[ऋषि- नृमेध आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7907
एष कविरभिष्टुतः पवित्रे अधि तोशते । पुनानो घ्नन्नप स्त्रिधः॥1॥
प्रभु दुष्टों को दण्डित करते सत् - जन का रखते हैं ध्यान ।
जिनका अन्तर्मन पावन है उसका है वह दया - निधान ॥1॥
7908
एष इन्द्राय वायवे स्वर्जित्परि षिच्यते । पवित्रे दक्षसाधनः ॥2॥
परमात्मा पर जब भी साधक करता है श्रध्दा - विश्वास ।
प्रभु उसको यश - वैभव देते हरदम रहते उसके पास ॥2॥
7909
एष नृभिर्वि नीयते दिवो मूर्धा वृषा सुतः। सोमो वनेषु विश्ववित्॥3॥
जो भी साधक सहज - सरल है उसका अविरल होता उत्थान ।
कर्मानुसार सबको फल मिलता कर्मों से बनता मनुज महान॥3॥
7910
एष गव्युरचिक्रदत् पवमानो हिरण्ययुः। इन्दुः सत्राजिदस्तृतः॥4॥
प्रभु जिस पर प्रसन्न होते हैं सत् - विद्या का देते भण्डार ।
यश - वैभव के वे निधान हैं करते हैं अनगिन उपकार ॥4॥
7911
एष सूर्येण हासते पवमानो अधि द्यवि । पवित्रे मत्सरो मदः॥5॥
आलोक सभी को वह देता है वह है हम सबका आधार ।
वह ही आनन्द - रस देता है प्रभु है वैभव का आगार ॥5॥
7912
एष शुष्म्यसिष्यददन्तरिक्षे वृषा हरिः। पुनान इन्दुरिन्द्रमा॥6॥
अनन्त - बलों का वह स्वामी है कण - कण में वह ही बसता है ।
मनो - कामना पूरी करता वह सब की विपदा हरता है ॥6॥
7907
एष कविरभिष्टुतः पवित्रे अधि तोशते । पुनानो घ्नन्नप स्त्रिधः॥1॥
प्रभु दुष्टों को दण्डित करते सत् - जन का रखते हैं ध्यान ।
जिनका अन्तर्मन पावन है उसका है वह दया - निधान ॥1॥
7908
एष इन्द्राय वायवे स्वर्जित्परि षिच्यते । पवित्रे दक्षसाधनः ॥2॥
परमात्मा पर जब भी साधक करता है श्रध्दा - विश्वास ।
प्रभु उसको यश - वैभव देते हरदम रहते उसके पास ॥2॥
7909
एष नृभिर्वि नीयते दिवो मूर्धा वृषा सुतः। सोमो वनेषु विश्ववित्॥3॥
जो भी साधक सहज - सरल है उसका अविरल होता उत्थान ।
कर्मानुसार सबको फल मिलता कर्मों से बनता मनुज महान॥3॥
7910
एष गव्युरचिक्रदत् पवमानो हिरण्ययुः। इन्दुः सत्राजिदस्तृतः॥4॥
प्रभु जिस पर प्रसन्न होते हैं सत् - विद्या का देते भण्डार ।
यश - वैभव के वे निधान हैं करते हैं अनगिन उपकार ॥4॥
7911
एष सूर्येण हासते पवमानो अधि द्यवि । पवित्रे मत्सरो मदः॥5॥
आलोक सभी को वह देता है वह है हम सबका आधार ।
वह ही आनन्द - रस देता है प्रभु है वैभव का आगार ॥5॥
7912
एष शुष्म्यसिष्यददन्तरिक्षे वृषा हरिः। पुनान इन्दुरिन्द्रमा॥6॥
अनन्त - बलों का वह स्वामी है कण - कण में वह ही बसता है ।
मनो - कामना पूरी करता वह सब की विपदा हरता है ॥6॥
सत-पुरुषों के ह्रदय में प्रभु का वास होता है...
ReplyDeleteजो भी साधक सहज - सरल है उसका अविरल होता उत्थान ।
ReplyDeleteकर्मानुसार सबको फल मिलता कर्मों से बनता मनुज महान॥3॥
कर्म शुभ हों तो भाग्य भी शुभ हो जाता है