- पवमान सोम । छ न्द- गायत्री ।]

7937
प्र सोमासो मदच्युतः श्रवसे नो मघोनः।सुता विदथे चक्रमुः॥1॥

जो  जन  प्रभु - उपासना  करते  प्रभु  रखते  हैं  उनका  ध्यान ।
परमात्मा  यश -  वैभव  देते   दीन - बन्धु  हैं  वे  भगवान ॥1॥

7938
आदीं त्रितस्य योषणो हरिं हित्वन्त्यद्रिभिः। इन्दुमिन्द्राय पीतये॥2॥

जो जप - तप - सुमिरन करते हैं उनका मन - हर होता व्यक्तित्व ।
अभ्युदय निरन्तर होता रहता व्यापक होता सह - अस्तित्व ॥2॥

7939
आदीं हंसो यथा गणं विश्वस्यावीवशन्मतिम् । अत्यो न गोभिरज्यते॥3॥

अपना - पन  आकर्षित  करता  वह  परमात्मा  मुझको  भाता  है ।
अपने  समान  ही  वह  लगता  है  कितना अद्भुत यह नाता  है ॥3॥

7940
उभे सोमावचाकशन्मृगो न तक्तो अर्षति । सीदन्नृतस्य योनिमा॥4॥

कण - कण  में  वह  बसा हुआ है इस जगती का वह है स्वामी ।
सभी  रसों  का  वही  प्रणेता  परमात्मा  के  हम अनुगामी ॥4॥

7941 
अभि गावो अनूषत योषा जारमिव प्रियम् । अगन्नाजिं यथा हितम्॥5॥

परमात्मा  आत्मीय   सभी  का  करता  है  सब  पर  उपकार ।
पर  साधक   है  उसको प्यारा  प्रभु  है  एक - मात्र आधार ॥5॥

7942 
अस्मे धेहि द्युमद्यशो मघवद्भ्यश्च मह्यं च । सनिं मेधामुत श्रवः॥6॥

ज्ञान -  मार्ग  पर  जो  चलते  हैं  मात्र  अभ्युदय  है  अभियान ।
कर्मानुरूप सब को फल मिलता कृपा - सिन्धु हैं वे भगवान॥6॥ 

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